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पुतिन के लिए आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष चुनौती है या मौक़ा

ByPrompt Times

Oct 3, 2020
पुतिन के लिए आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष चुनौती है या मौक़ा

1991 में सोवियत संघ टूटा और सभी 15 गणराज्य देश बन गए. रूस, सोवियत संघ का उत्तराधिकारी बन गया, यानी पहले जो हैसियत सोवियत संघ की थी, अब वो रूस की हो गई.

अब आज आर्मीनिया और अज़रबैजान झगड़ रहे हैं तो इसमें रूस की भूमिका दिलचस्प हो गई है क्योंकि उसके दोनों के साथ पुराने रिश्ते रहे हैं और अब भी हैं.

आर्मीनिया के साथ उसका सैन्य गठबंधन है और वहाँ उसका एक सैनिक ठिकाना है. लेकिन अपनी सीमा से सटे अज़रबैजान की सरकार से भी रूस की अच्छी बनती है.

इसमें सबसे दिलचस्प बात ये है कि आर्मीनिया और अज़रबैजान जिन हथियारों और सैनिक साज़ो सामान के साथ लड़ रहे हैं वो उन्होंने रूस से ही ख़रीदे हैं, यानी रूस दोनों ही को हथियार देता है.

यहाँ तक तो रूस के लिए परेशानी वाली कोई बात नहीं है. दोनों देश जितना लड़ेंगे, रूस का उतना ही फ़ायदा होगा. हालाँकि, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन साथ ही दोनों देशों से तत्काल लड़ाई बंद करने और दुश्मनी ख़त्म करने के लिये बयान भी जारी कर देते हैं, जो एक सामान्य सी कूटनीतिक रवायत होती है.

मगर पुतिन की पेशानी पर बल तब पड़ता है जब इस मामले में दूसरे देशों की एंट्री होती है, जैसे तुर्की. तुर्की खुलकर अज़रबैजान का समर्थन कर रहा है जो उसका पुराना दोस्त है और सैन्य मददगार.

आर्मीनिया-अज़रबैजान संकट में रूस की स्थिति

यहाँ तक ख़बरें आ रही हैं कि सीरिया से भाड़े के सैनिकों को तुर्की के रास्ते अज़रबैजान भेजा जा रहा है. हालाँकि तुर्की और अज़रबैजान दोनों इससे इनकार करते हैं.

मगर सीरियाई गृहयुद्ध पर नज़र रखनेवाली ब्रिटेन स्थित संस्था द सीरियन ऑब्ज़र्वेटरी फ़ॉर ह्यूमन राइट्स ने बताया है कि सीरिया से तुर्की की सिक्योरिटी कंपनियों ने 900 भाड़े के सैनिकों को अज़रबैजान पहुँचा भी दिया है.

आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष पर तुर्की के अलावा बाक़ी देशों की भी नज़र है. ईरान, जॉर्जिया और क़तर ने मध्यस्थता की पेशकश की है, तो सुरक्षा परिषद ने भी बैठक कर कहा है कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका मिन्स्क ग्रुप को निभानी चाहिए जिसकी अध्यक्षता फ़्रांस, रूस और अमरीका करते हैं.

आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच लड़ाई की वजह क्या है?

ओएससीई यानी ऑर्गेनाइज़ेशन फ़ॉर सिक्योरिटी एंड कोऑपरेशन इन यूरोप नामक संगठन ने 1992 में आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच मध्यस्थता के उद्देश्य से इस ग्रुप का गठन किया था.

उधर आर्मीनिया इसराइल से ये कहते हुए नाराज़ हो गया है कि वो अज़रबैजान को हथियार बेच रहा है. उसने इसराइल से अपने राजदूत को बुला लिया है.

ऐसे में सवाल उठता है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन अपने पड़ोस में जारी इस हलचल को लेकर कितने चिंतित, सावधान या सक्रिय होंगे?

घरेलू राजनीति पर पुतिन की पकड़

जानकारों का कहना है कि आर्मीनिया-अज़रबैजान या इस तरह के दूसरे अंतरराष्ट्रीय संघर्षों और कूटनीतिक मसलों पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन चिंतित भी होंगे और सक्रिय भी.

वैसे पुतिन के लिए रूस के भीतर कोई राजनीतिक चुनौती की स्थिति नहीं है. 67 वर्षीय नेता ने पिछले 20 सालों से या तो प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के रूप में रूस की सत्ता अपने हाथों में ले रखी है.

उनका मौजूदा कार्यकाल 2024 में ख़त्म हो जाता, मगर उन्होंने इस जून-जुलाई में जनमत संग्रह करवाकर ऐसा इंतज़ाम कर लिया है जिससे वो 2036 तक राष्ट्रपति बने रह सकते हैं.

इस जनमत संग्रह के तहत 2024 में उनका कार्यकाल शून्य से शुरू होगा, और इस तरह वो छह-छह वर्ष के और दो कार्यकाल में राष्ट्रपति बने रह सकते हैं. हालाँकि, उन्होंने ये नहीं कहा है कि वो दोबारा चुनाव लड़ेंगे, मगर ये ज़रूर कहा है कि अगर ऐसा विकल्प आता है तो ये करना ज़रूरी होगा.

वैसे रूस के एक स्वतंत्र चुनाव निगरानी समूह गोलोस ने इस जनमत संग्रह को ख़ारिज करते हुए इसे एक प्रचार कार्य या ‘पीआर एक्सरसाइज़’ बताया था.

मगर अभी की स्थिति में रूस की सत्ता पर पुतिन की पूरी पकड़ है, और आगे भी कोई समस्या नहीं दिख रही.

पुतिन और चुनौतियाँ

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार और दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में विश्लेषक हर्ष पंत कहते हैं कि देश के भीतर उनके सामने बड़ी मुसीबतें हैं और इसलिए वो अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का सहारा लेकर जनमानस का ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं.

हर्ष पंत कहते हैं,”वो जब से आए हैं तब से ये दिखाने की कोशिश करते रहे हैं कि रूस एक विश्व शक्ति है. लेकिन रूस की अंदरूनी हालत बहुत ख़राब है. पिछले कुछ महीनों का डेटा देखें तो वहाँ काफ़ी आर्थिक गिरावट हुई है. तो उसे लेकर देश में उनकी आलोचना बढ़ रही है.”

हर्ष बताते हैं कि रूस ही नहीं ऐसे सारे देशों में जहाँ प्रभुत्ववादी या ऑथोरिटेरियन नेताओं के हाथ में सत्ता है, उनके सामने जब भी घरेलू मोर्चे पर कोई ऐसी स्थिति आती है तो वो बाहर के संकटों के ज़रिए अपनी पकड़ मज़बूत बनाने की कोशिश करते हैं.”

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रूसी अध्ययन विभाग में प्राध्यापक राजन कुमार बताते हैं कि अभी आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष को लेकर राष्ट्रपति पुतिन बहुत चिंतित होंगे.

वो कहते हैं,”पुराने सोवियत क्षेत्र में अगर कोई संघर्ष होता है तो वो बहुत चिंतित हो जाते हैं, वो हर हाल में उनको अमरीका, तुर्की या किसी भी तीसरी शक्ति से बचाने की कोशिश करते हैं.”

राजन कहते हैं कि पुतिन ये सोच रहे थे कि आर्मीनिया उनके नियंत्रण में है ही, और अज़रबैजान पर भी उनका अच्छा प्रभाव है, तो ये मामला बातचीत से सुलझवा देंगे, लेकिन बात बढ़ गई.

वो कहते हैं,” जिस दिन से तुर्की सक्रिय हुआ, फिर सीरियाई सैनिक पहुँचने लगे, फिर दूसरे देश भी इसमें सक्रिय हुए तो वो बहुत ज़्यादा चिंता में पड़ गए, क्योंकि जब तक बेलारूस, यूक्रेन, जॉर्जिया जैसे देश आपस में लड़ते हैं, वो परेशान नहीं होते, मगर जैसै ही कोई तीसरा पक्ष आता है वो चिंतित हो जाते हैं.”

हालाँकि राजन कुमार का मानना है कि ये संघर्ष बहुत ज़ोर नहीं पकड़ेगा क्योंकि रूस और तुर्की के संबंध फ़िलहाल अच्छे हैं.

वो कहते हैं कि तुर्की में 2016 के गुलेन विद्रोह के समय अर्दोआन की सरकार पुतिन की वजह से ही बच पाई थी.

वहीं नेटो के साथ भी तुर्की के संबंध अभी अच्छे नहीं हैं, तो उससे भी वो रूस के करीब आ गया है.

विश्व नेता बनने की चाह

जानकारों का कहना है कि अभी पुतिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपनी भूमिका को लेकर बहुत मज़बूती से आगे खड़े दिखाई देंगे.

हर्ष पंत कहते हैं,”वो ये दिखाना चाह रहे हैं कि रूस में अभी भी इतनी ताक़त है कि वो अपने आस-पास, ख़ास तौर से जो रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, वहाँ बाहर की ताक़तों को जमने से रोक सकता है.”

राजन कुमार कहते हैं कि पुतिन जानते हैं कि वो इन संकटों को एक अवसर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं.

उन्होंने कहा,”चाहे सीरिया हो, ईरान हो, अज़रबैजान हो या अफ़ग़ानिस्तान हो, उनको पता है कि बिना रूस को साथ लिए इनमें से किसी भी संघर्ष में बातचीत आगे नहीं बढ़ सकती है.”

राजन बताते हैं,”पुतिन एक शानदार प्लानर हैं, ख़ास तौर से रणनीति के मामले में, वो काफ़ी प्लान करके काम करते हैं, आप इसी से समझ जाएँ कि वो आर्मीनिया को भी हथियार बेचते हैं, अज़रबैजान को भी; भारत को भी हथियार देते हैं, चीन को भी; ईरान को भी देते हैं, सऊदी अरब को भी. वो तब तक परेशान नहीं होंगे जब तक इन इलाक़ों में रूस का प्रभाव बना रहेगा. मगर कोई और दख़ल देता है, तो उनके लिए बोलना उनकी साख का सवाल बन जाता है.”





















BBC

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