31 मई 2022 | सत्ता पाने वाले नेताओं की सूची लम्बी है, पर सत्ता में टिक सकने वालों की छोटी। नरेंद्र मोदी इन टिकाऊ नेताओं की सूची के शीर्ष पर हैं। एक बार सत्ता पा लेने के बाद अपदस्थ न होने या चुनाव न हारने की उनकी काबिलियत गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में ही सामने आ गई थी। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद पूरे बारह साल तक एक बार भी नहीं सुना गया कि गुजरात भाजपा के भीतर उनका कोई प्रतिद्वंद्वी है या हो सकता है।
यह भी नहीं लगा कि वे चुनाव हार सकते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद से भी यही लग रहा है कि जिस तरह की निर्द्वंद्व राजनीति उन्होंने गांधीनगर में बैठकर की थी, वैसी ही या उससे भी प्रभावी वे दिल्ली में कर रहे हैं। सत्ता में टिकाऊपन के कारणों की जांच के लिए जरूरी है उन संकटों का जायजा लिया जाए, जिनका मोदी ने पिछले आठ सालों में सामना किया।देखना यह चाहिए कि उन संकटों से हो सकने वाले नुकसान को उन्होंने कैसे भांपा। जब एक बार उस नुकसान की डिग्री का उन्हें एहसास हो गया तो उन्होंने क्या कदम उठाया। मेरा विचार है कि मोदी ने पिछले आठ साल में अपनी और अपनी सरकार की छवि को कम से कम तीन बार बड़ा कोर्स-करेक्शन करके अर्थात अपनी रीति-नीति में तब्दीली करके बचाया है।
पहला मौका सत्ता सम्भालने के साल भार बाद उस समय आया था, जब भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पांचवीं बार लाने या न लाने के बीच का फैसला करने की चुनौती थी। सरकार अध्यादेश को संसद के जरिए कानून में बदलने की स्थिति में नहीं थी। बार-बार अध्यादेश जारी करना पड़ रहा था। इसके खिलाफ जबरदस्त आंदोलन के हालात बन रहे थे।आरोप था कि सरकार इस अध्यादेश के जरिए पूंजीपतियों की एजेंटी कर रही है। मोदी ने इस परिस्थिति को भांपा और लाभ-हानि का अंदाजा लगाने के बाद अगस्त 2015 में अध्यादेश न लाने का फैसला किया। अगर वे ऐसा न करते हो सकता है अपने शासनकाल की शुरुआत में ही उन्हें एक बड़े जनांदोलन का सामना करना पड़ता।
दूसरा मौका तब आया जब बराक ओबामा से भेंट करते समय उनके खास तरह के सूट पर कटाक्ष करते हुए राहुल गांधी ने उनकी सरकार को ‘सूट-बूट की सरकार’ करार दिया। यह फिकरा उस समय बहुत चर्चित हुआ। मोदी को लगा अगर यह चल निकला तो उनकी छवि अमीरों के नुमाइंदे की बन जाएगी। इसके बाद मोदी ने अपनी छवि के पुनर्निर्माण पर योजनाबद्ध तरीके से काम किया।फिर जिस मोदी का राष्ट्रीय मंच पर आगमन हुआ, वह गरीबों का सेवक और पिछड़े समाज का पुत्र था। आज सूट-बूट की सरकार को लोग भूल चुके हैं। तीसरा और सबसे बड़ा संकट उस समय आया, जब एक साल से ज्यादा चलने वाले किसान आंदोलन ने मोदी के सामने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने या न लेने का विकल्प रखा।
मोदी के आलोचक और प्रशंसक, दोनों इस बात पर सहमत थे कि मोदी किसी भी कीमत पर कानूनों को वापस नहीं लेंगे। लेकिन मोदी ने लम्बे अरसे तक चली समझौता-वार्ता के दौरान राजनीतिक प्रबंधन की सभी कोशिशों के नाकाम होने पर आकलन किया कि यह आंदोलन उनकी पार्टी का बड़ा नुकसान कर सकता है। भाजपा के विरोध में बड़े किसान समुदायों की चुनावी बगावत की नौबत आ सकती है। मोदी ने कानून वापसी करके सभी को चकित कर दिया। आज हमारे पास सिंहावलोकन करने का मौका है कि अगर मोदी ने ऐसा न किया होता और आंदोलन के साए में यूपी चुनाव होते तो योगी सरकार के खिलाफ 39 फीसदी की एंटी-इन्कम्बेंसी 50 फीसदी के ऊपर जा सकती थी।
अब मोदी के सामने चौथी चुनौती है, जिसकी पहचान अभूतपूर्व आर्थिक संकट के रूप में की जा सकती है। बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी, निवेश की किल्लत, बाजार में मांग का अभाव, आमदनियों में गिरावट, निर्यात में कमी, अनौपचारिक क्षेत्र का ध्वंस और सबसे बड़ी बात, इस संकट की दीर्घकालिक संरचना। सवाल यह है कि कौन-सा ‘कोर्स करेक्शन मोदी को इस संगीन संकट से बचा सकता है? यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है। उन संकटों का जायजा लें, जिनका मोदी ने आठ सालों में सामना किया। देखें उनसे हो सकने वाले नुकसान को उन्होंने कैसे भांपा। और जब उस नुकसान की डिग्री का उन्हें एहसास हो गया तो उन्होंने क्या कदम उठाया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Source;- ‘’दैनिकभास्कर’’