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तीरथ कीर्तन उर्फ़ निकलना उधड़ी हाफपैंट से नये जीरो का

ByPrompt Times

Mar 28, 2021
बाबा साहब,भारतीय संविधान और मौजूदा खतरे

🔴 जिस समय देश और उसकी जनता अपने ताजे इतिहास की सबसे ज्यादा और सर्वआयामी मुश्किलों में हो, सरकार के क़दमों में इन संकटों की भरमार से बाहर निकलने की उम्मीद की किरण तक न दिखाई पड़ रही हो – ऐसे समय में इस तरह की विदूषकी को सिर्फ तीरथ कीर्तन मानना या किसी अज्ञानी का मखौल समझकर अनदेखी करना सही नहीं होगा। यह एक भरे-पूरे आख्यान का एक हिस्सा है। एक बड़े एजेंडे को हासिल करने के लिए लगातार आगे की ओर बढ़त का एक और कदम है!! समाज और उसकी चेतना को पीछे, बहुत पीछे ले जाने के इस एजेंडे में इस तरह के चुटकुले सिर्फ मनोविनोद के लिए नहीं होते – उनका मकसद मनोविकार को श्रृंगार बताते हुए उसे स्थायी मनोरोग की ऊंचाई तक ले जाना होता है।

🔴 इनका निशाना भी चुनिन्दा होता है। उसमें महिलायें विशेषकर प्राथमिकता पर होती हैं, गरीब और जरूरतमंद होते हैं, उनकी मुश्किलों का मखौल उड़ाना होता है। अल्पसंख्यक होते ही हैं, तार्किकता और बौद्धिकता भी होती है। जीवन जीने का अधिकार, समाज की लोकतांत्रिकता और आधुनिकता होती है। मेहनतकश जनता तो खासतौर से होती है। महिलाओं के खिलाफ लगातार चलती रही तथा हाल के दिनों में किसानों के खिलाफ तेजी पकड़ती मुहिम, उनके साथ गाली और गरियाव की भाषा इसी एजेंडे का हिस्सा है। समझदार और सभ्य समाज और उसके सुधीजन-जनी भले इस तरह के तीरथ कीर्तनो पर हँसकर – खीजकर अपना सर धुनते रहें, इन्हे सस्ता चुटकुला मानकर बैठे रहें, किन्तु कड़वा सच यह है कि इस तरह लगातार कहा-सुना जाना समाज के बड़े हिस्से पर असर डालता है। उन्हें उजड्ड और असहिष्णु, असभ्य और बर्बर बनने के बहाने और कुतर्क मुहैया कराता है। पुरातन परम्पराओं की प्रेतबाधा में जकड़ी उसकी सोच की बेड़ियों को और भारी और मजबूत बनाता है। स्त्री, वंचितों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले सभ्य समाज के रास्ते में पहले से खड़े मनु और मनु जैसों के कँटीले झाड़-झंखाड़ को खाद-पानी देता है। इन्हीं अंधेरों के भरोसे पर टिका है कारपोरेटी हिन्दुत्व का वह आत्मविश्वास कि चाहें जो हो जाए, आएगा तो मोदी ही; इसे ही स्वर दे रहे थे तीरथ सिंह रावत जब वे अपने आराध्य नरेंद्र मोदी की तुलना भगवान कृष्ण और राम से करते हुए दावा कर रहे थे कि एक दिन लोग मोदी की पूजा करेंगे।

🔴 सिर्फ मध्यमवर्ग के खाये-पीये-अघाये छोटे से हिस्से पर ही नहीं, मेहनतकशों के अच्छे खासे हिस्से पर भी इसकी विषाक्तता का असर होता है। हाल के दिनों में निजीकरण के खिलाफ हुयी बैंक और बीमा कर्मचारियों की शानदार हड़ताल कार्यवाही के समय भी यह पहलू चर्चा में आया था कि कारणों को प्रोत्साहन देने वाले नैरेटिव से सहमत होते हुए, उन्हें आगे बढ़ाते हुए क्या सिर्फ कुछ परिणामो के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीती जा सकती है। जाहिर है कि नहीं!! यह चौतरफा बबूल रोपते हुए सिर्फ अपने पांवों के नीचे आने वाले काँटों से बचने की कामना करने जैसी निरर्थक बालसुलभ सदिच्छा है।

🔴 भारतीय परिदृश्य – जहां कारपोरेट हिन्दुत्व के साथ गलबहियां करके आया हो, वहां तो दोनों से एक साथ लड़ना ही होगा। चेतना और अवचेतन दोनों की साफ-सफाई करते हुए उन अँधेरे कोनों को रोशन करना ही होगा, जहां कीर्तन करते तीरथ निर्बुद्धि के उल्लुओं के घोंसले बनाते हैं।

🔴 अच्छी बात यह है कि मौजूदा दौर के जनांदोलनों, विशेषकर मेहनती जनता के संघर्षों ने इस पहेली को सुलझाने का काम हाथ में लिया है। भारत की जनता के प्रगतिशील, युगान्तरकारी और गौरवशाली अध्यायों के साथ अपना रिश्ता बनाते हुए उनके अधूरे छूट गए कामों को अपने वर्तमान संघर्षों के कार्यभारों में शामिल करना शुरू किया है। भगत सिंह के शहादत के दिन से जोड़कर अखिल भारतीय किसान सभा द्वारा भगतसिंह के पैतृक गाँव खटखड़कलां, स्वतन्त्रता संग्राम के मशहूर केंद्र हाँसी की लाल सड़क और मथुरा से निकाली सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्राएं ठीक यही काम कर रही थीं। आर्थिक शोषण के विरुध्द लड़ाई को हर तरह के शोषण और पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई से जोड़ रही थी। किसान, मजदूर, छात्र, युवा और महिलाओं की साझी तहरीकें खड़ी हो रही थीं। देश भर के किसान आंदोलन के मोर्चों पर 8 मार्च के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का मनाया जाना, 1906-07 के पंजाब के किसान आन्दोलन से खुद को जोड़ते हुए सावित्री-जोतिबा फुले से बाबा साहब अम्बेडकर के दिन पर सामाजिक समता, लोकतंत्र और संविधान की हिफाजत से जुड़े आयोजन इसी जरूरी श्रृंखला की कड़ी है। मिलकर लड़ने के अवसर ढूंढें जा रहे थे। हालांकि यह सिर्फ एक या दो दिन किये जाने से पूरा किया जा सकने योग्य काम नहीं है।

(आलेख : बादल सरोज)
(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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