• May 25, 2024 2:32 pm

सत्ता की बारी आते ही साइडलाइन कर दिए गए सिंधिया, पायलट, प्रीतम; अब पंजाब में अमरिंदर पर दांव

12 अप्रैल 2022 | चुनाव में वोट बटोरने के लिए कांग्रेस युवा चेहरों पर भरोसा करती है। उन्हें आगे भी बढ़ाती है, लेकिन जिन दमदार चेहरों की बदौलत पार्टी सत्ता में वापसी करती है, उन्हें ऐन मौके पर साइडलाइन कर दिया जाता है। आंध्र में जगन मोहन रेड्‌डी हों, MP में ज्योतिरादित्य सिंधिया हों, राजस्थान में सचिन पायलट या फिर उत्तराखंड में प्रीतम सिंह… कांग्रेस में यह ट्रेंड लगातार देखने में आ रहा है।

कांग्रेस आला कमान ने एक बार फिर कुछ ऐसा ही दांव पंजाब में खेला है। तीसरी बार के विधायक और 45 साल के अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग को पंजाब कांग्रेस का प्रधान बनाया गया है। सवाल उठ रहे हैं कि 2027 में यदि सत्ता में वापसी होगी तो क्या कांग्रेस राजा वड़िंग पर भरोसा जताएगी। हालांकि, इससे पहले पार्टी की अग्नि परीक्षा गुजरात, हिमाचल, कर्नाटक और अन्य चुनावी राज्यों में होने जा रही है।

आइए बताते हैं कि युवाओं को सत्ता से दूर करने का कांग्रेस को किस तरह से नुकसान उठाना पड़ा है…

पंजाब में कांग्रेस प्रधान अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग को बनाया गया है। दिल्ली में उन्होंने पार्टी के नेताओं के साथ राहुल गांधी से मुलाकात की।

पंजाब में कांग्रेस प्रधान अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग को बनाया गया है। दिल्ली में उन्होंने पार्टी के नेताओं के साथ राहुल गांधी से मुलाकात की।

आंध्र प्रदेश: सितंबर 2009 में आंध्र प्रदेश के CM वाईएसआर रेड्‌डी का निधन हो गया था। उसके बाद कांग्रेस के ज्यादातर विधायकों ने उनके बेटे जगन मोहन रेड्‌डी को CM बनाने की मांग की थी, लेकिन आलाकमान ने विधायकों की मांग को ठुकरा दिया था।

15 महीने बाद जगन मोहन रेड्‌डी ने अलग पार्टी बनाई, जिसका नतीजा रहा कि 2014 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार हुई। आंध्र में तेलुगू देशम पार्टी की वापसी हुई। हालांकि, जगन रेड्‌डी ने अपना संघर्ष जारी रखा।

2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में जगन की पार्टी वाईएसआर ने सत्ता में वापसी करते हुए सरकार बनाई। अब कांग्रेस के लिए आंध्र में अपना पैर जमाना मुश्किल हो रहा है। अगर जगन मोहन रेड्‌डी को स्वीकार कर लिया होता तो आज शायद आंध्र में कांग्रेस की स्थिति कुछ और ही होती।

मध्य प्रदेश : कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बनाया था, जबकि कमलनाथ को PCC चीफ की कमान दी गई थी। चुनाव के बाद सत्ता की कमान कमलनाथ को दी गई, जबकि बाद में चलकर सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों की अपनी ही पार्टी और सरकार में उपेक्षा होने लगी।

इसका नतीजा रहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मध्य प्रदेश में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। बाद में मजबूर होकर सिंधिया ने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर BJP ज्वाइन कर ली। इसका नतीजा ये हुआ कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिर गई। महज सवा साल बाद ही मध्य प्रदेश में BJP की वापसी हो गई।

राजस्थान : CM अशोक गहलोत के चेहरे पर 2013 में कांग्रेस बुरी तरह हारी थी। पार्टी के 21 विधायक ही जीतकर विधानसभा पहुंचे। उसके बाद गांधी परिवार ने कांग्रेस को मजबूत करने के लिए 35 साल के युवा सचिन पायलट को राजस्थान में लॉन्च किया। कांग्रेस ने पायलट को पांच साल तक फ्री हैंड दिया। पायलट बीजेपी की वसुंधरा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले रखा।

पायलट के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता तक पहुंची, लेकिन जब मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो हाईकमान ने पायलट को किनारे कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राज्य की सभी 25 सीटें हार गई, लेकिन विवाद नहीं थमा।

सत्ता में पहुंचाने वाले पायलट और उनके समर्थक विधायकों को SOG और ACB ने नोटिस देना शुरू कर दिया। इसके चलते राजस्थान में सियासी संकट भी खड़ा हुआ। पायलट अपने समर्थक विधायकों को लेकर दिल्ली पहुंच गए थे, लेकिन अब तक गहलोत-पायलट संघर्ष खत्म नहीं हो पाया।

उत्तराखंड : उत्तराखंड में हरीश रावत के नेतृत्व में 2017 में कांग्रेस बुरी तरह हारी थी। उसके बाद प्रीतम सिंह को PCC चीफ बनाया गया, लेकिन जैसे ही लगा कि कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सकती है, प्रीतम को PCC चीफ से हटा दिया गया। उन्हें नेता प्रतिपक्ष की कमान दी गई। खुद का चेहरा घोषित कराने के लिए रावत दिल्ली पहुंचे। आला कमान ने संकेत किया कि रावत के नेतृत्व में ही चुनाव होंगे।

इसका नतीजा ये रहा कि रावत और प्रीतम गुट के बीच संघर्ष तेज हो गया। 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को लगातार दूसरी बार करारी हार का सामना करना पड़ा। प्रीतम अपनी सीट तो बचा ले गए, लेकिन हरीश रावत अपनी सीट से भी हार गए। इसके बावजूद उत्तराखंड कांग्रेस में हरीश रावत का ही दबदबा कायम है।

वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई का कहना है, “इंदिरा गांधी रही हों या वर्तमान में नरेंद्र मोदी या अरविंद केजरीवाल जैसे नेता, सभी एक लीडरशीप मॉडल तय करते हैं, लेकिन राहुल गांधी ने ऐसा कुछ नहीं किया। उनमें विरोधाभास नजर आता है। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इस वजह से कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों को नुकसान होता है।

UPA सरकार में नए लोगों को मंत्री बनाया गया था, लेकिन अलग-अलग राज्यों में उन्हें प्रोजेक्ट नहीं किया गया। MP में सिंधिया, राजस्थान में पायलट पर दांव न खेलकर कांग्रेस ने अपना नुकसान कर लिया। प्रोजेक्शन होना चाहिए। AICC सत्र में इस पर चर्चा होनी चाहिए। उसमें पार्टी को और इनपुट मिलेंगे। तब पूरा दारोमदार राहुल गांधी पर नहीं आएगा।”

चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख का कहना है, “कांग्रेस पार्टी इनसिक्योरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रसित है। सोच ये है कि पार्टी में जो भी युवा चेहरा सफल होगा वो नेहरू-गांधी परिवार के बच्चों के लिए खतरे की तरह नजर आएगा। लोगों को तब तक आगे नहीं बढ़ाया जाएगा, जब तक गांधी परिवार 200 फीसदी आश्वस्त न हो जाए कि ये उनके लिए किसी तरह का खतरा नहीं बनेंगे।

पार्टी में जो पुराने चेहरे नजर आते हैं, उनकी जमीन पर खास हैसियत नहीं होती। वे उसी गुट के होते हैं, जो पूरी तरह से परिवार के सामने सरेंडर होते हैं। जहां तक बात युवा या दरकिनार नेताओं की है, तो जिन्हें आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिलेगा वो दूसरे दलों में संभावनाएं तलाशेंगे ही। बात विनेबिलिटी की है। इलेक्टोरल राजनीति में जो जिताने की क्षमता रखते हैं, उन्हें पार्टी में बढ़ावा मिलना चाहिए।”

Source;- ‘’दैनिक भास्कर’’

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