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तुर्की और इसराइल फिर एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं?

ByPrompt Times

Dec 18, 2020
तुर्की और इसराइल फिर एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसराइल पर कड़ी टिप्पणी करने वाले और फ़लस्तीनियों के अधिकारों की बात करने वाले तुर्की के राष्ट्रपति रिचैप तैय्यप अर्दोआन की सरकार ने दो साल से लगभग समाप्त इसराइल के साथ राजनयिक संबंधों को अचानक बहाल करने की घोषणा की है.

तुर्की ने चंद रोज़ पहले इसराइल के लिए अपना राजदूत नियुक्त किया है. 2018 में ग़ज़ा में फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ इसराइल की हिंसक कार्रवाइयों के विरोध में तुर्की ने अपना राजदूत तेल अवीव से वापस बुला लिया था.

ये प्रदर्शन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम भेजने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हो रहे थे.

तुर्की के नेता अर्दोआन इसराइल को ‘दहशतगर्द और बच्चों का क़ातिल’ कह चुके हैं, लेकिन अब वो अपने राजदूत को इसराइल भेज रहे हैं. इस फ़ैसले के अर्थ को समझने के लिए हालिया घटनाक्रमों और इसराइल-तुर्की के लंबे ऐतिहासिक संबंधों को समझना ज़रूरी है.

तुर्की की ओर से अपने राजदूत को तैनात करने का फ़ैसला तब आया है जब एक दिन पहले अमेरिका ने तुर्की पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाए हैं.

रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम ख़रीदने के बाद अमेरिका ने इस साल की शुरुआत में तुर्की को अपने एफ़-35 लड़ाकू विमान बेचने और तुर्की के एविएटर ट्रेनिंग प्रोग्राम समेत कई योजनाओं पर रोक लगा दी थी.

अमेरिकी दबाव के बावजूद तुर्की ने रूसी मिसाइल सिस्टम की ख़रीदारी से पीछे हटने से मना कर दिया था. अब जाते-जाते ट्रंप प्रशासन ने तुर्की पर नई पाबंदियां लागू कर दी हैं. ग़ौरतलब है कि तुर्की अमेरिका और यूरोप के रक्षा गठबंधन नेटो का एक अहम सदस्य भी है.

मध्य पूर्व में नई गुटबाज़ियां और ‘जियो स्ट्रेटेजिक’ बदलाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब पूरी दुनिया ऐतिहासिक रूप से कोरोना वायरस महामारी से जूझ रही है.

दुनियाभर के देशों की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ रही हैं और अरब देशों के लिए बड़ी मुश्किल का समय है क्योंकि पूरी दुनिया की तेल पर निर्भरता कम हुई है जिसके कारण उनका आर्थिक बोझ ज़्यादा बढ़ गया है.

अरब देश आर्थिक स्थिरता के कारण अपनी पारंपरिक नीतियों की समीक्षा करते हुए अपनी नई आर्थिक संभावनाओं को खोज रहे हैं.

वहीं अमेरिका में भी राजनीतिक बदलाव आ रहा है और नए राष्ट्रपति जो बाइडन का प्रशासन अगले साल 20 जनवरी से पदभार संभालने जा रहा है.

नए अमेरिकी प्रशासन से रिश्ते ठीक करने की कोशिश?

इसराइल के अख़बार ‘द टाइम्स ऑफ़ इसराइल’ ने तुर्की के इस फ़ैसले की ख़बर ही में इसे तुर्की की तरफ़ से आने वाले दिनों में अमेरिका से अपने संबंधों को ठीक करने की कोशिश क़रार दिया है.

इसराइल के एक और अख़बार ‘येरुशलम पोस्ट’ ने 13 दिसंबर को लिखा कि तुर्की एक ओर इसराइल के साध संबंधों को बेहतर करके अमेरिका के सामने अपने आपको ‘गुड कॉप’ के तौर पर पेश करना चाहता है और दूसरी ओर वह ‘इसराइल को अपने मित्र राष्ट्रों संयुक्त अरब अमीरात और ग्रीस से दूर करना चाहता है.’

मध्य पूर्व पर नज़र रखने वाले विश्लेषक भी यह मानते हैं कि तुर्की ने ये फ़ैसला नए अमेरिकी प्रशासन से बातचीत के दरवाज़े खुले रखने और तुर्की पर चारों तरफ़ से बढ़ते हुए दबाव से निकलने के लिए लिया है.

येरुशलम में रहने वाले मध्य पूर्व मामलों के जानकार हरिंदर मिश्रा कहते हैं कि इस क्षेत्र में कुल मिलाकर ‘तुर्की के अंदर अलग-थलग रह जाने की भावना बड़ी तेज़ी से महसूस की जा रही थी.’

उन्होंने लाल सागर में तेल और गैस ढूंढने के मामले की ओर इशारा किया जिसके कारण तुर्की का साइप्रस और ग्रीस से झगड़ा तेज़ हो गया था. इस झगड़े में फ़्रांस और संयुक्त अरब अमीरात साइप्रस और ग्रीस का साथ दे रहे हैं.

इसके अलावा उन्होंने लीबिया और सीरिया की ओर भी इशारा किया जहां पर तुर्की को मिस्र, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और फ़्रांस के अलावा रूस के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है.

मध्य पूर्व मामलों के जानकार और ब्रिटेन की बाथ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डॉक्टर इफ़्तिख़ार मुल्क का कहना है कि अमेरिका में जो बाइडन के सत्ता संभालने के बाद तुर्की अमेरिका के साथ अपने संबंध सुधारना चाहता है और इसलिए इसराइल से राजनयिक संबंध बहाल करके उसने यह राह आसान की है.

डॉक्टर इफ़्तिख़ार मुल्क का कहना है कि तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने यह फ़ैसला लेकर ख़ासतौर से अमेरिका के नए प्रशासन और सामान्य रूप से दुनिया के बाक़ी देशों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि तुर्की क्षेत्र का ‘बैड गाय’ या बुरा आदमी नहीं है.

इसराइल में तुर्की के नए राजदूत कौन हैं?

40 वर्षीय अफ़क़ अल्तास तुर्की के विदेश मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सीनेटर ऑफ़ स्ट्रेटेजिक रिसर्च के चेयरमैन हैं उनको रिचैप तैय्यप अर्दोआन ने इसराइल में तुर्की का राजदूत चुना है.

हरिंदर मिश्रा के मुताबिक़, अफ़क़ अल्तास को अर्दोआन के क़रीबी और विश्वस्त अधिकारियों में से एक माना जाता है.

अफ़क़ ने येरुशलम की हिब्रू यूनिवर्सिटी से स्नातक की पढ़ाई की है और वो हिब्रू भाषा के साथ-साथ फ़लस्तीनी मुद्दे पर उनकी गहरी पकड़ है.

इसराइल से प्रकाशित अख़बार ‘द टाइम्स ऑफ़ इसराइल’ अफ़क़ के बारे में लिखता है कि वो ‘बेहद सभ्य, समझदार और फ़लस्तीनियों के हमदर्द’ हैं.

हरिंदर मिश्रा ने बताया कि फ़लस्तीनी जनता की तरफ़ से अफ़क़ अल्तास की तैनाती को सकारात्मक तौर पर देखा जा रहा है. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि तुर्की इस साल दो बार हमास के नेताओं की मेज़बानी कर चुका है और उनका समर्थन किया है.

तुर्की के राजनयिक की तैनाती के बाद जो सवाल सबसे अहम हो जाता है वो है येरुशलम को राजधानी मानने का, जो कूटनीतिक और राजनीतिक रूप से बेहद अहम और संवेदनशील मामला है.

इस पर हरिंदर मिश्रा कहते हैं कि नए राजनयिक तेल अवीव में ही तैनात होंगे हालांकि पूर्वी येरुशलम में तुर्की का वाणिज्यिक दूतावास 1948 से वहां पर है.

डॉक्टर इफ़्तिख़ार मुल्क के मुताबिक़, तुर्की अपने राजदूत को येरुशलम में तैनात नहीं करेगा क्योंकि यह फिर येरुशलम को राजधानी स्वीकार करने जैसा होगा.

तुर्की ने इसराइल को कब और कैसे स्वीकार किया था?

इसराइल और तुर्की के संबंधों की शुरुआत इसराइल के गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी. मुस्लिम बहुल देशों में सबसे पहला तुर्की वह देश था जिसने 1949 में इसराइल को एक देश के रूप में स्वीकार करने की घोषणा की थी.

तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीनी इलाक़ों के बांटने का विरोध करने के बावजूद इसराइल को स्वीकार करने में देर नहीं की थी और इतिहासकारों की नज़र में उसकी सबसे बड़ी वजह तुर्की का एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होना था.

भौगोलिक निकटता और सामान्य हितों के कारण, दोनों देशों के बीच आर्थिक, पर्यटन, व्यापार और रक्षा क्षेत्रों में संबंध बढ़ते चले गए.

लेकिन इसराइल के अस्तित्व से पहले उस्मानिया साम्राज्य और यहूदियों के बीच संबंधों की कहानी लंबी है.

डॉक्टर इफ़्तिख़ार मुल्क प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार फ़िलिप मेंसेल की किताब ‘कॉन्टेस्टाइन द सिटी ऑफ़ वर्ल्ड डिज़ायर’ का हवाला देते हुए एक ऐतिहासिक क़िस्सा बताते हैं.

फ़िलिप मेंसेल ने लिखा है कि यहूदियों को एक अलग देश का विचार देने वाले थियोडोर हेरज़ेल ने उस्मानिया ख़लीफ़ा अब्दुल मजीद से तब मुलाक़ात की थी जब उस्मानिया सल्तनत यूरोपीय ताक़तों के क़र्ज़ों के बोझ तले दबी हुई थी और यूरोप को तुर्की का ‘बीमार’ कहा जाता था.

थियोडोर हेरज़ेल ने 17 मई 1901 को उस्मानिया सल्तनत के ख़लीफ़ा सुल्तान अब्दुल माजिद के दरबार तक पहुंच हासिल की और प्रस्ताव दिया कि वह उस्मानिया सल्तनत के तमाम क़र्ज़ चुका सकते हैं लेकिन उसके लिए उस्मानिया सल्तनत को फ़लस्तीनी इलाक़ों में यहूदियों को बसाने के लिए शाही फ़रमान जारी करना होगा.

लेकिन उस्मानी ख़लीफ़ा ने यह प्रस्ताव ख़ारिज करते हुए कहा कि अगर उन्होंने यह कर दिया तो फ़लस्तीनियों की नस्लें तुर्क क़ौम को माफ़ नहीं करेंगी.

इसके अलावा इतिहास इस बात का भी गवाह है कि जब आंदालुसिया में मुसलमानों की शक्ति समाप्त हो गई और वहां पर मुसलमानों के साथ-साथ यहूदियों की हत्याएं की जाने लगीं तो उस्मानिया हुकूमत के ख़लीफ़ा सुल्तान बायेज़िद ने तुर्की नौसेना के जहाज़ भेजकर हज़ारों की तादाद में यहूदियों को वहां से निकाला था.

बाद में यहूदी उस्मानिया सल्तनत के तहत आने वाले यूरोपीय और उत्तरी अफ़्रीका के इलाक़ों में न सिर्फ़ आबाद हुए बल्कि उस्मानिया सल्तनत के ऊंचे पदों तक पहुंचने में कामयाब हुए.

डॉक्टर इफ़्तिख़ार मुल्क के मुताबिक़, उन ऐतिहासिक तथ्यों के कारण ‘यहूदी आज भी अपने दिलों में तुर्कों के बारे में कहीं न कहीं हमदर्दी की भावना रखते हैं.’

तुर्की और इसराइल के संबंधों में उतार-चढ़ाव

तुर्की और इसराइल के बीच संबंधों में हमेशा फ़लस्तीन एक तरह केंद्र बिंदु बना रहा है. पहले भी तीन बार तुर्की इसराइल के साथ अपने राजनयिक संबंध निचले स्तर पर लाने या उन्हें ख़त्म करने की कोशिशें कर चुका है और हर बार इसके केंद्र में फ़लस्तीन ही रहा है.

सबसे पहले 1956 में जब स्वेज़ नहर के मुद्दे पर इसराइल ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन के बाद सिनाई रेगिस्तान में हमलावर हुआ तो तुर्की ने उस पर विरोध जताते हुए अपने राजनयिक संबंधों को घटा दिया था.

इसके बाद 1958 में उस वक़्त के इसराइली प्रधानमंत्री डेविड बेन गोरियान और तुर्की के प्रमुख अदनान मेंदरेस के बीच एक ख़ुफ़िया मुलाक़ात हुई और दोनों देशों के बीच रक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग स्थापित करने पर सहमति हुई.

1980 में इसराइल ने पूर्वी येरुशलम पर क़ब्ज़ा किया तो तुर्की ने दोबारा उसके साथ अपने राजनयिक संबंधों को घटा दिया. इस दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध ठंडे रहे लेकिन 90 के दशक में ओस्लो शांति समझौते के बाद दोनों देशों के बीच संबंध बहाल हो गए.

इस दौरान दोनों मुल्कों के संबंध जिसे ‘ज़बरदस्ती की शादी’ भी कहा जाता था वह बिना किसी उलझन के चलते रहे और इस दौरान पारस्परिक व्यापार और रक्षा क्षेत्र में सहयोग के कई समझौते भी हुए.

जनवरी 2000 में इसराइल ने तुर्की से पानी ख़रीदने का एक समझौता किया लेकिन यह समझौता ज़्यादा दिन नहीं चल सका. इसके बाद दोनों देशों के बीच कई रक्षा समझौते हुए जिनमें तुर्की को ड्रोन और निगरानी के उपकरण देना भी शामिल था.

रक्षा क्षेत्र में संबंधों के बनने की बड़ी वजह थी – तुर्की की रक्षा ज़रूरतें और इसराइल को अपना सामान बेचने के लिए ख़रीदार ढूंढना.

तुर्की में नवंबर 2002 में जब रिचैप तैय्यप अर्दोआन की दक्षिणपंथी जस्टिस एंड डिवेलपमेंट पार्टी (एकेपी) सत्ता में आई तो दोनों देशों के बीच संबंधों में नया मोड़ आना शुरू हुआ. 2005 में अर्दोआन ने इसराइल का दौरा भी किया और उस वक़्त के इसराइली प्रधानमंत्री एहुद ओलमर्त को तुर्की के दौरे की दावत दी.

दिसंबर 2008 में हालात ने एक और करवट ली और इसराइली प्रधानमंत्री शिमॉन पेरेज़ के अंकारा दौरे के तीन दिन बाद ही इसराइल ने ग़ज़ा में ‘ऑपरेशन कास्ट लेड’ के नाम से चढ़ाई शुरू कर दी.

हमास से हमदर्दी रखने वाले अर्दोआन को इसराइल की इस कार्रवाई से ज़बर्दस्त धक्का लगा और उसको ‘स्पष्ट रूप से धोखा’ क़रार दिया.

2010 में इसराइली फ़ौज की ग़ज़ा में घेराबंदी के दौरान मावी मरमरा की घटना हुई. तुर्की के एक मानवाधिकार संगठन की ओर से मावी मरमरा जहाज़ मानवीय सहायता लेकर जा रहा था जिस पर इसराइली फ़ौज ने धावा बोल दिया. इस घटना में 10 तुर्क नागरिक मारे गए थे.

इस घटना के बाद दोनों देशों के बीच संबंध ख़त्म हो गए.

अमेरिकी कोशिश

अमेरिका ने इस क्षेत्र में अपने दो मित्र देशों के बीच में तनाव को कम करने और राजनयिक संबंधों को बहाल कराने के लिए कोशिशें जारी रखीं.

इसके लिए अर्दोआन ने तीन शर्तें सामने रखीं जिनमें मावी मरमरा पर हमले के लिए माफ़ी मांगने, मारे गए लोगों को मुआवज़ा देने और ग़ज़ा की घेराबंदी समाप्त करने जैसी शर्तें शामिल थीं.

इसराइल के लिए सबसे बड़ी शर्त माफ़ी मांगना था और इसराइल भी तुर्की को हमास के कुछ नेताओं को देश से बाहर करने की मांग कर रहा था.

अमेरिकी कोशिशों के तहत ही 2013 में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अर्दोआन और इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के बीच फ़ोन पर बातचीत कराई. टेलिफ़ोन पर हुई बातचीत के दौरान नेतन्याहू माफ़ी मांगने और मारे गए लोगों के लिए मुआवज़ा देने को तैयार हो गए.

इसके बावजूद इस क्षेत्र में लगातार होने वाली घटनाओं के कारण दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने में देरी होती रही और आख़िरकार सन 2016 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहाल हो सके.




















BBC

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