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इसराइल के क़रीब आ रहे हैं अरब देश, अब फ़लस्तीनियों का क्या होगा?

ByPrompt Times

Sep 17, 2020
इसराइल के क़रीब आ रहे हैं अरब देश, अब फ़लस्तीनियों का क्या होगा?
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संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के इसराइल के साथ समझौता करने को फ़लस्तीनियों ने पीठ में छुरा घोंपने जैसा बताया है.

फ़लस्तीनियों और इसराइल के बीच संघर्ष सात दशक पहले शुरू हुआ था जब 14 मई 1948 को इसराइल एक राष्ट्र बना था. लेकिन ये कहानी इससे पहले ही शुरू हो गई थी.

उस्मानिया सल्तनत के अधीन रहा फ़लस्तीन 1917 में ब्रिटेन के हाथ में आ गया था और ब्रिटेन ने बालफ़ोर घोषणा के तहत फ़लस्तीन में ‘यहूदी लोगों के राष्ट्रीय घर’ के सिद्धांत को समर्थन दिया था. तब फ़लस्तीन में बहुत कम संख्या में यहूदी रहते थे.

19वीं सदी में यूरोप से यहूदियों ने फ़लस्तीनी ज़मीन के लिए प्रवासन शुरू किया था जो चलता रहा. 1922 में ब्रिटेन ने ट्रांसजोर्डन इलाक़े को फ़लस्तीन मेंडेट से अलग करके यहां यहूदी बस्तियां बसाने पर रोक लगा दी.

आगे चलकर ब्रिटेन ने एक साल में अधिकतम दस हज़ार बाहरी यहूदियों के फ़लस्तीन में बसने की सीमा भी तय की.

स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र

1940 के दशक में जब यूरोप में यहूदियों का नरसंहार शुरू हुआ तो फ़लस्तीन की ओर यहूदियों ने बड़े पैमाने पर कूच किया. हथियारबंद यहूदी समूहों ने ब्रिटेन के ख़िलाफ़ संघर्ष का रास्ता अपनाकर स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र के निर्माण के लिए लड़ाई भी छेड़ दी.

1947 में संयुक्त राष्ट्र ने फ़लस्तीन को स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र और अरब राष्ट्र में बांटने की सिफ़ारिश की और यरूशलम पर अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण की सिफ़ारिश की. 1948 में इसराइल ने अपने आप को स्वतंत्र घोषित किया और उसे संयुक्त राष्ट्र में शामिल कर लिया गया.

इसके एक ही साल बाद अरब देशों और इसराइल के बीच युद्ध हुआ. समझौते में इसराइल के पास पहले से अधिक ज़मीन आई. मिस्र ने ग़ज़ा पर क़ब्ज़ा कर लिया. जॉर्डन ने वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम को छीन लिया.

इसराइल तो एक राष्ट्र बन गया था लेकिन फ़लस्तीनियों के बुरे दिन शुरू हो गए थे. उस समय फ़लस्तीनी अरब लोगों की आबादी क़रीब 12 लाख थी जिनमें से साढ़े सात लाख को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा.

1967 में हुए अरब-इसराइल युद्ध में पूर्वी यरूशलम, वेस्ट बैंक, सीरिया के गोलान हाइट्स और मिस्र के सिनाई इलाक़े पर इसराइल का नियंत्रण हो गया. फ़लस्तीनियों की और अधिक ज़मीन इसराइल के क़ब्ज़े में आ गई.

ऐतिहासिक शांति समझौता

इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच संघर्ष चलता रहा. बीच-बीच में शांति वार्ता की कोशिशें भी होती रही हैं. इसी दौरान अरब देश फ़लस्तीनियों के साथ ही खड़े नज़र आए हैं.

अब इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात के उच्चस्तरीय दलों ने अमरीका के व्हाइट हाउस में ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. बहरीन के विदेश मंत्री भी सम्मेलन में शामिल रहे और इसराइल के साथ रिश्ते स्थापित करने के समझौते पर उन्होंने भी हस्ताक्षर किए.

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने बीते सप्ताह बहरीन और इसराइल के बीच रिश्ते सामान्य होने की घोषणा की थी. इससे पहले उन्होंने ही इसराइल और यूएई के बीच शांति संबंध स्थापित होने का ऐलान किया था.

इससे पहले अरब दुनिया के दो देशों मिस्र और जॉर्डन ने ही इसराइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए थे. उसके बाद से ये पहली बार है जब अरब दुनिया के दो छोटे देश इसराइल के साथ रिश्ते स्थापित कर रहे हैं.

इसराइल और अरब देशों के बीच ये रिश्ते बीते कुछ हफ्तों के भीतर ही बने हैं. अब सवाल उठता है कि इसका असर फ़लस्तीनी उम्मीदों और फ़लस्तीनी राष्ट्र बनने की संभावनाओं पर क्या होगा?

मुश्किल होगा फ़लस्तीनी राष्ट्र का निर्माण

मध्य पूर्व पर नज़र रखने वाले विश्लेषकों का मानना है कि दो राष्ट्रों के सिद्धांत के तहत अलग से फ़लस्तीनी राष्ट्र का बनना अब मुश्किल होगा.

अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, “टू स्टेट सॉल्यूशन यानी दो राष्ट्रों के निर्माण की जो योजना थी, जिसका अमरीका ने भी समर्थन किया था और जिसके तहत 1967 में निर्धारित सीमाओं के अनुसार एक देश इसराइल और एक अलग देश फ़लस्तीन होना था और यरूशलम एक साझा शहर होना था. लेकिन आज के दौर के नक्शे को देखकर अब ये होना बहुत मुश्किल लगता है.”

ख़ान कहते हैं, “वेस्ट बैंक में भी इसराइली सेटलमेंट काफ़ी बढ़ गए हैं. ऐसे में ये नामुमकिन सा लगता है कि फ़लस्तीनियों को ऐसा इलाक़ा मिले जहां वो अपने राष्ट्र का निर्माण कर सकें. भविष्य में ऐसा हो सकता है कि यहूदी, अरब मुसलमान और अरब ईसाई एक ही देश में रहें. लेकिन ऐसे में सवाल उठेगा कि यदि अरब मुसलमानों की संख्या अधिक हो गई तो क्या इसराइल एक यहूदी राष्ट्र बना रह पाएगा? इसराइल अगर उस इलाक़े पर यहूदी अधिकार बरक़रार रखना चाहेगा तो शायद फिर अरब मुसलमानों को यहूदियों के बराबर अधिकार न मिले और इसराइल एक नए भेदभाव वाले राष्ट्र के तौर पर उभरे.”

संयुक्त अरब अमीरात का कहना है कि इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य करने से जो इसराइल वेस्ट बैंक के नए इलाक़ों पर क़ब्ज़ा करने जा रहा था वो अब फ़िलहाल नहीं करेगा. संयुक्त अरब अमीरात ने ये भी तर्क दिया है कि इसराइल से रिश्ते सामान्य करने का फ़लस्तीनी लोगों को फ़ायदा होगा.

इसराइल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतनयाहू ने नए इलाक़ों पर क़ब्ज़े की घोषणा को टाल दिया है. प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, ‘ये कहा जा सकता है कि इस दिशा में संयुक्त अरब अमीरात ने कुछ वक़्त हासिल कर लिया है.’

लेकिन जब-जब इसराइल के साथ अरब देशों ने संबंध बनाए हैं, फ़लस्तीनी लोगों को कुछ न कुछ गंवाना ही पड़ा है. अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ और तुर्की के अंकारा में इल्द्रिम बेयाज़ित यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ओमैर अनस कहते हैं, ‘संयुक्त अरब अमीरात के अधिकारियों ने अपने बयानों में कहा है कि उनके लिए संयुक्त अरब अमीरात के सुरक्षा हित अधिक महत्वपूर्ण हैं. अपनी सुरक्षा के लिए यूएई का इसराइल के साथ रिश्ते बनाना ज़रूरी था.’

1979 में मिस्र ने इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य किए थे. तब भी ये कहा गया था कि इससे फ़लस्तीनियों को मदद मिलेगी. जब जॉर्डन ने इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य किए तब भी यही कहा गया. अब यूएई और बहरीन के रिश्ते सामान्य करने पर भी यही कहा जा रहा है.

ओमर अनस कहते हैं, ‘जब-जब किसी अरब देश ने इसराइल के साथ रिश्ते बनाए हैं, फ़लस्तीनियों ने अपना बहुत कुछ खोया है. जब पहली बार मिस्र ने किया तब फ़लस्तीन लिब्रेशन आइर्गेनाइज़ेशन (पीएलओ) एक हथियारबंद समूह था. तब पीएलओ ने हथियार डाले और उसे एक छोटा सा इलाक़ा दिया गया. उसे एक अर्धस्वायत्त स्टेट का दर्जा दे दिया गया. लेकिन कर लगाने का अधिकार इसराइल के पास ही रहा. तब से फ़लस्तीनी राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कोई बड़ा क़दम नहीं उठाया गया है.’

अनस कहते हैं, ‘जैसे-जैसे वक़्त आगे बढ़ता गया, फ़लस्तीनी राष्ट्र के निर्माण की संभावना और कम होती गई. आज फ़लस्तीनी जिस स्थिति में हैं, उसमें उसके एक राष्ट्र बनने के लिए ज़रूरी स्थितियां सबसे कम हैं. इसराइल के नज़रिए से देखें तो ये साफ़ है कि फ़लस्तीन के एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है. इसराइली नेता भी बार-बार ये बात कहते रहे हैं. फ़लस्तीनी पूरी तरह से इसराइली निर्भरता में रह सकते हैं और फ़लस्तीनियों को इस दर्जे को स्वीकार करना चाहिए.

अरब देशों के लिए फ़लस्तीन अब मुद्दा नहीं?

इसी बीच सवाल ये भी उठता है कि क्या अरब देशों में अब फ़लस्तीनियों के मुद्दे में कोई रूची बची है? क्या अरब देश अब भी फ़लस्तीन के लिए इसराइल जैसे ताक़तवर देश से लोहा लेने को तैयार हैं?

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, “अरब क्षेत्र में एक मुद्दे के तौर पर फ़लस्तीनियों का मुद्दा अब ख़त्म हो चुका है. शायद फ़लस्तीनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ते रहेंगे लेकिन दूसरे अरब देश अब उतनी जुस्तजू, उतनी ताक़त और उतने दम के साथ फ़लस्तीनियों के साथ नहीं आएंगे क्योंकि अब ख़ुद उनके देशों का भविष्य ख़तरे में दिखाई देता है.”

हाल के दशकों में मध्य पूर्व ने कई युद्ध और गृह युद्ध देखे हैं. यमन और अरब गठबंधन के बीच लड़ाई चल रही है. लीबिया गृह युद्ध में फँसा हैं. सीरिया बर्बादी के कगार पर पहुंच गया है. इराक़ अभी अमरीका के आक्रमण के बाद से उबर नहीं पाया है. ऐसे में ये सवाल उठता है कि अस्थिर हो रही अरब दुनिया में अब फ़लस्तीन के मुद्दे पर एकजुट होने की कितनी गुज़ाइश बची है.

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, “मध्य पूर्व इस समय अस्थिरता के दौर से गुज़र रहा है. यमन, सीरिया, इराक़ और लीबिया जैसे देश नाकाम हो चुके हैं. ये समूचा क्षेत्र ही अस्थिर होता जा रहा है. यहां के देश अब फ़लस्तीन के बारे में सोचने के बजाए अपनी फ़िक्र ज़्यादा कर रहे हैं.”

अधिकतर अरब देशों में लोकतंत्र के बजाए राजशाही है. राज परिवार सत्ता पर क़ाबिज़ हैं. इन ताक़तवर परिवारों को अपनी सुरक्षा की भी चिंता है.

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, ‘अरब देश सिर्फ़ अपनी सीमाओं की ही फ़िक्र नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्हें अपनी हुकूमतों की भी फ़िक्र है. वहां कई देशों में राजशाही है जिसे वो सुरक्षित करना चाहते हैं. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि वो अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए फ़लस्तीनियों के मुद्दे को छोड़ रहे हैं.’

तुर्की और ईरान के बढ़ते प्रभाव का डर

हाल के सालों में मध्य-पूर्व और आसपास के क्षेत्र में ग़ैर अरब ताक़तों का प्रभाव भी बढ़ा है. तुर्की और ईरान पहले से अधिक ताक़तवर हुए हैं.

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, ‘आज हालात ये हैं कि सऊदी अरब और अन्य अरब देश इसराइल के मुक़ाबले तुर्की और ईरान से ज़्यादा डरते हैं. इसराइल ने 1973 के बाद से किसी भी अरब देश की ज़मीन पर क़ब्ज़ा नहीं किया है. इसराइल ने 1973 के बाद से अपनी सीमाओं का विस्तार नहीं किया है. लेकिन अब ईरान की फ़ौजें सीरिया में भी हैं, यमन में भी हैं. ऐसा लगता है कि ईरान सऊदी अरब को घेर रहा है. वहीं तुर्की का सैन्य अड्डा क़तर में भी है, लीबिया में भी तुर्की की सेना है, सीरिया में है, इराक़ में भी है. ये भी माना जाता है कि सोमालिया और इरीट्रिया में भी तुर्की के सैनिक हैं.’

तो क्या ये कहा जाए कि तुर्की और ईरान से डरे अरब देश अपनी विदेश नीति को बदल रहे हैं?

प्रोफ़ेसर ख़ान कहते हैं, “अब हम देख रहे हैं कि एक नया मध्य पूर्व बन रहा है जिसमें अरब और ग़ैर-अरब लोगों के बीच में तनाव है न कि इसराइल और अरब लोगों के बीच में. अरब देश अब अपनी प्राथमिकता बदल रहे हैं.”

तुर्की ने इसराइल के साथ साल 1949 में ही राजनयिक संबंध स्थापित कर लिए थे. अब जब तुर्की यूएई और बहरीन पर सवाल उठा रहा है तो कहा जा रहा है कि तुर्की के तो पहले से ही इसराइल के साथ संबंध हैं. ओमैर अनस कहते हैं, ‘इसके जवाब में तुर्की का कहना है कि उसके संबंध इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि इसराइल की सीमा वही रहेगी जो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में तय की गई थी और फ़लस्तीन राष्ट्र का निर्माण होगा. तुर्की का विरोध ये है कि बहरीन और यूईए ने इस सिद्धांत को तोड़कर इसराइल के साथ संबंध बनाए हैं.’

तुर्की को लेकर अरब देशों के असहज होने की वजह बताते हुए ओमेर कहते हैं, “दरसअसल तुर्की और दूसरे अरब देशों के बीच में फ़र्क़ ये है कि अरब देशों में बादशाहत है लेकिन तुर्की में डेमोक्रेसी है, यह धर्म-निरपेक्ष देश है और नेटो का सदस्य है. सैन्य रूप से भी ताक़तवर है. तुर्की एक मॉडर्न राष्ट्र के रूप में उभरा है. लेकिन अरब देशों में अभी भी पूरा फोकस रिजीम या सत्ता की सुरक्षा पर ही है. ऐसे में तुर्की की सरकार के मॉडल ने अरब देशों में प्रभाव बनाया है और वहां की सरकारों को ये मॉडल अपने लिए ख़तरा लगने लगा है. इसी वजह से अरब देशों में तुर्की का डर बढ़ता जा रहा है. अब अरब देशों के फ़लस्तीन के मुद्दे पर रुख़ बदलने से तुर्की इस मुद्दे पर और मुखर हो सकता है.”

संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के इसराइल के साथ समझौते के बाद ये क़यास भी लगाए जा रहे हैं कि कई और अरब देश भी इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य कर सकते हैं.

इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच जो रिश्ते सामान्य हुए हैं उसमें फ़लस्तीनियों के बारे में भी बात की गई है. लेकिन ये बात अमरीका और इसराइल की ओर से ज़्यादा की जा रही है.

अमरीका के मौजूदा ट्रंप प्रशासन ने इसराइल के इसी नज़रिए को ‘डील ऑफ़ द सेंचुरी’ के नाम से बढ़ावा भी दिया है. अनस कहते हैं, ‘इसराइल की रणनीति अभी ये है कि फ़लस्तीन स्वतंत्र राष्ट्र न बनें. इसराइल के भीतर उस पर निर्भर एक फ़लस्तीनी समुदाय हो.’

सवाल ये भी उठता है कि क्या इसराइल को यूएई और बहरीन के साथ समझौता करने से मदद मिलेगी?

ओमैर अनस कहते हैं, “फ़लस्तीनी नेतृत्व और हमास ने यूईए और बहरीन के साथ हुए समझौते को ख़ारिज किया है. उन्होंने इसे अपनी पीठ में ख़ंजर घोंपने के बराबर बताया है. इससे ये साफ़ है कि फ़लस्तीनियों को इससे कोई मदद नहीं मिलने वाली है.”

यदि इस समझौते का मक़सद फ़लस्तीनियों को मदद पहुंचाना नहीं है तो क्या हो सकता है?

क्या ये ईरान और तुर्की के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए किया गया है?

इस सवाल पर ओमैर अनस की राय भी प्रोफ़ेसर मुक़्तर ख़ान से ही मेल खाती है. वो कहते हैं, “इसराइल और यूएई दोनों ही ईरान को अपना साझा दुश्मन मानते हैं और उन्हें लगता है कि इस तरह का समझौता करके वो ईरान के प्रभाव को कम कर सकते हैं.”

ट्रंप की चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश

वहीं कुछ विश्लेषक यूएई और बहरीन के समझौते को राष्ट्रपति ट्रंप की अमरीकी चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश के रूप में भी देखते हैं.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर जफ़र उल इस्लाम कहते हैं, “बहरीन और यूएई की अरब दुनिया में कोई ख़ास हैसियत नहीं है. ये दोनों ही बहुत छोटे देश हैं जिनमें अधिकतर आबादी प्रवासियों की है. इन देशों की जो भी अहमियत है सिर्फ़ गैस और तेल की वजह से है. ये अमरीका के पीछे हैं और ट्रंप के कहने पर इन्होंने ये समझौता किया है.”

प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, “ट्रंप अमरीकी लोगों को ये दिखाना चाहते हैं कि उनकी विदेश नीति काम कर रही है और उन्होंने अपने प्रभाव के देश यूएई और बहरीन से इसराइल का समझौता करवाया है. इसका कोई ख़ास असर अरब दुनिया पर नहीं होगा.”

प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, “आज अधिकतर फ़लस्तीनी प्रवासी हैं. जब-जब अरब देशों का फ़लस्तीन के मुद्दे पर सम्मेलन हुआ है उसमें इसी बात पर सहमति बनी है कि जब तक 1967 की सीमा के आधार पर फ़लस्तीनियों को ज़मीन नहीं मिलेगी तब तक इसराइल के साथ रिश्ते नहीं बनाए जाएंगे. लेकिन इसराइल मानने को तैयार नहीं है और लगातार फ़लस्तीनियों की ज़मीन छीन रहा है. इसके पीछे फ़लस्तीनियों की सबसे बड़ी ग़लती है ओस्लो में समझौता करना. फ़लस्तीन ने समझौता तो कर लिया लेकिन उससे कुछ हुआ नहीं. इस समझौते में बहुत चीज़ें स्पष्ट नहीं हैं. 1992 में हुए इस समझौते की सबसे अहम बात ये थी कि पाँच साल के भीतर फ़लस्तीनी राष्ट्र बनाया जाएगा. फ़लस्तीनी राष्ट्र तो नहीं बना, इसराइल लगातार फ़लस्तीनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करता गया.”

प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, “इसराइल ने 1967 की जंग में मिस्र के सिनाई और जॉर्डन के बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा किया था. इन दोनों देशों ने अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए इसराइल के साथ समझौते किए थे. लेकिन बहरीन और यूएई अमरीका के दबाव में समझौते कर रहे हैं. इन कमज़ोर देशों ने अपनी विदेश नीति अमरीका के हाथ में दे दी है.”

वो कहते हैं, “आज भी अरब दुनिया के बड़े देश फ़लस्तीन के साथ हैं. यदि अरब दुनिया में इस मुद्दे पर रायशुमारी हो तो अधिकतर लोग फ़लस्तीन के समर्थन में ही नज़र आएंगे. ये अलग बात है कि कई देशों की रिजीम अब अपनी सुरक्षा को अधिक महत्व दे रही है.”

इन हालात में फ़लस्तीनियों का क्या होगा और क्या कभी फ़लस्तीनी राष्ट्र बन सकेगा?

इस सवाल पर प्रोफ़ेसर जफ़र उल इस्लाम कहते हैं, “जिस तरह इसराइल ने फ़लस्तीनियों की ज़मीन छीनी है, यही रास्ता फ़लस्तीनियों के पास है. और फ़लस्तीनी अपने लिए संघर्ष कर भी रहे हैं, वो चाहें जहां भी हों. ये संघर्ष चलता रहेगा.”

एकजुट हो रहे हैं फ़लस्तीनी संगठन

फ़लस्तीनी संगठनों ने यूएई और बहरीन के इसराइल से रिश्ते सामान्य करने को धोखा बताया है. अब हमास, फ़तह और दूसरे संगठन एक साथ आ रहे हैं. ग़ज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के बीच मतभेदों को ख़त्म करने के प्रयास भी तेज़ हो गए हैं. इस शनिवार को फ़लस्तीनी संगठनों हमास और फ़तह ने एक बयान जारी करके कहा है कि इसराइली क़ब्ज़े का एकजुट होकर विरोध किया जाएगा.

तीन सितंबर को फ़लस्तीनी अथॉरिटी के प्रेसिडेंट महमूद अब्बास, हमास के नेता इस्माइल हानिया और इस्लामिक जेहाद के प्रमुख ज़ियाद अल नखाला और अन्य फ़लस्तीनी संगठनों के बीच बैठक हुई. इसराइली क़ब्ज़े के वेस्ट बैंक के रामाल्ला शहर, लेबनान के बेरूत में बैठकें हुईं. हमास और दूसरे संगठन कई सालों से ऐसी बैठक की माँग करते रहे थे लेकिन महमूद अब्बास इसे नकारते हुए पुराने एकजुटता समझौतों का सम्मान करने की माँग करते रहे थे.

हमास और फ़तह के बीच साल 2007 में तनाव बढ़ा था जब हमास ने ग़ज़ा से फ़तह के सुरक्षा बलों को बाहर निकाल दिया था. तब से इन प्रतिद्वंदी संगठनों को क़रीब लाने के प्रयास तो हुए थे लेकिन कामयाब नहीं रहे थे. अब फ़तह और हमास के रिश्तों में भी सुधार आ रहा है. अब अरब देशों के दूरी बनाने ने फ़लस्तीनी संगठनों को भी क़रीब ला दिया है. ऐसे में बहुत संभव है कि फ़लस्तीनी लोग प्रदर्शन और तेज़ करें.


















BBC


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