16 नवम्बर 2021| ग्लासगो जलवायु समझौते में कोयले से जुड़े ‘फेज डाउन’ शब्द ने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया है। दरअसल, सम्मेलन में पेश मसौदे में सभी देशों को कोयले के इस्तेमाल के लिए फेज आउट (धीरे-धीरे खत्म करना) पर सहमति देनी थी लेकिन आखिरी पलों में भारत और चीन ने इसे अपनी जरूरतों के हिसाब से फेज डाउन (धीरे-धीरे कम करना) करा लिया। जानकार कह रहे हैं कि इससे जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर लगाम लगाने को लेकर समझौते के मायने बदल गए हैं।
समझिए, फेज डाउन से क्या फर्क आएगा
फेज डाउन का मतलब मौजूदा कोयला उत्पादन, निर्यात और नए प्लांटों को हरी झंडी मिलने जैसा है। लेकिन यह देखना होगा कि शाब्दिक परिवर्तन से चीन-भारत के कोयला इस्तेमाल में क्या बदलाव आएगा। इन दोनों देशों की कोयला रणनीति वैश्विक लक्ष्य पाने की दशा-दिशा तय करेगी।
कोयले से 77.5 फीसदी बिजली तीन देशों में
ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर के मुताबिक, इस वक्त चीन, भारत और इंडोनेशिया वैश्विक स्तर पर कोयले से बन रही 184.5 गीगावॉट में से 77.5 फीसदी बिजली बना रहे हैं। अकेला चीन 96.7 गीगावॉट उत्पादित कर रहा है। कुल मिलाकर कोयले पर निर्भरता हटाने वाले आखिरी देश चीन, भारत और इंडोनेशिया सरीखे ही होंगे।
फेज आउट का इंतजार व फेज डाउन से जोखिम बढ़ा
- हालांकि वैश्विक स्तर पर कोयला उत्पादन कम किए जाने के चलते इन देशों को आयात के बजाय घरेलू संसाधनों पर ही निर्भरता बढ़नी पड़ेगी।
- फिलहाल ईंधन में मांग चीन में ऊर्जा की कमी और भारत में लॉकडाउन के बाद बढ़ी आर्थिक गतिविधियों के कारण भी है। कुल मिलाकर फेज आउट की पैरवी करने वालों को थोड़ा लंबा इंतजार करना होगा।
- फेज डाउन का रास्ता पकड़ने वाले देशों को सहूलियत तो मिलेगी लेकिन जलवायु परिवर्तन पर जोखिम भी उतना ही बड़ा होगा।
Source :-“अमर उजाला”