11-अक्टूबर-2021 | पश्चिम बंगाल में दुर्गा उत्सव पांच दिनों तक मनाया जाता है। इस उत्सव को महा षष्ठी, महासप्तमी, महाअष्टमी, महानवमी और विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान षष्ठी तिथि पर कल्पारम्भ यानी देवी आह्वान किया जाता है। इसे अकाल बोधन कहते हैं और दशहरे के दिन देवी विसर्जन होता है। दुर्गा पूजा के दौरान देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती, भगवान गणेश और भगवान कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है।
महिषासुर मर्दिनी की पूजा
बंगाल में नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के महिषासुर मर्दिनी स्वरूप की पूजा की जाती है। पंडालों में महिषासुर का वध करते हुई देवी की प्रतिमा बनाई जाती है। इसमें देवी त्रिशूल पकड़े हुए और उनके चरणों में महिषासुर होता है। देवी के साथ वाहन के रूप में शेर भी होता है। साथ ही अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी होती हैं। इनमें दुर्गा के साथ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी बनाई जाती हैं। इस पूरी प्रस्तुति को चाला कहा जाता है। साथ ही दाईं तरफ देवी सरस्वती और भगवान कार्तिकेय होते हैं। बाईं तरफ देवी लक्ष्मी और गणेश जी होते हैं। इसे चाला कहा जाता है।
अकाल बोधन, यानी अश्विन मास में दुर्गा पूजा शुरू होने की कथा
पहले मां दुर्गा की पूजा चैत्र महीने में ही हुआ करती थी। भगवान राम ने रावण को हराने के लिए पहली बार अश्विन माह में देवी की पूजा की। इसलिए बंगाल में इसे अकाल बोधन कहते हैं। यानी असमय पूजा। कथा के मुताबिक रावण को हराने के लिए भगवान राम को शक्ति चाहिए थी। इसके लिए उन्होंने देवी दुर्गा की उपासना शुरू की, लेकिन देवी दुर्गा की शर्त थी कि राम 108 नीलकमल से पूजा करें। फिर हनुमान 108 नीलकमल लाए। देवी दुर्गा परीक्षा लेने के लिए एक फूल छिपा लेती हैं। ऐसे में परेशान राम, जिनकी आंखें नीलकमल सी हैं, वो अपनी एक आंख निकालकर मां पर चढ़ाने लगते हैं। तभी मां दुर्गा विजयी भव का आशीर्वाद देती हैं। नवरात्र में अष्टमी-नवमी की रात राम-रावण के बीच भीषण युद्ध हुआ था। इसलिए आज भी आधी रात को विशेष पूजा की जाती है।
अकाल बोधन (11 अक्टूबर): इस दिन मंत्रों के जरिये देवी को जगाया जाता है। साथ ही कलश स्थापना कर के बिल्वपत्र के पेड़ की पूजा कर के देवी को निमंत्रण देकर मां दुर्गा का आह्वान किया जाता है। साथ ही विधि विधान से दुर्गा पूजा का संकल्प लिया जाता है। कल्पारंभ यानी अकाल बोधन की विधि घटस्थापना की तरह ही होती है। कल्पारम्भ की पूजा सुबह जल्दी करने का विधान है।
नवपत्रिका पूजा (12 अक्टूबर): नवरात्रि की महासप्तमी पर सुबह नवपत्रिका पूजा यानी नौ तरह की पत्तियों से मिलाकर बनाए गए गुच्छे से देवी आह्वान और पूजा की जाती है। इसे ही नवपत्रिका पूजा कहा जाता है। इनमें केले के पत्ते, हल्दी, दारूहल्दी, जयंती, बिल्वपत्र, अनार, अशोक, चावल और अमलतास के पत्ते होते हैं। इस दिन सूर्योदय से पहले गंगा या किसी पवित्र नदी में महास्नान होता है। फिर इन पत्तों को देवी पत्तियों या पौधों को पीले रंग के धागे के साथ सफेद अपराजिता पौधों की टहनियों से बांधा जाता है। युवतियों के लिए सप्तमी खास है। वे पीले रंग की साड़ी पहनकर मां के मंडप में जाती हैं और मनोकामना पूरी होने के लिए प्रार्थना करती हैं।
धुनुची नृत्य (13 और 14 अक्टूबर): धुनुची नृत्य सप्तमी से शुरू होता है और अष्टमी और नवमी तक चलता है। ये असल में शक्ति नृत्य है। बंगाल पूजा परंपरा में ये नृत्य मां भवानी की शक्ति और ऊर्जा बढ़ाने के लिए किया जाता है। धुनुची में नारियल की जटा, रेशे और हवन सामग्री यानी धुनी रखी जाती है। उसी से मां की आरती भी की जाती है।
सिंदूर खेला और मूर्ति विसर्जन (15 अक्टूबर): विजयदशमी पर्व, देवी पूजा का आखिरी दिन होता है। इस पर्व के आखिरी दिन महिलाएं सिंदूर खेलती हैं। इसमें वो एक-दूसरे को सिंदूर रंग लगाती हैं। इसी के साथ बंगाल में दुर्गा उत्सव पूरा हो जाता है। इस दिन देवी की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है और पूजा करने वाले सभी लोग एक-दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएं और मिठाइयां देते हैं।
Source;-“दैनिक भास्कर”