- आदिवासी बहुल बस्तर की हस्तशिल्प कला जितनी उन्नात है उतना उन्नात बाजार यहां के हुनरमंद हाथों को अब तक नहीं मिल पाया है।
14-जून-2021 | आदिवासी बहुल बस्तर की हस्तशिल्प कला जितनी उन्नात है उतना उन्नात बाजार यहां के हुनरमंद हाथों को अब तक नहीं मिल पाया है। यहां के सिद्धहस्त शिल्पकारों की बनाई कलाकृतियां जब बस्तर से बाहर बड़े शहरों और महानगरों में बेचने के लिए ले जाई जाती हैं तो वहां इन्हें दूधिया रोशनी से चमचमाती दुकानों के बड़े-बड़े शोरूम में आकर्षक ढंग से सजाकर प्रदर्शित किया जाता है। खरीददार भी मुंह मांगी कीमत दे जाते हैं। इसके ठीक उलट स्थिति बस्तर में हैं। यहां ग्रामीण अंचल के हाट बाजारों में बेलमेटल से निर्मित कलाकृतियां हों या फिर कौड़ी जड़ित परिधान, काष्ठशिल्प अथवा लौह शिल्प, हाट बाजार में जमीन पर दुकान सजाकर बेचने को शिल्पकार मजबूर हैं।ऐसा दृश्य आज ही देखने को मिल रहा है ऐसा भी नहीं है। पहले भी हाट बाजारों में हस्तशिल्प की दुकानें सजती थी और आज भी वैसा ही नजारा है। शासन-प्रशासन और हस्तशिल्प बोर्ड की ओर से हस्तशिल्प के विपणन और हस्त शिल्पकारों के कल्याण की बातें बहुत हुई पर कलाकृतियों का उचित दाम दिलाने की बात हो या उपयुक्त बाजार दोनों ही मामलों में वैसी सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद यहां के कलाकार सालों से करते आ रहे हैं। रविवार को नईदुनिया ने संजय मार्केट चौक पर सड़क किनारे बेलमेटल से निर्मित शिल्प और कौड़ी जड़ित परिधान की दुकान सजाकर बैठी कुछ महिलाओं से चर्चा की तो पता चला कि आज भी हाट बाजार ही इनके विक्रय के प्रमुख स्थान हैं। बेलमेटल की कलाकृतियां बेचने पहुंची तोकापाल के इरिकपाल क्षेत्र की मीना ने बताया कि शिल्पकारों की यह विवशता ही है कि दिन भर हाट बाजार में बैठकर सामान बेचें। जो लोग ऐसा नहीं कर सकते वे किलो के भाव में कलाकृतियों को बिचौलियों को बेच देते हैं, जो दुकानों में पहुंचाकर ऊंची कीमत हासिल कर लेते हैं। सावित्री बाई का कहना था कि बेलमेटल की कलाकृतियां आज भी पुरानी कलापद्धति से ही बनाई जाती हैं। इसमें काफी परिश्रम और समय दोनों लगता है लेकिन ग्राहकों को इसका पता नहीं होता और वे कम से कम कीमत पर खरीदने को लालायित रहते हैं। हस्तशिल्प ही जीविकोपार्जन का जरिया है इसलिए हम कलाकार भी चाहते हैं कि कारोबार में निरंतरता बनी रहे।
इरिकपाल की भनकीबाई कपड़ों में कौड़ी जड़ने में माहिर हैं। उनकी इसी हुनर ने उसे राज्य सरकार से हस्तशिल्प के कई पुरस्कार दिलाए हैं। भनकी की विवशता है कि कौड़ी जड़ित परिधान को खरीददार कौड़ी के मोल खरीदना चाहते हैं। भनकी की मानें तो कई बार ऐसा भी हुआ है कि बाजार में पूरा दिन गुजारने के बाद भी परिधान की बिक्री तक नहीं हुई। कलाकारों का कहना है कि पुरस्कार से नाम मिलता है पर पेट नहीं भरता। इसके लिए तो मेहनत करना ही पड़ता है। सब बाजार पर निर्भर है लेकिन कला के कद्रदानों की कमी है।
सिंधु घाटी हड़प्पा की कला संस्कृति की झलक है बेलमेटल में
विभिन्ना धातुओं को गलाकर मोम और मिट्टी के सांचे में डालकर भट्टी में पकाने के बाद तैयार होती है बेलमेटल की कलाकृति। बस्तर में बेलमेटल कलाकार पशु, पक्षी, देवी, देवता, नर-नारी आदि की कलाकृति ज्यादा बनाते हैं। हजारों साल पुरानी सिंधु घाटी और हड़प्पा कला संस्कृति की झलक इनकी बनाई कलाकृतियों में भी दिखाई देती है। इसका उल्लेख बेलमेटल हस्तशिल्प को लेकर किए गए अध्ययन में सालों पहले आ चुका है।
Source : “नईदुनिया”