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भारत-पाकिस्तान संबंध: क्या परमाणु हथियार ने दोनों देशों के बीच पारंपरिक युद्ध का ख़तरा टाल दिया है?

ByPrompt Times

May 29, 2021

जून 2002 की चिलचिलाती धूप में झेलम में मिसाइल दाग़े जाने की जगह पर मूड और माहौल में निराशा थी. कारण यह था कि भारत के साथ सैन्य तनाव बेहद ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गया था.

भारत अपनी आक्रामक ‘थ्री स्ट्राइक’ कोर सीमा के पास तैनात कर चुका था, ये फ़ौज की उस भारी टुकड़ी के अलावा थी जो तोपख़ाने और बख़्तरबंद के साथ सीमा पर तैनात थी. पाकिस्तान की थल सेना भी जवाबी तैनाती पूरी कर चुकी थी, लेकिन इनके आवागमन पर भारी ख़र्च हो रहा था. वैसे भी भारत की तुलना में पाकिस्तान के पास टुकड़ी भी कम थी और हथियारों की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में ही काफ़ी अंतर था.

तीन साल पहले लोकतांत्रिक सरकार का तख़्ता पलटने वाले तानाशाह सेना अध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ख़ुद झेलम में उस स्थान पर मौजूद थे जहाँ से ये मिसाइल दाग़ी जानी थी.कहूटा रिसर्च लैबोरेट्री के दो दर्जन से अधिक वैज्ञानिक ज़मीन से ज़मीन पर मार करने वाली ग़ौरी (जो एक हज़ार किलोमीटर से अधिक दूर स्थित बड़े शहरों के केंद्रों तक मार करने में सक्षम हैं) और अब्दाली व ग़ज़नवी (जो ग़ौरी के अपेक्षाकृत कम दूरी तक मार करती हैं लेकिन किसी भी सैन्य लक्ष्य को आसानी से मारने में अधिक कारगर हैं) मिसाइल परीक्षण प्रक्रिया शुरू करने के लिए वहाँ मौजूद थे. सैनिकों और वैज्ञानिकों के अलावा मीडिया या अन्य किसी को इस कार्यक्रम में आने की अनुमति नहीं थी, लेकिन पाकिस्तान के स्ट्रैटेजिक प्लानिंग डिवीज़न (एसपीडी) के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल ख़ालिद क़िदवई ने यह सुनिश्चित किया कि जनरल मुशर्रफ़ के भाषण का कुछ चयनित हिस्सा पाकिस्तान और अंतरराष्ट्रीय परमाणु विशेषज्ञों तक ज़रूर पहुँच जाए.

‘स्ट्रैटेजिक प्लानिंग डिवीज़न’ पाकिस्तान के ‘परमाणु कमांड अथॉरिटी’ या परमाणु मामलों पर अधिकृत सचिवालय या मुख्यालय के रूप में कार्य करता है. उनका इरादा यह था कि जनरल मुशर्रफ़ के भाषण को भारत के किसी संभावित ऑपरेशन को रोकने के लिए एक ‘युद्ध रक्षात्मक रणनीति’ (डिटरेंट) की तरह या डराने के लिए इस्तेमाल किया जाए. जैसा कि बाद में जनरल मुशर्रफ़ के भाषण का अंश कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रकाशित किया. एक अंतरराष्ट्रीय लेखक ने इन अंशों को उपलब्ध कराने के लिए व्यक्तिगत रूप से जनरल क़िदवई को लिखित रूप में धन्यवाद दिया. पाकिस्तान की पूर्वी सीमा पर भारत की सैन्य गतिविधि ने 2002 की शुरुआत से ही पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व के लिए ख़तरे की घंटी बजा दी थी. पाकिस्तान सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने थल सेना को तैनाती का आदेश दे दिया था, पाकिस्तान वायु सेना भी हाई अलर्ट पर थी.

अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर ख़तरे बढ़ते जा रहे थे. 18 दिसंबर, 2001 को, भारत ने ‘ऑपरेशन पराक्रम’ (साहस या मर्दानगी) शुरू किया और टैंक और भारी तोपख़ाने सहित सीमा के पास हमलावर सैनिकों को तैनात कर दिए. ऑपरेशन पराक्रम की शुरुआत से पाँच दिन पहले, सशस्त्र चरमपंथियों ने भारतीय संसद परिसर पर हमला किया, जिससे भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसियों ने चरमपंथियों के पाकिस्तान की इंटेलिजेंस एजेंसी से संबंध होने के आरोप लगा दिए. भारतीय नेतृत्व ने दृढ़ता से महसूस किया कि उसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू करनी चाहिए. भारतीय फ़ौजी दस्तों में कुछ सैनिक मध्य भारत और अंबाला से थे, जहाँ दो भारतीय ‘स्ट्राइक कोर’ के मुख्यालय स्थित थे. भारतीय सेना की कुल संख्या आठ लाख थी. तीन स्ट्राइक या अटैकिंग कोर के साथ, ये भारत और पाकिस्तान की सीमा पर निशाना लगा चुकी थी. भारतीय वायु सेना के यूनिट्स और सैटेलाइट एयरफ़ील्ड को सक्रिय कर दिया गया था और पूर्वी एयर फ़्लीट (हवाई बेड़े) को बंगाल की खाड़ी से उत्त्तरी अरब सागर की तरफ़ शिफ़्ट कर दिया था, ताकि वो पश्चिमी एयर फ़्लीट के साथ मिल कर पाकिस्तान की नाकाबंदी कर दे. इस नर्वस स्थिति में, जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने दो टूक अंदाज़ में ये कहा कि अगर हमारे देश के अस्तित्व और अखंडता को ख़तरा होता है तो पाकिस्तान परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा.

पाकिस्तान की सरकार ने घोषणा की, कि उसके कमांड एंड कंट्रोल के तरीक़े यह सुनिश्चित करेंगे कि उसके हथियारों का इस्तेमाल तत्काल युद्ध के उपयोग के लिए किया जा सके और संकट की स्थिति में तैयार रहे. प्रभावशाली जर्मन पत्रिका ‘डेर स्पीगल’ को अप्रैल 2002 में दिए एक इंटरव्यू में, जनरल मुशर्रफ़ ने कहा था कि पाकिस्तान अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पारंपरिक हथियारों पर ही निर्भर रहेगा, लेकिन विशेष रूप से अगर पाकिस्तान के ख़त्म होने का ख़तरा हुआ तो परमाणु शक्ति का उपयोग एक विकल्प है. रूढ़िवादी विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान का परमाणु सिद्धांत जानबूझकर कमज़ोरी या अस्थिरता की नीति पर आधारित है. जिसका उद्देश्य भारत और अमेरिका को यह समझाना है कि पारंपरिक हथियारों के स्तर पर होने वाले किसी तनाव का तत्काल निष्कर्ष परमाणु प्रतिक्रिया के रूप में निकल सकता है.

पाकिस्तान के विदेश सचिव शमशाद अहमद ख़ान के बयान से बात बढ़ गई

संघर्ष के शुरुआती चरणों में, ये धमकियां ऐसी राजनीतिक हस्तियों की तरफ़ से आ रही थीं जो महत्वपूर्ण नहीं थे और सीमा के दोनों ओर परमाणु निर्णय लेने में उनका कोई दख़ल नहीं था. इसलिए, इन धमकियों पर ध्यान नहीं दिया गया था. लेकिन फिर इस परिस्थिति में पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश सचिव शमशाद अहमद ख़ान भी कूद पड़े. मई के अंत में, विदेश सचिव शमशाद अहमद ख़ान ने इस संघर्ष के दौरान परमाणु हथियारों पर सबसे महत्वपूर्ण बयान दिया जिसमें भारत को चेतावनी दी कि पाकिस्तान अपनी भौगोलिक अखंडता की रक्षा के लिए किसी भी हथियार का उपयोग कर सकता है. यह बयान इस मायने में महत्वपूर्ण था कि पाकिस्तान ने आम तौर पर अपने परमाणु सिद्धांत के “फ़ोकस” को अंतिम उपाय के रूप में ही बनाए रखा था कि अगर राज्य के अस्तित्व की बात हुई तो इस पर विचार किया जा सकता है. भारतीय वायु सेना को लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) पर पाकिस्तान की सीमा के अंदर घुस कर कार्रवाई करने की इजाज़त देने के भारतीय फ़ैसले से शुरू होने वाले सैन्य तनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. इससे पता चलता है कि पाकिस्तान ने जानबूझकर सार्वजनिक स्तर पर परमाणु धमकी को वैश्विक हस्तक्षेप को भड़काने के लिए एक चाल के रूप में इस्तेमाल किया और इसके परिणामस्वरूप, भारत की पारंपरिक सैन्य प्रतिक्रिया को भी आगे बढ़ने से रोक दे.

क्या मुशर्रफ़ और शमशाद के परमाणु बयानों के डर से भारत पीछे हटा?

अगर कारगिल तनाव के बारे में बात की जाये तो केवल विदेश सचिव शमशाद ही कारगिल युद्ध के दौरान परमाणु शक्ति पर बयान देने वाले एकमात्र सरकारी अधिकारी नहीं थे, बल्कि बहुत से सरकारी मंत्रियों के बयानों की भी भरमार थी, जो ज़्यादा समझदारी वाले नहीं थे. विशेष रूप से एक बयान ऐसा ज़रूर था जो तत्कालीन धार्मिक मामलों के मंत्री राजा ज़फ़र-उल-हक़ ने दिया था. राजा ज़फ़र न केवल प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के क़रीबी माने जाते थे, बल्कि राजनीतिक हलक़ों में यह भी आम धारणा थी कि शक्तिशाली सैन्य प्रतिष्ठान के अंदर तक उनके संबंध थे, लेकिन निश्चित रूप से वह परमाणु निर्णय लेने वाली टीम का हिस्सा नहीं थे. उन्होंने कहा था, कि “पाकिस्तान अपनी, सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा के लिए परमाणु विकल्प का इस्तेमाल कर सकता है.” यह बयान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के चीन दौरे के मौक़े पर दिया गया था और कई अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने कहा कि यह बयान देश के अंदर के लोगों को ख़ुश करने के लिए दिया गया है.

लेकिन भारत की राजधानी नई दिल्ली में यह संदेश स्पष्ट रूप से समझा गया, जहाँ भारतीय प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सभी ने इसका जवाब दिया और पाकिस्तान की तरफ़ से परमाणु धमकी की अहमियत को कम करने की कोशिश की. वाशिंगटन डीसी में अमेरिकी नेवल वॉर कॉलेज में स्ट्रैटेजिक अफ़ेयर्स के एसोसिएट प्रोफ़ेसर टिमोथी डी होइट ने कारगिल युद्ध,पर अपनी विश्लेषणात्मक किताब “कारगिल: ए न्यूक्लियर डायमेंशन” में लिखा है कि ऐसी ख़बरें थीं कि पाकिस्तान और भारत दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने अपनी परमाणु तैयारियों को पूरा कर लिया था और परमाणु हथियारों के उपयोग की अनुमति देने ही वाले थे. प्रोफ़ेसर होइट ने विश्लेषण में लिखा, कि “एक निजी मुलाक़ात में राष्ट्रपति क्लिंटन ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से पूछा था कि क्या उन्हें पता है कि उनकी (पाकिस्तान की) सेना परमाणु हथियारों से लैस मिसाइलों को इस्तेमाल करने की तैयारी कर चुकी थी? कथित तौर पर, नवाज़ शरीफ़ ने केवल इतना कहा कि भारत भी कुछ ऐसा ही कर रहा था.”

प्रोफ़ेसर होइट के विश्लेषण के अनुसार, कारगिल संकट हर तरह से एक परमाणु संकट था, जिसमें दोनों एक दूसरे पर परमाणु हथियारों से हमला करने की धमकी दे रहे थे. प्रोफ़ेसर होइट के अनुसार, हालाँकि, यह स्पष्ट नहीं है कि परमाणु हथियारों ने वास्तव में इन दोनों देशों के निर्णय लेने में क्या भूमिका निभाई और अगर साल 2002 के तनावों की बात करें तो भारत ने अपने सैनिकों की तैनाती इस उद्देश्य से की थी कि पाकिस्तान की सेना को दबाव में ला कर भारत प्रशासित कश्मीर में सीमा पार से घुसपैठ को रोक दी जाए और उसे सुरक्षित रखा जाये. जून 2002 में, भारतीय सैन्य अधिकारियों ने सीमा पार से होने वाले हस्तक्षेप में 53% की कमी का दावा किया था. लेकिन अंतरराष्ट्रीय सीमा पर भारतीय सशस्त्र बलों की तैनाती की सच्चाई और सैनिकों की आवाजाही के घोषित उद्देश्य के बावजूद, भारत ने यह कभी नहीं कहा कि सीमा पार से हस्तक्षेप पूरी तरह से समाप्त हो गया है. पाकिस्तान सरकार ने भारत को 20 आतंकवादियों को प्रत्यर्पित करने से इनकार कर दिया, जिन्हें भारत सरकार ने सौंपने की माँग की थी.

हालाँकि, राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने पाकिस्तानी क्षेत्र के अंदर पाँच आतंकवादी समूहों के ख़िलाफ़ ज़रूरी कार्रवाई की और इन समूहों के नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया, उनके खाते फ़्रीज़ कर दिए गए और उनके कार्यालय सील कर दिए गए. कई अंतरराष्ट्रीय सैन्य विश्लेषकों का कहना है कि परमाणु स्थिति में उकसावे पर क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए भारत सरकार इस पर कोई फ़ैसला नहीं कर सकी. भारतीय संसद पर हमले के तुरंत बाद, उन्होंने सैन्य लामबंदी तो शुरू कर दी, लेकिन इसके बाद अगले छह महीनों तक वे सैन्य नेतृत्व को ये आदेश देने में विफल रहे कि पाकिस्तान को सज़ा देने के लिए कार्रवाई करे. क्या इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान ने परमाणु कार्रवाई करने की जो धमकी दी थी वो काम कर गई और भारतीय राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ने इससे डर कर कोई कठोर कार्रवाई करने से परहेज़ किया? इस प्रश्न का कोई स्पष्ट और सरल जवाब नहीं है.

इस संकट पर पारंपरिक पाकिस्तानी ज्ञान का क्या विचार है?

जहां तक सैन्य संकट में परमाणु हथियारों के शामिल होने का सवाल है, इस संबंध में पाकिस्तानी समाज में कई भ्रम पैदा हो गए हैं. पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम और अवधारणाओं के बारे में कई ऐसे मिथक या सरकार द्वारा प्रायोजित कहानियाँ हैं जिन्होंने भारत को पाकिस्तान पर पारंपरिक हमला करने से रोक रखा है. उदाहरण के लिए, एक मशहूर क़िस्सा यह है कि साल 1986 में, डॉक्टर ए.क्यू. ख़ान के भारतीय पत्रकार को दिए इंटरव्यू ने भारत को अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने से डरा दिया था, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार होने का ख़ुलासा किया था. कारगिल युद्ध के बारे में भी कुछ ऐसी ही मिलती जुलती कहानी है. सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ एयर मार्शल (सेवानिवृत्त) शहज़ाद चौधरी ने कहा कि “कारगिल युद्ध के दौरान, दोनों पक्षों को पता था कि उनके पास परमाणु हथियार हैं और भारत ने नियंत्रण रेखा को सिर्फ़ इसलिए पार नहीं किया क्योंकि वे हमारी परमाणु क्षमता को जानते थे.”

इस प्रकार के सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार साल 2002 के सैन्य संकट में परमाणु हथियारों की भूमिका और भी ज़्यादा स्पष्ट थी. शहज़ाद चौधरी ने कहा कि “2002 में पूरे साल के दौरान दोनों तरफ़ से सशस्त्र बलों की पूरी फ़ौज तैनात थी, लेकिन इसके बावजूद दोनों ने युद्ध नहीं किया. आख़िरकार, अमेरिका ने हस्तक्षेप किया और दोनों को पीछे हटने के लिए मना लिया. जहाँ तक पाकिस्तान की परमाणु नीति के बारे में वास्तव में सही स्थिति से वाक़िफ़ लोगों का संबंध है, वे सैन्य संकट या युद्ध के दौरान ग़ैर-पेशेवर और असंबंधित सरकारी मंत्रियों और सार्वजनिक हस्तियों के सार्वजनिक धमकी भरे बयानों में परमाणु हथियार के इस्तेमाल की बात से इंकार करते हैं. परमाणु-मामलों के सीक्रेट रखने वाले वर्तमान और पूर्व अधिकारियों के अनुसार, यह धारणा कि दुश्मन केवल धमकियों से भयभीत हो जाता है, यह कुछ लोगों की तथ्यों की अज्ञानता और अधूरी जानकारी का नतीजा है.

क्षमता ज़ाहिर करने का सही तरीक़ा

ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) नईम सालिक पाकिस्तान नेशनल कमांड अथॉरिटी के सेक्रेट्रिएट स्ट्रैटिजिक प्लानिंग्स डिवीज़न में ‘आर्म्ड कंट्रोल ऐंड डिसआर्मामेंट’ के निदेशक के रूप में कार्य कर चुके हैं. अपने कार्यकाल के दौरान वह एक विशेषज्ञ के रूप में व्यक्तिगत रूप से नेशनल कमांड अथॉरिटी की उच्चस्तरीय बैठकों में शामिल हुए हैं. वह कहते हैं कि “मूल रूप से, डिटरेन्स रिलेशंस की बुनियादी ज़रूरत कम्युनिकेशन है. दूसरे पक्ष को इस डिटरेन्स ख़तरे से अवगत कराना होता है. ऐसा करने के अलग-अलग तरीक़े हैं, जैसे कि तीसरे पक्ष के ज़रिये प्रेस बयान, प्रेस कॉन्फ्रेंस या मिसाइल परीक्षण जैसे व्यावहारिक प्रदर्शन.” उन्होंने कहा कि दक्षिण एशिया में हर कोई संकट की घड़ी में परमाणु नीति की बात करने लगता है और इसका नतीजा यह होता है कि परदे के पीछे इतना शोर हो जाता है कि इसमें असली संकेत खो जाते हैं.

उन्होंने कहा कि शुरुआती दिनों में “नेशनल कमांड अथॉरिटी में, हमने तय किया कि केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या विदेश सचिव को परमाणु नीति पर बयान देना चाहिए. लोगों को व्यवस्थित रखना बहुत मुश्किल है.” उनका कहना है कि “इन लोगों को आतिशबाज़ी और परमाणु बम के बीच के अंतर का नहीं पता है, और ये हमेशा परमाणु बम के बारे में बयान देते हैं.” पिछली बार संकट में भारत के प्रधानमंत्री ने बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान दिया था. परमाणु हथियार चलाने का अंतिम अधिकार भारतीय प्रधानमंत्री के पास है. पहले उन्होंने कहा कि हमने ये परमाणु हथियार दिवाली के लिए नहीं बनाए हैं और दूसरी बार उन्होंने कहा कि हमारे पास सभी परमाणु हथियारों की माँ हैं.

उन्होंने कहा कि, “मुझे लगता है कि व्यावहारिक घटनाएं बयानों की तुलना में अधिक डिटरेन्स हैं. आपको याद होगा कि मई 2002 में जब संकट अपने चरम पर था, तब एक हफ़्ते में चार-पाँच मिसाइलों का परीक्षण किया गया था. यह कलात्मक क्षमता ज़ाहिर करने का सही तरीक़ा था. यानी हमारे पास अपनी धमकी को अंजाम देने की क्षमता है.” ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) नईम सालिक ने कहा कि कारगिल संकट के दौरान विदेश सचिव शमशाद का बयान “प्री-मैच्योर” (समय से पहले) था. ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) नईम सालिक के अनुसार, “तब तक, हमारा परमाणु हथियार सक्रिय नहीं हुआ था.”

भारत ने युद्ध को अंतरराष्ट्रीय सीमा तक क्यों नहीं बढ़ाया?

जब उनसे यह सवाल किया गया कि भारत ने युद्ध को अंतरराष्ट्रीय सीमा तक क्यों नहीं बढ़ाया? तो ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) नईम सालिक का जवाब था कि “भारत ने युद्ध को आगे इसलिए नहीं बढ़ाया क्योंकि कारगिल संकट के दौरान वैश्विक समर्थन भारत के साथ था. वह विश्व जनमत का समर्थन अपने साथ ही रखना चाहता था. जिज्ञासु लोग अक्सर पूछते हैं कि पाकिस्तान के संदर्भ में हमेशा ऐसा क्यों होता है कि सैन्य और परमाणु विश्लेषक परमाणु डिटरेन्स की उपयोगिता पर बहस करते हैं. परमाणु हथियार भारत के लिए एक डिटरेंट के रूप में उपयोगी क्यों नहीं होते? उदाहरण के लिए, अप्रैल 1999 में, जब पाकिस्तानी सैनिक नियंत्रण रेखा से भारत में घुस रहे थे, तो पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को यह डर क्यों नहीं महसूस हुआ कि उन्हें भारत के परमाणु हथियारों का सामना करन पड़ सकता है? क्या यह वह समय नहीं था जब भारत को परमाणु हथियारों का पाकिस्तान को ऑपरेशन से रोकने के लिए एक डिटरेंट (डराने) के तौर पर इस्तेमाल करना चाहिए था?

इन सभी सवालों का जवाब इस बात में है कि पारंपरिक हथियारों के मामले में भारत को पाकिस्तान पर बढ़त हासिल है. यह पारंपरिक बढ़त भारतीय सेना और राजनीतिक नेतृत्व को सुविधा के स्तर पर रखती है कि वे संघर्ष के शुरुआती चरणों में परमाणु विकल्प की ओर न जाएं. कारगिल युद्ध के मामले में, भारत पारंपरिक स्तर पर इस मुद्दे से निपट चुका था और पाकिस्तानी सेना को अपने क्षेत्र से निकालने के लिए परमाणु विकल्प की आवश्यकता महसूस नहीं हुई. इस तथ्य के बावजूद, भारत में मौजूद ग़ैर संजीदा राजनीतिक और धार्मिक राइट विंग, युद्ध के दौरान पाकिस्तान के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों का उपयोग करने की धमकी देने से नहीं बचे. दूसरी ओर, भारत की तुलना में, पाकिस्तान बुनियादी तौर पर इस पहलू से कमज़ोर है कि ‘रणनीतिक गहराई’ की कमी के कारण वह पारंपरिक ख़तरे में रहता है. पाकिस्तान के प्रमुख शहरी केंद्र, फ़ौजी छावनियां और औद्योगिक क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा के बिल्कुल क़रीब हैं. इसलिए, रणनीतिक गहराई की कमी बताती है कि पाकिस्तानी नेतृत्व अपनी सीमा के पास सेना के जमा होने से क्यों घबरा जाता है.

तो क्या पाकिस्तान से संबंध में भारतीय परमाणु हथियार कोई भूमिका नहीं निभाते?

सैन्य विश्लेषक और विशेषज्ञ डिटरेन्स को इन शब्दों में बताते हैं, “संदेह या परिणामों का डर पैदा करके कोई ऐसा क़दम उठाना जिससे दूसरे पक्ष को कोई कार्रवाई करने से रोका जा सके.” इसी तरह की अवधारणा सैन्य विश्लेषक ‘मजबूरी या लाचारी’ जैसे शब्दों में भी देते हैं. इस अवधारणा को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है, “एक राज्य की किसी दूसरे राज्य को आमतौर पर सज़ा देने की धमकी के ज़रिए हरकत में आने पर मजबूर करने की क्षमता.” दूसरे शब्दों में, ‘डिटरेन्स’ के माध्यम से एक देश दूसरे देश को अपने ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से रोकता है.

‘मजबूरी’ या ‘लाचारी’ का ये मतलब है कि एक राज्य दूसरे राज्य को मजबूर करता है कि वो कोई निश्चित कार्रवाई करे, जैसे भारत ने सैन्य कार्रवाई करने का डर दिखा कर, पाकिस्तान को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह अपनी धरती पर आतंकवादी समूहों के ख़िलाफ ख़ुद सैन्य कार्रवाई करे.

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