03 मई 2022 | मेरी सारी शिक्षा इंग्लिश मीडियम से हुई, लेकिन जब जॉब में आई तो समझ आया कि जिस तरह की अंग्रेजी मैंने स्कूल या कॉलेज के सिलेबस में पढ़ी, उसका जॉब मार्केट से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं था।
जॉब इंडस्ट्री में जो इंग्लिश चाहिए उसके लिए कभी किसी ने तैयार नहीं किया, इस बात पर हताशा और निराशा भी हुई। मैंने भी कमर कस ली और अपनी अंग्रेजी के स्तर को दुरुस्त किया। आज इंग्लिश की बदौलत ही इंटरनल कम्युनिकेशन एडवाइजर हूं। ये शब्द हैं दिल्ली की अनुपमा गर्ग के।
नौकरी में पहली दिक्कत बनी अंग्रेजी
अजमेर में पली-बढ़ी अनुपमा वुमेन भास्कर से बातचीत में कहती हैं, ‘नौकरी के लिए जब दिल्ली आना हुआ तब मुझे बहुत अजीब लगा कि इंग्लिश मीडियम से होते हुए, अच्छा लिखते हुए भी मुझे इंग्लिश की वजह से जॉब में इतनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अपनी अंग्रेजी का स्तर सुधारने के लिए बहुत मेहनत की।
इंग्लिश में जितना पढ़ सकती थी, पढ़ा। जो पढ़ती उसे लिखती, मैनेजर्स और टीचर्स से सीखती, उनका उच्चारण ध्यान से सुनती। शुरू-शुरू में कोचिंग में पढ़ा कर भी भाषा को और बेहतर किया। कहते हैं भाषा सीखने की चीज है, रटने की नहीं। इसे जितना प्रैक्टिस करोगे, यह उतनी बेहतर होगी। मैंने उसी नियम को अपनाया।
अपनी भाषा दुरुस्त कर दूसरों की मदद में जुटी
अपने साथ-साथ मैं ऑफिस में उन कलिग्स को भी देखती जो हिंदी मीडियम से थे, उनके अंग्रेजी को लेकर डर सुनती और जब गांव वापस जाती तो लोगों से सुनती कि हमें आपकी जैसी इंग्लिश करनी है। वहां बच्चों की इंग्लिश अच्छी न होने की वजह से नौकरियां मिलने में दिक्कत आ रही थी। अजमेर में मुझे प्लेसमेंट ट्रेनिंग देने का मौका मिला। तब समझ आया कि लोगों को ट्रेनिंग से ज्यादा मेंटल ब्लॉक खोलने की जरूरत है।
जो अंग्रेजी हम सीखते हैं, उसको वर्किंग क्लास के लिए कैसे मददगार बनाया जाए, मेरा यही फोकस था। मैं बीए, एमए इन इंग्लिश और एमबीए कर चुकी थी। अब तक मेरे पास अलग-अलग प्रोफेशन के अनुभव थे। मुझे यह समझ आ गया था कि लोगों को क्या सीखाना है और मार्केट में जरूरत किसकी है। लोग जो सीख रहे हैं और इंडस्ट्री में चाहिए, इसके बीच का गैप खत्म करना ही मेरा काम बन गया।
फेसबुक पोस्ट से की शुरुआत
शुरू में फेसबुक पर इंग्लिश में पोस्ट डालने शुरू किए। इस बीच मेरी कॉरपोरेट की नौकरी चलती रही। फेसबुक से लिंक्डिन, वॉट्सऐप ग्रुप्स और इंस्टाग्राम तक ये सफर पहुंचा, लेकिन अभी तक सबकुछ मैं शौकिया तौर पर कर रही थी। जब इंग्लिश सीखने वालों की कतार बढ़ने लगी और लोग यह कहने लगे कि हमें इन पोस्ट्स से फायदा हो रहा है तो मुझे लगा कि अब कुछ सीरियस सोचा जाए और इस इंग्लिश की सीढ़ी को आगे बढ़ाया जाए, क्योंकि इसकी मांग थी।
कोविड के दौरान जब लॉकडाउन हुआ तब मैंने कई इंस्टीट्यूट्स की वेबसाइट तलाशी तो देखा कि वे शॉर्ट टर्म कोर्सेज की भी बहुत फीस लेते हैं। मुझे लगा कि मुझे जितनी मेहनत, खर्च, और अनुभव के बाद बहुत अच्छी अंग्रेजी आई है, उससे बाकी सीखने वालों को कैसे फायदा मिल सकता है? इसलिए मैंने पहले वर्कशॉप्स की, पेड बैचेस और फिर क्लासेज कीं। इसके बाद मुझे समझ आया कि बहुत से लोगों को क्लास टाइमिंग्स, फीस और इतनी ज्यादा पढ़ाई के लिए समय नहीं मिलता।
एक्टिव लर्निंग के लिए बनाई कम्युनिटी
फिर मैंने ऐसी कम्युनिटी बनाई, जहां सभी इंग्लिश बोल, सुन और प्रैक्टिस कर सकते हैं। यहां कोई किसी को जज नहीं करता और कोई किसी की भाषा पर हंसता नहीं है। मैंने टेलिग्राम पर ग्रुप बनाया और वहां हिंदी से अंग्रेजी सीखाती हूं। जो एक्सरसाइज स्टूडेंट्स को मिलती है, वे उस पर अपने फीडबैक भेजते हैं और फिर उस पर डिस्कशन होता है। इस डिस्कशन से हम रोज सीखते हैं।
ई-मेल, प्रपोजल ड्राफ्टिंग जैसे एग्जांपल से मैं वर्किंग प्रोफेशनल्स को इंग्लिश सीखाती हूं। इससे उन्हें सीखना आसान होता है, क्योंकि ये उनकी रोजमर्रा की जरूरत है। अगर मेरे पास हाउसवाइफ हैं तो उनके लिए किट्टी पार्टी या उनकी जरूरत के अनुसार उदाहरण होते हैं। मैं एक दिन में बहुत सारा कंटेंट नहीं देती, थोड़ा देती हूं, जिससे वे खेल-खेल में इसे सीखें। बोझ समझकर नहीं।मुझे लगता है कि अंग्रेजी ही नहीं कोई भी भाषा सीखने के लिए सबसे बड़ा गुरु मंत्र है निरंतरता। थोड़ा-थोड़ा हर दिन सीख कर, बहुत कुशलता से अंग्रेजी सीखी जा सकती है। जैसे आज मैं कंटेंट, कम्युनिकेशन आदि में अंग्रेजी की वजह से अपना मुकाम बना पाई हूं, किताबें लिख पाती हूं, वैसे कोई भी लिख सके, यही मेरा सपना है।
Source;- ‘’दैनिक भास्कर’