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प्रेमचंद: आवारगी से लेकर ‘कलम का सिपाही’ बनने का सफर! जानें क्या थी पहली रचना

ByPrompt Times

Jul 14, 2021
प्रेमचंद: आवारगी से लेकर 'कलम का सिपाही' बनने का सफर! जानें क्या थी पहली रचना

मुंशी प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ (Kalam Ka Sipahi) ने हिंदी के जीवनी साहित्य में अपनी खास जगह बनाई है. ‘कलम का सिपाही’ का पहला संस्करण 1962 में प्रकाशित हुआ था.

14-जुलाई-2021 | Munsi Premchand: लमही के कच्चे पुश्तैनी मकान में सावन बदी 10 संवत् 1937, शनिवार 31 जुलाई, सन् 1880 को उस लड़के का जन्म हुआ जिसे बाद को दुनिया ने प्रेमचन्द के नाम से जाना. लड़का ख़ूब ही गोरा-चिट्टा था. सब बहुत ख़ुश थे. पिता ने हुलसकर उसका नाम रखा धनपत और ताऊ ने नवाब.

‘कलम का सिपाही’ (Kalam ka Sipahi) में आपको मुंशी अजायब लाल और आनंदी के बेटे धनपत राय या फिर नवाब के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (Premchand) होने तक के तमाम किस्से, घटनाएं और वार्तालाप पढ़ने को मिलेंगे. पेश है इसी जीवनी में से नवाब का लेखन की दुनिया में कदम रखने का रोचक किस्सा-

पत्नी के मरने के कुछ ही दिन बाद मुंशी अजायब लाल बीमार पड़े. ठीक होने भी न पाए थे कि फिर तबादले का हुक्म आया. नई जगह, सूने घर में नवाब को ले जाना पागलपन होता, इसलिए नवाब को फिर लमही में ही रखने की ठहरी. इलाहाबाद से चलने लगे तो उन्होंने बलदेव से भी साथ आने को कहा. पर बलदेव साथ नहीं आए.

कुछ ही वक़्त बाद उनके साहब की, जो डाक-तार विभाग का कोई बड़ा अफ़सर था, इन्दौर की बदली हुई. वह बलदेव लाल को भी, जो मुंशी अजायब लाल के चले जाने के बाद उसी के यहां रहते थे, अपने साथ इन्दौर लेता गया और उन्हें तार का लाइन्समैन बनवा दिया. वह पन्द्रह बरस इन्दौर में रहे आए और घर का मुंह नहीं देखा. बाद को अपने छोटे भाई बलभद्र को भी उन्होंने अपने पास बुलाकर अपने ही समान लाइन्समैन बनवा दिया पर बलभद्र कच्ची उम्र में ही चल बसे.

नवाब की अब फिर अपनी वही पुरानी दुनिया थी वही मौलवी साहब और वही खेत-मैदान, ऊख-मटर, आम-इमली, दौड़-भाग, गुल्ली-गोली. फ़र्क़ बस इतना था कि सर पर अब और भी कोई न था, मां तो कभी किसी काम के लिए रोकती भी थीं, डांटती भी थीं, दादी तो बस लाड़ करती थीं, कुछ तो शायद इसलिए भी कि मां अभी हाल में ही मरी थी, उस ग़म को बच्चा अगर खेल-कूद में भूल जाए.

लिहाज़ा जैसे-जैसे समय बीतता गया, उम्र के साथ-साथ आवारागर्दी भी बढ़ती गई. दो बरस बाद पिता ने फिर ब्याह कर लिया था, लेकिन उससे नवाब का अकेलापन न घटना था न घटा और वह अलग अपनी दुनिया में घूमता रहा, खेलता रहा, दादी से कहानी सुनता रहा.

सिगरेट-बीड़ी का चस्का
किसी क़दर वह एक जंगली पौधे की बाढ़ थी, बिलकुल निर्बाध, उन्मुक्त. इसे उसका अच्छा पहलू कह सकते हैं. लेकिन कुछ बुरा पहलू भी था—बारह-तेरह बरस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उसे सिगरेट-बीड़ी का चस्का लग चुका था और अपने ही शब्दों में उन बातों का ज्ञान हो गया था जो कि बच्चों के लिए घातक हैं.

बिना मां के बच्चे का ऐसा ही हाल होता है. न हो, तो अचरज की बात है. पता नहीं मां का प्यार किस रहस्यपूर्ण ढंग से बच्चे का परिष्कार किया करता है. दोनों में से किसी को पता नहीं चलता पर वह छाया अपना काम करती रहती है. वह प्यार छिन जाए, सर पर से वह हाथ हट जाए तो एक ऐसी कमी महसूस होती है जो बच्चे को अन्दर से तोड़ देती है. और उसके साथ ही बहुत से सांचे, बहुत-सी मूर्तियां टूट जाती हैं जिनको बनाने में बरसों लगे थे.

यह कमी कितनी गहरी, कितनी तड़पानेवाली रही होगी जो सारी ज़िन्दगी यह आदमी उससे उबर नहीं सका और वह टीस बराबर पहाड़ों से टकरानेवाली सारस की आवाज़ की तरह उसकी नसों में गूंजती रही. बार-बार उसने ऐसे पात्रों की सृष्टि की जिनकी मां सात-आठ साल की ही उम्र में जाती रही और फिर दुनिया सूनी हो गई.

‘कर्मभूमि’ में अमरकान्त कहता है-‘ज़िन्दगी की वह उम्र जब इनसान को मुहब्बत की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, बचपन है. उस वक़्त पौधे को तरी मिल जाए तो ज़िन्दगी-भर के लिए उसकी जड़ें मज़बूत हो जाती हैं. उस वक़्त ख़ुराक न पाकर उसकी ज़िन्दगी खुश्क हो जाती है. मेरी मां का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को ख़ुराक नहीं मिली. वही भूख मेरी ज़िन्दगी है.’

दूसरी मां के आ जाने से बात कुछ नहीं बदली, उलटे उसका अकेलापन और बढ़ गया क्योंकि अब वह दादी के साथ लमही में नहीं बल्कि अपनी नई मां के साथ गोरखपुर में रह रहा था और पिता को बेटे की ओर ध्यान देने का और भी कम समय मिल रहा था. शायद अपनी कुछ उसी मनोदशा को उन्होंने ‘कर्मभूमि’ में यों व्यक्त किया है- ‘समरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था. उस सात साल के बालक ने नई मां का बड़े प्रेम से स्वागत किया, लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया कि उसकी नई मां उसकी ज़िद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखती जैसे उसकी मां देखती थी. वह अपनी मां का अकेला लाड़ला था. बड़ा ज़िद्दी, बड़ा नटखट. जो बात मुंह से निकल जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता. नई माताजी बात-बात पर डांटती थीं. यहां तक कि उसे माता से द्वेष हो गया. जिस बात को वह मना करतीं, उसे अदबदाकर करता. पिता से भी ढीठ हो गया. पिता और पुत्र में स्नेह का बन्धन न रहा.’

यह मन:स्थिति ठीक वह थी जिसमें नवाब के बिलकुल बहक जाने का पूरा सामान था, लेकिन प्रकृति जैसे अपने और तमाम जंगली फूल-पौधों को नष्ट होने से बचाती है जिनकी सेवा-टहल के लिए कोई माली नहीं होता, उसी तरह इस आवारा छोकरे को भी बचा रही थी. उसको बचाने के लिए उसने ढंग भी ऐसा ही अख़्तियार किया जो उसकी प्रतिभा के अनुकूल था.

आवारागर्दी ने लगाया पढ़ने का चस्का
बस एक हल्का-सा मोड़ दे दिया. आवारागर्दी अब भी चल रही थी—मगर मोटी-मोटी किताबों के पन्नों में, जिनका रस छन-छनकर उसके भीतर के किस्सागो को ख़ुराक पहुंचा रहा था. जो भूख उसके भीतर न जाने कब से, शायद जन्म से ही पल रही थी, जिसे दादी की कहानियों ने और उकसा दिया था, अब नवाब ख़ुद उसके लिए ख़ुराक जुटा रहा था और इस तरह फिर वह आवारागर्दी आवारागर्दी न रह गई, गुल्ली-डंडे और मटरगश्ती की जगह तलिस्म और ऐयारी की मोटी-मोटी किताबों ने ले ली, ऐसी कि ‘पूरी एन्साइक्लोपीडिया समझ लीजिए. एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नक़ल भी करना चाहे तो नहीं कर सकता, रचना तो दूर की बात है.’

तेरह साल की उम्र में पढ़ डाले सैकड़ों उपन्यास और पुराण
यह मौलाना फ़ैज़ी के ‘तलिस्मे-होशरुबा’ की तारीफ़ है जिसके पच्चीसों हज़ार पन्ने तेरह साल के नवाब ने दो-तीन बरस के दौरान में पढ़े और और भी न जाने कितना कुछ चाट डाला जैसे रेनाल्ड की ‘मिस्ट्रीज आफ़ द कोर्ट आफ़ लंडन’ की पच्चीसों किताबों के उर्दू तर्जुमे, मौलाना सज्जाद हुसेन की हास्य-कृतियां, ‘उमरावजान अदा’ के लेखक मिर्ज़ा रुसवा और रतननाथ सरशार के ढेरों किस्से. उपन्यास ख़त्म हो गए तो पुराणों की बारी आई. नवलकिशोर प्रेस ने बहुत से पुराणों के उर्दू अनुवाद छापे थे, उन पर टूट पड़े.

कैसे मिलती थीं पढ़ने को किताबें
कोई पूछे कि इतनी सब किताबें इस लड़के को मिलती कहां थीं? ‘रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था. मैं उसकी दूकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था. मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेज़ी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और उसके मुआवज़े में दूकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था. दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे.’

ग़रज़ कि बाद में, बहुत बाद में, कुछ दोस्तों ने उन्हें किताबी कीड़ा का जो लक़ब दिया था, उसका यह पूर्वाभास था. इससे हल्का एक पूर्वाभास तो अब से तीन बरस पहले मिला, जब पिता जी की शादी के मौक़े पर नवाब ने लोगों की दिल-बस्तगी के लिए या बैतबाज़ी की प्रतियोगिता में, जो कि कायस्थों की शादी में न तब कोई अनहोनी चीज़ थी न अब है इतनी ग़ज़लें सुनाई थीं कि घराती-बराती सब दंग रह गए.

उस वक़्त नवाब मिशन स्कूल में आठवीं जमात में पढ़ते थे जो तीसरा दर्ज़ा कहलाता था. लेकिन गोरखपुर वह शायद उसके भी दो बरस पहले पहुंच गए थे और उनकी अंग्रेज़ी पढ़ाई रावत पाठशाला में शुरू हुई. उन दिनों उनकी नई मां के भाई विजयबहादुर भी वहीं रहते थे. उनसे नवाब की बहुत बनती थी, उम्र भी लगभग एक ही थी. अक्सर दोनों बालेमियां के मैदान में निकल जाते और पतंगों के पेंच देखते. नई मां का पहला बच्चा गुलाबराय तब डेढ़-दो साल का था और मुमकिन है कि उसकी आमद ने घर से नवाब का लगाव और कम कर दिया हो. यहीं लगभग दो बरस बाद उनके दूसरे बच्चे महताब का जन्म हुआ.

जहां तक नवाब की बात है, उसको घर से यों ही बहुत कम मतलब था और अब तो उसके पास होश उड़ा देनेवाले तलिस्मों की अलग अपनी एक दुनिया थी, और हातिमताई और चहार दरवेश जैसे संगी-साथी थे जिनके संग-संग वह कभी भेस बदलकर अंधेरे तहख़ानों में घुसता था और अक्सर जंगलों व रेगिस्तानों में भटकता फिरता था.

इस उम्र में शुरू किया लिखना
बड़े आश्चर्य की और काफ़ी गहरे आशय की बात है कि तेरह साल का नवाब जब लिखने बैठा तो उसने तलिस्म और ऐयारी की राह नहीं पकड़ी, बावजूद उन सैकड़ों किताबों के जिन्हें वह घोलकर पी चुका था और जो निश्चय ही उसके दिमाग़ पर छाई रही होंगी. कोई ताक़त जो ख़ुद उससे बड़ी थी उसका हाथ पकड़कर उसे सामाजिकता के उस रास्ते पर ले गई जिसे भविष्य में उसका अपना ख़ास रास्ता बनना था, जिसे अपने पैरों से रौंद-रौंदकर उसने पक्का किया, जिस पर उसके पैरों के गहरे निशान हैं जो जल्द मिटनेवाले नहीं हैं. शुरू की कुछ कहानियों में सामाजिकता के साथ-साथ कहानी के ढांचे में यह तलिस्मी-ऐयारी रंग भी थोड़ा-बहुत बोला मगर उसकी पहली रचना, जो उसका परिचय-पत्र था, इस चीज़ से क़तई पाक है.

पहली रचना में मामा को बनाया पात्र
वह रचना, उसकी पहली रचना, जिसे शायद चिराग़ अली के सिपुर्द कर दिया गया, अपने तरह की एक बेजोड़ चीज़ थी जिस पर शायद किसी अच्छे लेखक को भी शर्म न आती. उसके रचे जाने की कहानी ख़ुद मुंशीजी ने बहुत रस ले-लेकर कही है:- मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहां आया करते थे. अधेड़ हो गए थे लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे. पास में थोड़ी-सी ज़मीन थी, मकान था, लेकिन घरनी के बिना सब कुछ सूना था. इसीलिए घर पर जी न लगता था, नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे. इसके लिए सौ दो सौ ख़र्च करने को भी तैयार थे.

आख़िर एक बार उन्होंने भी वही किया जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं—एक महिला के नयन-बाणों से घायल हो गए. वह उनके यहां गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी. जवान थी, छबीली थी, मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा. वह इनके मन का भाव ताड़ गई, ऐसी अल्हड़ न थी, और नखरे करने लगी.

केशों में तेल भी पड़ने लगा, आंखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आई और काम में ढिलाई भी शुरू हुई. कभी दोपहर को आई और झलक दिखाकर चली गई, कभी सांझ को आई और एक तीर चलाकर चली गई. बैलों को सानी-पानी मामू साहब ख़ुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते.

एक दिन संध्या समय महिला की जमात ने आपस में पंचायत की. बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज़्ज़त लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आंख उठाकर न देखा और एक यह हैं कि नीच जात की बहू-बेटियों पर भी डोरे डालते हैं, समझाने-बुझाने का मौक़ा न था. समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उलटे और कोई मामला खड़ा कर देंगे. इनके क़लम घुमाने की तो देर है. इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक़ देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए. इज़्ज़त का बदला ख़ून से ही चुकता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो ही सकती है.

दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर आई तो उन्होंने अन्दर का द्वार बन्द कर दिया. महीनों के असमंजस, हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था. चाहे कुछ हो जाए, कुल मरजाद रहे या जाए, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर लोगों का जत्था ताक में था ही. इधर किवाड़ बन्द हुए, उधर उन्होंने खटखटाना शुरू किया. पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई असामी मिलने आया होगा, किवाड़ बन्द पाकर लौट जाएगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाये. जाकर किवाड़ों की दराज से झांका, कोई बीस-पच्चीस लोग लाठियां लिये, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे. अब करें तो क्या करें, भागने का कोई रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते. आशिकी इतनी जल्द गुल खिलाएगी यह क्या जानते थे, नहीं इस चम्पा पर दिल को आने ही क्यों देते. उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी—तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज़्ज़त लुट गई. घरवाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे. कहती थी, अभी किवाड़ न बन्द करो, हाथ-पांव जोड़ती थी, मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था. लगी मुंह में कालिख कि नहीं?

उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था, यहां तक कि सारा गांव जमा हो गया. बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ, सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने आ पहुंचे. बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले. चम्पा आंगन में खड़ी रो रही थी. द्वार खुलते ही भागी. कोई उससे नहीं बोला. मामू साहब भागकर कहां जाते? मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी. जिसके हाथ जो कुछ लगा—जूता, छड़ी, छाता, लात, घूंसा, सभी अस्त्र चलें यहां तक कि मामू साहब बेहोश हो गए और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझकर छोड़ दिया. अब इतनी दुर्गत के बाद वह बच भी गए तो गांव में नहीं रह सकते और उनकी ज़मीन पट्टीदारों के हाथ आएगी.

एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे. ज्योंही चलने-फिरने लायक हुए, हमारे यहां आए. अपने गांववालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे.अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती, लेकिन उनका वही दमखम था. मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब ज़माना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा? अब तो मेरे पास उन्हें नीचा दिखाने के लिए काफ़ी मसाला था.आख़िर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई. सब के सब ख़ूब हंसे. मेरा साहस बढ़ा. मैंने उसे साफ़-साफ़ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया. फिर भला मामू साहब कैसे टिक जाते, अपना बोरिया-बक़चा उठाया और चलते बने.

कलम को बनाया ढाल-तलवार
नवाब तब तक शरीर से दुर्बल थे और अब शायद पहली बार उन्हें अपने भीतर की इस नई शक्ति की चेतना हुई जो मारपीट कर सकने से कहीं ज़्यादा भयंकर थी! जो काम लाठी-डंडे से नहीं हो सकता वह काम यह क़लम कर सकती है. मैं कमज़ोर हूं तो क्या, यह एक बड़ा हथियार मुझे मिल गया! अब कोई मुझे सताकर तो देखे मैं उसकी कैसी मिट्टी पलीद करता हूं! ऐसी मार मारूंगा कि पानी भी मांगते नहीं बनेगा. किसी की खिल्ली उड़ाकर उसका पानी जितनी अच्छी तरह उतारा जा सकता है, उतना किसी और तरह नहीं. यह एक अच्छी चीज़ मिली. मैं क्या जानता था. अब मैं इसी को अपनी ढाल-तलवार बनाऊंगा.

यह नवाब के साहित्यिक जीवन का पहला पाठ था, जिसे वह कभी नहीं भूला।. और न शायद एक बार मामू साहब की छीछालेदर करने से उसका जी भरा क्योंकि चालीस बरस बाद ‘गोदान’ की सिलिया और मातादीन के रूप में चम्पा और मामू साहब फिर जी उठे.

इससे बिलकुल अलग इसी जमाने का एक स्मरणीय जीवन-अनुभव वह है जिसकी कहानी उन्होंने बरसों बाद, बड़ी हसरत के साथ ‘रामलीला’ में कही. लेकिन अब हम उस दौर की चौखट पर पहुंच गए हैं जब कि नवाब का बचपन, अपनी कड़वी-मीठी स्मृतियों के साथ, बड़ी तेज़ी से पीछे छूटता जा रहा है. अभी उसकी उम्र चौदह साल है, बचपन के बीत जाने की उम्र नहीं है, केवल वय:संधि है. पर यह सब अब थोड़े दिनों का खेल है. मां को मरे छ: साल बीत चुके हैं. इस बीच उसने बहुत कुछ देखा है, सहा है, सीखा है और अकाल-प्रौढ़ता, जो कुछ तो उसकी प्रतिभा का ऋण-शोध है और कुछ उसकी परिस्थितियों का, उनका दरवाज़ा खटखटा रही है.

इस बार मुंशी अजायब लाल गोरखपुर में बहुत लम्बे टिक गए थे, इतना शायद इसके पहले और कहीं भी रहने का मौक़ा नहीं मिला था, लगभग चार साल. इस बीच नवाब ने मिशन स्कूल से आठवां दर्ज़ा ज्यों-त्यों पास कर लिया था. ज़हीन थे मगर स्कूली किताबों में जी न लगता था क्योंकि तलिस्मी कहानियों की वजह से होश उड़ा रहता था और जो मज़ा हातिमताई की संगत में था वह भला मास्टर साहब की संगत में कहां. लस्टम-पस्टम पास हो जाते थे लेकिन हां, हिसाब एक मुस्तिक़ल हौआ था जिसके नाम से ग़रीब का हलक सूखता था.

ख़ैर, तो नवाब ने आठवां पास कर लिया और तभी मुंशी अजायबलाल की बदली जमनिया की हो गई. उनकी सेहत पिछले दिनों बहुत गिर गई थी और बराबर गिरती जा रही थी. दूसरी पत्नी से उनका पहला लड़का गुलाब तब दो-तीन साल का था. और दूसरा, महताब, हाल में ही पैदा हुआ था.नवाब को अब नवें दर्जे में नाम लिखाना था जो कि बनारस में ही सम्भव था. पिताजी ने पूछा, कितना ख़र्चा लगेगा? नवाब ने कहा—पांच रुपया दे दिया कीजिएगा..मगर पांच रुपए में भला क्या होता. बड़ी मुश्किल का सामना था. तो भी पढ़ने की धुन बराबर बनी हुई थी.

मर चुका था बचपन 
पांव में जूते न थे. देह पर साबित कपड़े न थे. महंगी अलग—दस सेर के जौ थे. स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी. काशी के क्वींस कालेज में पढ़ता था. हेडमास्टर ने फ़ीस माफ़ कर दी थी. इम्तहान सिर पर था और मैं बांस के फाटक एक लड़के को पढ़ाने जाता था. जाड़ों के दिन थे। चार बजे पहुंचता था. पढ़ाकर छ: बजे छुट्टी पाता. वहां से मेरा घर देहात में पांच मील पर था. तेज़ चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुंच सकता. और प्रात:काल आठ ही बजे फिर घर से चलना पड़ता था, नहीं वक़्त पर स्कूल न पहुंचता. रात को खाना खाकर कुप्पी के सामने पढ़ने बैठता और न जाने कब सो जाता. अब तक बचपन मर चुका था.

Source;-‘News 18″

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