• April 25, 2024 9:50 am

विकास से अब भी दूर हैं गाँव, सारी सुविधाएँ, गाँव में हों तो कोई शहर का मुँह क्यों ताके?

19  सितंबर 2022 | हम जड़ों से कटे हुए लोग। परिवार या कुल की बेल से टूटे हुए… और एक तरह से सूखे हुए पत्ते। दिनभर की आपाधापी के बाद कभी सुख में, कभी दुख में, मिनटों के लिए ही सही, एक कंधा तलाशते हैं। आँखों के कलश से गीला करने के लिए। हमें वह कंधा नसीब नहीं।

तमाम सुखों की गंगा आस-पास बहती है। शहरों- महानगरों की सारी ख़ुशियाँ घर में ही टिमटिमाती रहती हैं, लेकिन गाँव की वो गुनगुनी धूप नहीं है, जो आँगन को घर से जोड़ने वाली सिड्डियों पर बैठकर मिलती थी… और वे सिड्डियां जिन पर शरारत करते कभी माँ ने कान उमेठा था, पिता ने डाँट पिलाई थी और इस सब के बाद दादी ने पल्लू में छिपाकर सारी आफ़तों से बचा लिया था, अब याद तक नहीं है।

ख़ुशियों की बरगद- सी छाँह के बावजूद लगता है- हम गमलों में उगे हुए लोग हैं। कहने को यहाँ शहरों में हमारा अपना समाज है, धर्म है और हँसते- बोलते लोग भी हैं। लेकिन सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक मूल्य काँच के बर्तनों की तरह टूट गए हैं… और उनकी किरचें हमारे पैरों में चुभी हुई हैं।

ये किरचें पैरों में सिर्फ़ दिखती हैं, दरअसल, ये हमारे माथे में चुभ गईं हैं। हमारे बच्चे ऊँची से ऊँची शिक्षा पा गए, हमसे भी बड़े- ऊँचे लोग बन गए, लेकिन हम उन्हें वह सभ्यता नहीं दे पाए जिसमें आस भी होता था, पड़ोस भी होता था। घर के भाइयों की तरह पड़ोस में भी भाई और वे दादा- दादी हुआ करते थे जो हमारी ग़लती होने पर भी अपने पोते- पोतियों को पहले फटकारते थे।

लेकिन यह सब क्यों हुआ? शहरों की तरह सुविधाएं, रोज़गार और उच्च शिक्षा गाँवों- क़स्बों में भी होती तो कोई क्यों अपनी जड़ों से कटता? कई देशों में आज गाँव वाले, शहर वालों से अच्छी सुविधाएं पा रहे हैं और ख़ुद को सुपीरियर भी मानते हैं। लेकिन हिंदुस्तान में नेताओं, सरकारों ने हमें ऐसा मौक़ा नहीं दिया।

कोई कुछ सोचता- करता नहीं। न विधायक, न सांसद, न मंत्री, न सरकार। सवाल उठता है कि ये सब इतने ज़िम्मेदार पदों पर हैं ही क्यों? फिर सवाल उठता है कि इन्हें जिताता कौन है? हम ही। कहीं न कहीं, हम ही ज़िम्मेदार हैं। लेकिन संकल्प लेना होगा कि अब ऐसा नहीं करेंगे, जैसा करते आए हैं।

दरअसल, सरकार की नज़र में तो नरेगा ही गाँवों के विकास की कुंजी है। लेकिन यह ग़लत है। अब न तो गाँव नरेगा के लिए मरेगा और न ही मज़दूरी के सहारे पूरा जीवन काटेगा। उसे वे तमाम सुविधाएँ चाहिए, जो शहरों और शहर वालों के लिए हैं। और ये संभव भी है। ज़रूरत है- इच्छाशक्ति की। एक शिद्दत की। एक संकल्प की।

Source:-“दैनिक भास्कर”       

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