आसियान देशों के मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप को विश्व का सबसे बड़ा व्यापार समझौता कहा जा रहा है. ये समझौता विश्व की 30 फ़ीसद आबादी को जोड़ने का काम करेगा.
इसका मुख्य उद्देश्य एशियाई देशों के बीच निवेश बढ़ाने को समर्थन देकर और आयात करों में कमी कर इन देशों की अर्थव्यवस्था को साथ लाना है.
लेकिन आरसीईपी में चीन की मौजूदगी के कारण ये क़यास लगाए जा रहे हैं कि समझौते में शामिल देशों के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार करने के कारण चीन इस व्यापार व्यवस्था पर हावी हो सकता है.
बीते साल भारत ने इस समझौते से बाहर रहने का फ़ैसला किया था. भारत को डर था कि कहीं चीन के सस्ते सामान भारतीय बाज़ारों में आसानी से हर जगह उपलब्ध न हो जाएँ जिससे भारतीय कारख़ानों और उद्योगों को समस्या हो. हालांकि ये बात भी सच है कि बीते कई महीनों से भारत और चीन के बीच सीमा पर लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर तनाव जारी है.
हालांकि ये व्यापार समझौता जापान, दक्षिण कोरिया और चीन को एक मंच पर ले आया है जिनके बीच पुराने वक़्त से तनाव रहा है.
दूसरी ओर हाल में चीन के साथ द्विपक्षीय विवाद में फँसे उसके सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार ऑस्ट्रेलिया ने भी विवाद को पीछे छोड़ आरसीईपी में शामिल होने का फ़ैसला किया है.
जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड समेत आरसीईपी में दक्षिणपूर्व एशिया के दस देश शामिल हैं. इनमें सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया और म्यांमार शामिल हैं. इसी साल 15 नवंबर को इन देशों के नेताओं ने एक वर्चुअल सम्मेलन में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए.
जापान, ऑस्ट्रेलिया बन सकते हैं परेशानी का कारण
नवंबर 2019 में जिस वक़्त भारत ने आरसीईपी समझौते के लिए हो रही बातचीत से पीछे हटने का फ़ैसला किया, उस वक़्त जापान के अर्थव्यवस्था, व्यापार और उद्योग डिप्टी मंत्री हेदिकी माकिहारा ने कहा था, “जापान आरसीईपी समझौते में शामिल होने के लिए भारत को मनाएगा क्योंकि यह आर्थिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण होगा.”
इस मामले में भारत ने पीछे नहीं मुड़ने का फ़ैसला किया लेकिन जापान ने समझौते पर हस्ताक्षर किए. शायद जापान सरकार ने ये सोचा कि कोरोना महामारी के कारण आए आर्थिक संकट की परिस्थिति में इस ब्लॉक में उसकी ग़ैर-मौजूदगी में चीन अपना एकाधिकार न जमा ले.
बीते एक दशक में जापान कई और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में भी शामिल हुआ है जिनमें कॉम्प्रिहेन्सिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेन्ट फ़ॉर ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) और जापान-यूरोपीय यूनियन इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेन्ट अहम हैं.
‘द डिप्लोमैट’ नाम की वेब पत्रिका के अगस्त तीन अंक में छपे संपादकीय में कहा गया था कि “अगर आरसीईपी में भारत के शामिल न होने के कारण जापान भी इससे पीछे हटने का फ़ैसला करता है तो इससे दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में चीन का व्यापार और आर्थिक दबदबा बढ़ेगा.”
अगर व्यापार के हिसाब से देखें तो जापान ने अच्छा सौदा हासिल किया है. इससे अत्यधिक कॉम्पिटिशन वाले दक्षिण कोरियाई और चीनी बाज़ारों में जापानी ऑटोमोबाइल की पहुँच बढ़ेगी और विशुद्ध रूप से संवेदनशील कृषि उत्पादों जैसे चावल, गेहूं और डेयरी पर आयात शुल्क में कटौती से भी वो बच जाएगा.
15 नवंबर को बिज़नेस पेपर निक्केई ने लिखा कि, “हो सकता है कि जापान से चीन निर्यात होने वाले औद्योगिक सामान पर शुल्क में 86 फ़ीसद तक की कमी हो. इससे जापान के निर्यातकों को काफ़ी फ़ायदा होगा.”
इस बीच आरसीईपी समझौते के बावजूद ऐसा नहीं लग रहा कि द्विपक्षीय विवादों के मामले में ऑस्ट्रेलिया पीछे हटने को तैयार होगा.
साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के 13 नवंबर के अंक के अनुसार ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल के कहा है कि “आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने को लेकर कुछ चर्चा तो रहेगी. ये कम महत्वाकांक्षा वाला व्यापार समझौता है जिस पर हमें अधिक ख़ुश नहीं होना चाहिए.” उन्होंने कहा कि ऑस्ट्रेलिया चीन की “चापलूसी” नहीं करेगा.
दोनों देशों के बीच पहले ही द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता है. लेकिन इसके बावजूद ख़्वावे से लेकर हॉन्ग कॉन्ग तक कई मुद्दों पर दोनों एक-दूसरे के उत्पादों पर टैरिफ़ लागू करने से पीछे नहीं हटे. ऐसा नहीं लगता कि आरसीईपी से कोई बेहद अलग परिणाम मिलेगा.
आरसीईपी क्या एशिया-प्रशांत में चीन के प्रभाव को बढ़ाएगा?
आरसीईपी चीन का पहला बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता है जिसमें पहली बार दक्षिण कोरिया और जापान शामिल हैं.
16 नवंबर के साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के संपादकीय के अनुसार “वैचारिक मतभेदों से लेकर सरकार के स्वामित्व वाले उद्योग जैसे विवादित मुद्दों को हवा दिए बग़ैर चीन और विश्व के दूसरे देशों के बीच व्यापार और निवेश बढ़ाने के लिए यह समझौता रास्ता साफ़ करता है.”
बीते साल जब भारत ने इस समझौते से बाहर जाने का फ़ैसला किया तो उसने “दोनों देशों के बीच अहम अनसुलझे मुद्दों” को इसका कारण बताया.
एशिया टाइम्स के 15 नवंबर के संपादकीय के अनुसार “मुक्त व्यापार समझौतों से भारत को कोई फ़ायदा नहीं हुआ क्योंकि यह निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि आयात पर निर्भर अर्थव्यवस्था है. अगर भारत आरसीईपी का हिस्सा बनता है तो एक तरह से वो चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौते में बंध जाएगा.”
डेयरी, कपड़ा और कृषि क्षेत्रों के लिए आयात शुल्क में कटौती का भारत विरोध करता है, साथ ही वो निर्यात पर अधिक छूट की माँग कर रहा है. भारत की जीडीपी में लगभग आठ फ़ीसद हिस्सेदारी इंफ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सर्विसेज़ की है.
हाल के महीनों में चीन के साथ जारी सीमा विवाद और देश के भीतर चीनी सामानों के ख़िलाफ़ लोगों की भावना को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि भारत इस समझौते में शामिल होने के लिए क़दम बढ़ा सकता है.
चीनी सरकार के अंतरराष्ट्रीय अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने भारत के इस क़दम की आलोचना की है और लिखा है कि उसकी “ताक़त उसकी महत्वाकांक्षा का समर्थन नहीं करती,” से डर है कि चीन और जापान उस पर “हावी” हो सकते हैं.
अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ-साथ एशिया के अख़बारों और मीडिया में आरसीईपी समझौते को “चीन के नेतृत्व वाला” या “चीन समर्थित” क़रार दिया गया. लेकिन चीनी मीडिया ने इस समझौते में चीन की भूमिका को कमतर कर के दर्शाया और लिखा कि यह समझौता “आसियान” (एसोसिएशन ऑफ़ साउथईस्ट एशियन नेशन्स) द्वारा शुरू किया गया था और ये सभी के लिए बेहतर है.
क्या आरसीईपी चीन के बीआरटी प्रोजेक्ट का व्यापारिक चेहरा है?
पिछले साल नवंबर में नई दिल्ली की यात्रा के दौरान, पूर्व ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा था कि “आरसीईपी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के एक व्यापार शाखा की तरह लगता है.”
लागू होने के बाद ये समझौता आने वाले 20 सालों में सदस्य देशों में आयात शुल्क को 90 फ़ीसद तक कम करेगा. इसके तहत सदस्य देशों के बीच व्यापार और निवेश के भी कुछ मानक नियम हैं. दूसरी तरफ़ अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के तहत चीन अपने सहयोगी देशों में बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के लिए निवेश करना चाहता है और प्राचीन व्यापार रूट को फिर से बनाना चाहता है.
16 नवंबर को चीन के सरकरी टीवी चैनल चाइना ग्लोबल टेलीविज़न नेटवर्क ने कहा कि “आरसीईपी और बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट अपने डिज़ाइन में एक दूसरे के पूरक हैं. जहां पहला समझौता नीतिगत बाधाओं को हटाएगा, वहीं दूसरा प्रोजेक्ट व्यावसायिक सहयोग बढ़ाने के लिए फ़िज़िकल बाधाओं को हटाने में मदद करेगा.”
माना जा रहा है कि बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के तहत निवेश के लिए आरसीईपी समझौता नियमों को आसान बनाने के साथ-साथ आसियान देशों के बीच लॉजिस्टिकल सपोर्ट भी दे सकता है, जो कि इस प्रोजेक्ट के लिए अहम इस क्षेत्र के विकास के लिए ज़रूरी है.
हालांकि, जहां बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट में चीन का एकाधिकार है वहीं आरसीईपी में जापान और दक्षिण कोरिया जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की मौजूदगी चीन के हितों के ख़िलाफ़ भी जा सकती है.
जानकारों का कहना है कि आसियान देशों की कीटनीति भी इस समझौते के होने में एक अहम कारण है.
चीन के पहले बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के तौर पर आरसीईपी अमेरिका और यूरोपीय संघ के कुछ देशों के साथ उसके बिगड़ते संबंधों के बीच उसके राजनयिक कौशल का भी टेस्ट साबित होगा.
आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने के दो दिन बाद, 17 नवंबर को जापान और ऑस्ट्रेलिया ने एक सुरक्षा समझौते ‘द रेसिप्रोकल ऐक्सेस एग्रीमेंट’ (आरएए) पर हस्ताक्षर किए हैं. ये चीन के लिए स्पष्ट संकेत है कि विवादास्पद मामलों के लेकर वो गंभीर हैं और उन पर पीछे नहीं हटना चाहते.
ZEE