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अग्रवंश और दिशाहीन समाज

ByPrompt Times

Oct 17, 2020
अग्रवंश और दिशाहीन समाज

वर्तमान काल को क्षरण-काल कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे विघटन काल के साथ-साथ स्वार्थ-सिद्धि-काल भी कहा जाने लगा है। तार – तार होती मर्यादाएॅ, टूटते सकल परिवार, संस्कारविहीन होता मानुष कहीं उस भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध तो नहीं कर रहा जैसा कि 5221 वर्ष पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए पार्थ से कहा था कि जिस कुल की स्त्रियॉ मर्यादा से च्युत हो जाती हैं तब उस कुल का विनाश होना निश्चित है। ऐसा क्यों कहा गया ? विचार करना आवश्यक है। हमारे शास्त्रों में नारी को देवी को मानकर उसकी पूजा करने का
विधान है। नारी पुरुष की जननी है। शिशु को प्रथम ज्ञान नारी से ही मिलता है। लिव इन जैसी कुप्रथाओं से सनातन धर्म का अमृत क्षारीय हो रहा है। किसी ने उचित ही कहा है कि ऐसे समय में अर्थात् विपत्ति-निवारण में तथा समाज-हित में वैश्य की भूमिका स्वतः प्रमुख होने लग जाती है ।
आज हम अग्रवंषीय पूरे हर्षोल्लास के साथ इस विकट कोरोना काल में हमारे पितृपुरूष महाराजा अग्रसेनजी की जयंती मना रहे हैं। इस विपत्तिकाल में भी हम हमारा धर्म व जीवन मूल्य बचाएं, यही सबसे बडी पूंजी होगी। परन्तु आधुनिक षिक्षा एवं पष्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण से हमारे युवा पुत्र पुत्रियां हमारे अग्रवाल धर्म से विमुख होते जा रहे हैं जिसका मुख्य कारण घर के बाहर दुसरे षहरों में एवं विदेषों में नौकरी करना है। यह बात बिलकुल सत्य है कि जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ व्यापार अथवा नौकरी सभी को करना पडती है परन्तु आधुनिक परिवेष एवं अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव में हमारे बेटे-बेटियां धर्म की मूलभूत बातों को भूल रहे हैं। हम सभी अग्रवंषियों का यह दायित्व है कि हम हमारे धर्म की रक्षा करें। यह तभी संभव है जबकि हम हमारे बच्चों में धर्म की षिक्षा का बीजारोपण करें।
अभी कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि उच्च षिक्षित हों या अल्पषिक्षित नौजवान अपने आसपास के माहौल को देखते हुए अन्य धर्मों के नौजवानों की ओर आकर्षित होकर अग्रवाल समाज के अलावा अन्य धर्मों के लोगों से विवाह कर रहे हैं जो कि अग्रवाल धर्म के लिए बहुत चिंताजनक बात है। यदि इसी प्रकार अग्रवंषीय नौजवान दूसरे धर्मों में विवाह करेंगे तो उनकी होने वाली संतान वर्णसंकर पैदा होगी जो न तो अग्रवाल धर्म को समझेगी तथा न ही अन्य धर्म को समझेगी। हमारे साधु संतों ने भी समय-समय पर इस बात के लिए काफी चिंतन किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि धर्म की रक्षा करने के लिए हमारे समाज के बच्चे अग्रवाल समाज में ही विवाह करें जिससे हमारा धर्म अगली पीढी तक सुरक्षित पहुंच सके। मेरा देष विदेष के सभी अग्रवंषियों से निवेदन है कि इस प्रकार की कुरीति का पुरजोर विरोध करें तथा अपने बच्चों का विवाह अग्रवाल समाज में ही करें। धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात् हम धर्म की रक्षा/पालन करें तो धर्म हमारी रक्षा करेगा।
वैश्य धर्म से दीक्षित महाराजा अग्रसेन जी का जीवन-चरित्र दिशाहीन समाज के लिए आवश्यक है। प्रेरणा का श्रोत है। भगवान् श्रीकृष्ण के समकालीन युवा अग्रसेन जी ने हमें सिखाया कि कुल की महत्ता क्या होती है ?
शताधिक होने पर ही कुल की व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए, उससे पहले नहीं। क्योंकि तब सम्बन्धों की मधुरता का बोध होना सम्भव नहीं है ।
स्वावलंबन, स्व-राज्य-निर्माण, जलचर, नभचर एवं भू-चर अर्थात् नाग  और देवताओं को हम अपना हितैषी कैसे बनायें ? निर्धनता के निवारण हेतु कर्म करना श्रेयस्कर है। समृद्धिशाली को चाहिए कि अभावग्रस्त को भिक्षा ना देकर व्यापार के साधन उपलब्ध कराकर राष्ट्र की समृद्धि में उसकी सहभागिता निश्चित करे। यदि हर व्यक्ति एक निर्धन को हर घर से एक ईंट-एक रुपया दे तब वहॉ ना निर्धनता आएगी, ना भ्रष्टाचार पनपेगा और ना ही चोरी – चकारी होगी।
महारानी माधवी ने नारी-शक्ति को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उन्हें संस्कार का प्रमुख स्रोत माना है। जल-संचय हेतु बॉधों का निर्माण करना, शत्रु को  चातुर्यपूर्वक अपने पक्ष में करना, अहिंसा – प्रेम – करुणा के द्वारा समाज को सुखी बनाना तथा शक्ति के साथ-साथ राजनीति एवं कूटनीति के प्रधान तत्वों को आत्मसात् करना भी हमें सिखाया ।
जय अग्रसेन !
– मुकेष पार्टनर,
पूर्व कोषाध्यक्ष – अग्रवाल समाज नीमच

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