मोतिहारी। 80 के दशक की एक शाम! 7.30 बजे हैं। केरोसिन के सहारे मद्धिम लालिमा वाले लौ के साथ लालटेन अंधेरों को चीरने का काम कर रही है। आसपास दर्जनों की संख्या में बैठे लोग। सभी को एक खास आवाज का इंतजार है। तभी रेडियो से एक जानी पहचानी आवाज आती है। ये आकाशवाणी पटना है, अब आप आनंद कुमार से समाचार सुनिए। आज भले ही यह किस्सा लगता है, लेकिन कभी यह हकीकत हुआ करता था। गांव हो या शहर, सूचना व मनोरंजन के लिए रेडियो ही एकमात्र श्रोत था।
बता दें कि 13 फरवरी को विश्व रेडियो दिवस मनाया जाता है। इंटरनेट के इस युग मे भले ही रेडियो श्रोताओं की संख्या में कमी आई है, लेकिन आज भी इसके दीवानों की संख्या बहुतायत में है। उन्हें इंटरनेट व टीवी से ज्यादा रेडियो भाता है। बिना लाइसेंस रेडियो कार्यक्रमों को सुनना माना जाता था अपराध
एक दौर वह भी था जब रेडियो खरीदने व सुनने के लिए लाइसेंस की जरूरत होती थी। इसका लाइसेंस डाक विभाग द्वारा जारी किया जाता था। बताते हैं कि घरेलू रेडियो के लिए 15 और कॉमर्शियल रेडियो के लिए 25 रुपये प्रतिवर्ष लाइसेंस शुल्क लगता था। हर साल डाक विभाग में शुल्क देकर पासपोर्ट की तरह इसका भी नवीनीकरण कराना होता था। उस दौर में बिना लाइसेंस के रेडियो कार्यक्रमों को सुनना कानूनी अपराध माना जाता था। जिसमें आरोपी को वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के अंतर्गत दंडित किए जाने का प्रावधान था। प्रतिवर्ष लगने वाले लाइसेंस शुल्क को 80 के दशक में खत्म कर दिया गया। दूरदर्शन के आगाज के बाद भी कायम रहा रेडियो का जादू
स्थानीय एमएस कॉलेज से सेवानिवृत्त प्रो. टीएन दुबे बताते हैं कि 80 के ही दशक में दूरदर्शन का आगाज हुआ। रामानंद सागर कृत रामायण और बीआर चोपड़ा के महाभारत ने दर्शकों के दिलो पर खूब राज किया। रामानंद सागर के रामायण ने टेलीविजन को लोकख्याति प्रदान की और बीआर चोपड़ा के महाभारत ने उसे घर-घर, झोपड़ी-मोहल्ले तक पहुंचा दिया। तब हिदी समाचार जगत में अखबार और रेडियो के अलावा दूरदर्शन ने भी जगह बना ली। हालांकि इसके बावजूद भी रेडियो की महत्ता बरकरार रही।