आधा एकड़ ज़मीन पर खेती के ज़रिए रोज़ी-रोटी चलाने वाले परिवार में बेटी के लिए स्मार्टफ़ोन दिलाना एक तरह से मुसीबत बढ़ने जैसा था.
कनेक्टिविटी न होने के कारण बेंगलुरु-मैसूर हाइवे के क़रीब बसे इस गांव के क़रीब 80 से 100 दूसरे छात्रों की पढ़ाई चौपट हो रही थी.
विद्याश्री सी.एम. कहती हैं, ”हमारे पास एक छोटा फ़ोन था जो मेरे पापा इस्तेमाल करते थे. मां ने यह फ़ोन मेरे लिए ख़रीदा ताकि मैं क्लास अटेंड कर सकूं. इस सब के बावजूद हमें पास के गांव जाकर क्लास के दूसरे बच्चों से नोट्स लेने पड़ते थे, जिनके यहां इंटरनेट कनेक्टिविटी बेहतर थी.”
विद्याश्री, राष्ट्रीय राजमार्ग पर खिलौनों का शहर कहे जाने वाले चन्नापट्टना से क़रीब 10 किलोमीटर दूर बसे चिक्केनहल्ली गांव में रहती हैं. वो चन्नाम्बिका प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में विज्ञान की छात्रा हैं, जोकि एक निजी संस्थान है.
लेकिन बीते एक हफ़्ते में विद्याश्री, यशवंत गौड़ा और चंद्रू शेखर डी.बी. जैसे कई विद्यार्थियों की ज़िंदगी नाटकीय ढंग से बदली है. इसकी वजह है गांव के ही उन कुछ लोगों की ओर से चलाई गई मुहिम, जिनका बेंगलुरु शहर में अच्छा कारोबार है.
गांव के लिए कुछ करने का जुनून
मातृभूमि महेश ने बीबीसी को बताया, “हमने चन्नापट्टना से अपने गांव तक केबल बिछवाई. हमने 10 से 15 घरों को समूह में बांटकर वाई-फ़ाई कनेक्शन लगाए. इससे लगभग 50 फ़ीसद गांवों को वाई-फ़ाई सेवा मिल गई और हम बच्चों के चेहरों पर ख़ुशी देख पाए. हमारे गांव में क़रीब 80-100 स्टूडेंट हैं.”
महेश और उनके भाई हरीश कुमार मातृभूमि एक नर्सिंग कंपनी चलाते हैं जो घर में रहने वाले मरीज़ों के लिए सेवाएं देती है.
यह कंपनी चन्नापट्टना, बेंगलुरु और मैसूर में सक्रिय है. उन्होंने मातृभूमि सेवा फ़ाउंडेशन भी शुरू किया है. इसी फ़ाउंडेशन के ज़रिए चिक्केनहल्ली गांव तक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की सुविधा पहुँचाई गई है.
गांव में छोटी सी दुकान चलाने वाले चिन्नागिरि गौड़ा कहते हैं, “हमारे गांव में रहने वाले अधिकतर लोगों के पास ज़मीन नहीं है. वो सब ज़मीनदारों के खेतों में काम करते हैं. उन्हें रोज़ क़रीब 300 रुपये मज़दूरी मिलती है लेकिन बीते कुछ महीनों में अधिकतर लोग अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए स्मार्टफ़ोन ख़रीदने को मजबूर हो गए हैं.”
उनके बेटे यशवंत गौड़ा कॉमर्स से प्री-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई कर रहे हैं.
वो कहते हैं, “बीते एक सप्ताह से अब मैं बहुत अच्छे से क्लास ले पा रहा हूं. हमारे घर में हॉटस्पॉट लगा है इसलिए आसपास रहने वाले दूसरे बच्चे भी हमारे घर आकर अपनी क्लास करते हैं.”
नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले उनके छोटे भाई रोहन गौड़ा को होमवर्क सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर मिलता है.
चिन्नागिरी गौड़ा कहते हैं, “मैंने एक फ़ोन ख़रीदा. उसके लिए डेटा कनेक्शन भी लिया जिसका ख़र्च मुझे हर महीने 249 रुपये पड़ता है. कनेक्टिविटी भी अच्छी नहीं थी. इस ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की वजह से हर महीने मेरे 500 रुपये बच रहे हैं और मेरा दूसरा बेटा दूसरा फ़ोन इस्तेमाल करता है.”
केरल में भी ऐसी एक मुहिम
दो एकड़ ज़मीन के मालिक राजेश सी.जी. बताते हैं, “मैं इस नेटवर्क का इस्तेमाल बैंक लोन और मनरेगा के कामों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए करता हूं, क्योंकि हम अपने गांव और आस-पास के इलाक़े में चीज़ें बनाने का काम करते हैं. इसके पहले हमें हर बार चन्नापट्टना जाना पड़ता था, तभी हमारा काम होता था.”
मातृभूमि फ़ाउंडेशन की ये मुहिम केरल में सीपीएम और कांग्रेस से जुड़े दो विरोधी छात्र संगठनों की मुहिम जैसी ही है, जिन्होंने साथ मिलकर आदिवासी इलाक़ों में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चों तक ऑनलाइन शिक्षा पहुँचाने के उद्देश्य से बड़े मॉनिटर और टीवी सेट उपलब्ध कराए थे.
कट्टर प्रतिद्वंद्वी इन छात्र संगठनों ने साथ मिलकर इस मुहिम की शुरुआत तब की जब दलित समुदाय की एक मेधावी लड़की ने इसलिए आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसके पिता ऑनलाइन क्लास के लिए उसे स्मार्टफ़ोन दिलाने में सक्षम नहीं थे.
केरल सरकार ने बाद में जब यह महसूस किया कि नेटवर्क कनेक्टिविटी के लिए कई स्टूडेंट नारियल के पेड़ों या घरों की छतों पर बैठ रहे हैं तो उसने ऐसे विद्यार्थियों की पहचान के लिए सर्वे कराया जिन्हें टीवी मॉनिटर और ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की ज़रूरत है.
महेश कहते हैं, “हम अपने गांव को टेक्नोलॉजी विलेज बनाना चाहते हैं. हमने चन्नापट्टना से अपने गांव तक केबल लाने और हॉटस्पॉट लगाने में पहले ही क़रीब तीन लाख रुपये ख़र्च कर दिए हैं. हम कुछ घरों में डेस्कटॉप रखेंगे जहां बच्चों के माता-पिता स्मार्टफ़ोन ख़रीदने का ख़र्च नहीं उठा सकते.”
BBC