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बापू का सपना क्यों रह गया अधूरा ? बनना चाहते थे डॉक्टर, बन गए बैरिस्टर…

ByPrompt Times

Oct 3, 2024
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महात्मा गांधी हमेशा से बैरिस्टर नहीं बनना चाहते थे. उन्होंने डॉक्टर बनने का सपना देखा था, लेकिन वो सपना कभी पूरा नहीं हो सका. बापू की जयंती पर आइए जान लेते हैं इससे जुड़ा किस्सा.

 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर पूरा देश उनको पूरी श्रद्धा के साथ याद कर रहा है. लंदन में वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद दक्षिण अफ्रीका में झंडे गाड़ रहे बापू को वहीं से आजादी की भूख जगी और स्वदेश लौटकर आखिरकार अंग्रेजों को देश से भगाकर ही जन्म लिया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि बापू किसी समय में वकील बनना ही नहीं चाहते थे? उनका सपना तो डॉक्टर बनने का था, फिर ऐसा क्या हुआ कि उनको बैरिस्टर बनना पड़ा? बापू की जयंती पर आइए जान लेते हैं इससे जुड़ा किस्सा.

 

दो अक्तूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे बापू को सेहत से कितना लगाव था, ये तो हम सभी जानते हैं. योग, ध्यान और प्राकृतिक चिकित्सा से रोगों को दूर करने के लिए वह नित्य नए प्रयोग करते रहते थे.हालांकि, इस बात से कम ही लोग वाकिफ होंगे कि वह जब 18 साल के हुए तो मेडिसिन की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने की इच्छा जताई पर घर वालों से इसकी अनुमति नहीं मिली.

भावनगर कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.

दरअसल, बापू ने शुरुआती पढ़ाई पोरबंदर में ही की थी. इसके बाद नौ साल की उम्र में राजकोट चले गए, जहां की रियासत में पिता करमचंद गांधी दीवान थे. वहां 11 साल की उम्र में उनका दाखिला अल्फ्रेड हाईस्कूल में कराया गया. हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद गांधी ने आगे की पढ़ाई के लिए भावनगर के सामलदास महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, पर उनको वहां का माहौल पढ़ाई के अनुकूल नहीं लग रहा था. इसलिए वह पढ़ाई बीच में छोड़कर राजकोट लौट गए. बताया जाता है कि बापू अंग्रेजी विषय में काफी अच्छे थे पर उनकी हैंडराइटिंग बहुत खराब थी. अंकगणित की पढ़ाई में ठीकठाक ही थे और भूगोल तो उनको बिलकुल पसंद नहीं था.

 

बड़े भाई ने यह कहकर किया था मना

इसी बीच साल 1885 में उनके पिता का देहांत हो गया. यह साल 1888 की बात है. महात्मा गांधी ने इच्छा जताई कि वह डॉक्टर बनना चाहते हैं और इसके लिए इंग्लैंड जाकर पढ़ाई करना चाहते हैं. इस पर बापू के बड़े भाई ने कहा कि अगर पिताजी जिंदा होते तो ऐसा कभी नहीं करने देते. चूंकि महात्मा गांधी वैष्णव थे इसलिए मृत शरीरों के साथ वह कुछ नहीं कर सकते. बड़े भाई ने कहा कि पिताजी कहते थे कि बीमारी इंसान के अपने पापों का नतीजा होती है. जो पाप करता है, उसको भुगतना ही पड़ता है. तर्क था कि अगर आप जरूरत से ज्यादा खाएंगे तो अपच होगा. इसके इलाज के लिए उसे व्रत रखना पड़ेगा जो उसे याद दिलाता रहेगा कि कभी जरूरत से ज्यादा नहीं खाना है. इसकी जगह पर भाई ने सलाह दी कि उन्हें बैरिस्टर की पढ़ाई करनी चाहिए.

इंग्लैंड जाने से पहले राह में थे कई मुश्किल 

महात्मा गांधी को भी बड़े भाई का सुझाव काफी पसंद आया और वह बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन जाने को तैयार हो गए. इस बार सामने आ गईं मां पुतलीबाई. उनका कहना था कि विदेश जाकर उनका बेटा शराब और मांस का सेवन करने लगेगा. इस पर बापू ने मां से वादा किया कि वह विदेश जाकर मांस, शराब और स्त्री को हाथ नहीं लगाएंगे.

बेटे के इस वादे पर मां मान गईं और इंग्लैंड जाने के लिए महात्मा गांधी मुंबई (तब बॉम्बे या बंबई) पहुंचे. अब महात्मा गांधी के सामने एक नई समस्या खड़ी हो गई. यह जानकर कि वह पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जा रहे हैं, उनकी जाति के लोगों ने उनको जाति से निकाल देने की धमकी दे डाली. उनका मानना था कि विदेश जाने पर व्यक्ति दूषित हो जाता है. इसके बावजूद गांधी अपने और परिवार के फैसले पर अड़े रहे. इसके कारण उनको जाति निकाला मिल गया.

जाति से निकाल दिए गए थे बापू

जाति से निकाले जाने का कोई असर महात्मा गांधी पर नहीं पड़ा और वह 4 सितंबर 1888 को आखिरकार साउथेंपटन के लिए रवाना हो गए. इंग्लैंड पहुंचने के बाद उन्होंने लंदन के जाने-माने यूनिवर्सिटी कॉलेज में एडमिशन लिया. वहां से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद इनर टेम्पल के इन्स ऑफ कोर्ट स्कूल ऑफ लॉ में भी एडमिशन लिया और 1891 में वह बैरिस्टर बन गए, फिर भी वहां प्रैक्टिस नहीं की.

इंग्लैंड में पढ़ाई पूरी करने के बाद बापू राजकोट लौटे और कुछ दिनों तक यहां प्रैक्टिस करते रहे. इसके बाद उन्होंने बॉम्बे में वकालत की शुरुआत करने का फैसला किया. वहां वह खुद को स्थापित नहीं कर पाए और राजकोट लौट गए, जहां वकालत शुरू की.

एक सूचना के बाद ठाना, अब नहीं बनना डॉक्टर

बताया जाता है कि वकालत के दौरान भी बापू कई बार सोचते थे कि लंदन जाकर मेडिसिन की पढ़ाई कर ली जाए. हालांकि, बाद में उन्होंने अपने एक दोस्त को चिट्ठी लिखी कि सुना है कि कुछ डॉक्टरों ने मेडिसिन की पढ़ाई के दौरान 50 मेढकों को मार डाला है. अगर ऐसा है तो वह डॉक्टर नहीं बनना चाहते, क्योंकि न तो वह मेढकों की चीरफाड़ करना चाहते हैं और न ही उनकी हत्या.

साल 1893 में दादा अब्दुल्ला नाम के एक व्यापारी के कानूनी सलाहकार के रूप में काम करने के लिए महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका के डरबन जाने का मौका मिला. वहां भारतीयों और अफ्रीकियों के साथ अंग्रेज भेदभाव करते थे. इसका सामना उनको भी करना पड़ा. एक दिन डरबन की एक कोर्ट में जज ने उनको अपनी पगड़ी उतारने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और कोर्ट छोड़कर चले गए.

फिर आई 31 मई 1893 की वह घड़ी जब ट्रेन का फर्स्ट क्लास का टिकट लेकर प्रिटोरिया जा रहे महात्मा गांधी को उतार दिया गया. भीषण सर्दी में महात्मा गांधी स्टेशन के वेटिंग रूम में ठिठुरते-ठिठुरते ठान बैठे कि भारतीयों के साथ हो रहे जातीय भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करेंगे. यहीं से उनके अहिंसक आंदोलन सत्याग्रह की शुरुआत हो गई.

 

SOURCE –  PROMPT TIMES


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