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जो महिला इंटरनेशनल ब्रांड के लिए कपड़ा सिलती है उसे कितना मिलता है?

ByPrompt Times

Nov 20, 2020
जो महिला इंटरनेशनल ब्रांड के लिए कपड़ा सिलती है उसे कितना मिलता है?

सुपरमार्केट चेन मार्क्स एंड स्पेंसर, टेस्को, सेंसबरी और फ़ैशन ब्रांड रॉल्फ़ लॉरेन को आपूर्ति करने वाली फ़ैक्ट्रियों के भारतीय कर्मचारियों का कहना है कि उनका शोषण किया जा रहा है.

रॉल्फ़ लॉरेन को आपूर्ति करने वाली एक फ़ैक्ट्री में काम कर रही महिलाओं ने बीबीसी को बताया है कि काम पूरा करने के लिए उन्हें अक्सर फ़ैक्ट्री में ही रुकना पड़ता है और फ़र्श पर सोना पड़ता है.

एक महिला कर्मचारी ने बताया, “हमसे लगातार काम करवाया जाता है, अक्सर रात में भी, हम तीन बजे के क़रीब सोते हैं और सुबह पाँच बजे हमें फिर से पूरा दिन काम करने के लिए जगा दिया जाता है. हमारे बॉस को कोई चिंता नहीं है, उन्हें बस उत्पादन की परवाह है.”

बीबीसी कर्मचारियों की सुरक्षा के मद्देनज़र उनका या जहां वो काम करती हैं उन फ़ैक्ट्रियों का नाम जारी नहीं कर रही है.

सुपरमार्केट के सप्लायर के लिए काम करने वाले कर्मचारियों का कहना है कि जिन हालात में वो भारत में काम करते हैं उन हालात में ब्रिटेन में काम करना अस्वीकार्य होता.

एक महिला ने कहा, “हमें टॉयलेट जाने के लिए ब्रेक नहीं मिलता, हमें काम के दौरान पानी पीने तक का समय नहीं मिलता. भोजन करने का समय बमुश्किल मिल पाता है.”

इस महिला का कहना है कि कई बार जब वो कैंटीन में लंच कर रही होती हैं तो एक सुपरवाइज़र सीटी बजाता रहता है ताकि वो लोग जल्द से जल्द काम पर लौट जाएं.

एक अन्य कर्मचारी के मुताबिक़ उन लोगों से ज़बरदस्ती ओवरटाइम करवाया जाता है और जब तक काम पूरा नहीं हो जाता उन्हें घर नहीं जाने दिया जाता.

“उन्होंने हमारा काम बढ़ा दिया है, हमें देर तक रहकर काम पूरा करना होता है. ना करने पर वो हम पर चिल्लाते हैं और काम से निकाल देने की धमकी देते हैं. हम डरे हुए हैं, हम अपना काम छोड़ना नहीं चाहते हैं.”

कंपनियों ने चिंता जताई और जाँच के आदेश दिए

जिन चार ब्रांड के सप्लायरों की बीबीसी ने पड़ताल की है उनका कहना है कि वो इन आरोपों को लेकर चिंतित हैं और आगे जाँच करेंगे.

इन फ़ैक्ट्रियों में काम करने वाली ये महिलाएं दक्षिण भारत के ग्रामीण और पिछड़े इलाक़े में रहती हैं. एक्शन एड नाम की संस्था ऐसी ही 1200 से अधिक महिला कर्मचारियों के लिए काम करती है. ये महिलाएं पैंतालीस गांवों में रहती हैं.

एक्शन एड के मुताबिक़ इनसे ज़बरदस्ती ओवरटाइम करवाया जाता है, इन्हें गालियां दी जाती हैं और इनके काम करने के हालात बेहद मुश्किल हैं.

लेकिन इस तरह के आरोप सिर्फ़ कपड़ा उद्योग तक ही सीमित नहीं हैं. सस्ती मज़दूरी और कमज़ोर श्रम क़ानूनों की वजह से विदेशी ब्रांड भारतीय कर्मचारियों को काम आउटसोर्स करते रहे हैं. निजी सेक्टर में कर्मचारी यूनियनें हैं ही नहीं जिसकी वजह से निजी क्षेत्र में ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों का शोषण आसान हो जाता है. जाँच तो अनिवार्य होती है लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से क़ानून तोड़ने वाली फ़ैक्ट्रियां दंड से बच जाती हैं.

भारत कपड़ों का दूसरा सबसे बड़ा निर्माता और निर्यातक

लेकिन ध्यान कपड़ा उद्योग पर ही जाता है क्योंकि ये निर्यात पर आधारित है और दुनिया के सबसे बड़े ब्रांड इससे जुड़े हैं. चीन के बाद भारत दुनिया में कपड़ों का सबसे बड़ा निर्माता और निर्यातक है. भारत के कपड़ा निर्माता सीधे तौर पर 1 करोड़ 29 लाख लोगों को रोज़गार देते हैं जबकि फ़ैक्ट्रियों के बाहर भी दसियों लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं जिनमें से बहुत से अपने घरों से ही काम करते हैं.

रॉल्फ़ लॉरेन को आपूर्ति करने वाली फ़ैक्ट्री में काम कर रही कई महिलाओं ने कार्यस्थल पर डर के माहौल और उत्पीड़न का ज़िक्र किया है. उनका कहना है कि सुपरवाइज़र उन्हें अतिरिक्त काम करने के बारे में पहले से जानकारी नहीं देते बल्कि काम पूरा न हो पाने पर या देर हो जाने पर नौकरी से निकालने की धमकी देते हैं.

एक महिला बताती हैं, “सुपरवाइज़र हमेशा चिल्लाता रहता है. अगर मुझसे सिलाई में कोई ग़लती हो जाती है तो मास्टर के पास ले जाया जाता है जो हमेशा चिल्लाकर ही बात करता है. ये डराने वाला अनुभव होता है.”

एक अन्य विधवा महिला, जिस पर पूरे परिवार को पालने की ज़िम्मेदारी है वो बताती हैं, “वो हमसे इतनी देर तक काम करवाते हैं कि मैं घर लौटकर अपने बच्चों को खाना तक नहीं खिला पाती. वो हमें ग़ुलामों की तरह रखते हैं, उन्हें हमें कुछ तो इज़्ज़त देनी चाहिए.”

फ़ैक्ट्री एक्ट का उल्लंघन?

ये दावे भारत के फ़ैक्ट्री एक्ट का उल्लंघन हैं जिनके तहत किसी कर्मचारी से सप्ताह में 48 घंटे और ओवरटाइम के साथ 60 घंटे से अधिक काम नहीं करवाया जा सकता.

क़ानून के मुताबिक़, महिलाओं से नाइट शिफ़्ट में काम तब ही करवाया जाएगा जब वो अपनी मर्ज़ी से काम करें.

रॉल्फ़ लॉरेन की 2020 ग्लोबल सिटिज़नशिप और सस्टेनेबिलिटी रिपोर्ट कहती है कि कंपनी अपने उत्पादों पर काम करने वाले सभी कर्मचारियों के सम्मान की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.

रिपोर्ट कर्मचारियों के लिए बेहतर माहौल मुहैया कराने की शपथ भी है.

ये सभी ब्रांड एथिकल ट्रेडिंग इनिशिएटिव (ईटीआई) का हिस्सा भी हैं और उन्होंने इसके मूल नियमों पर हस्ताक्षर किए हैं जिनमें काम के घंटों के अत्यधिक न होने की शपथ भी है. इसके तहत ओवरटाइम सिर्फ़ मर्ज़ी से ही करवाया जाएगा जबकि कर्मचारियों को गालियां देना या डांटना भी निषेध है.

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एक बयान में रॉल्फ़ लॉरेन ने कहा है कि वो बीबीसी की तरफ़ से लगाए गए आरोपों से चिंतित है और आगे इनकी जाँच करवाई जाएगी.

कंपनी का कहना है, “हम अपने सभी सप्लायरों के लिए मानक बनाए रखना ज़रूरी समझते हैं ताकि कार्यस्थल स्वस्थ, सुरक्षित और नैतिक रूप से सही बना रहे. इसमें कार्यस्थल पर नज़दीकी नज़र भी बनाए रखते हैं और तुरंत कार्रवाई भी करते हैं. तीसरे पक्षों से कार्यस्थलों की समीक्षा भी करवाई जाती है.”

फ़ैशन ब्रांड के लिए आपूर्ति करने वाली फ़ैक्ट्री ने सभी आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा है कि वह सभी नियमों का पालन करती है.

तीन सुपरमार्केट ब्रांड का कहना है कि वो इस तरह की रिपोर्ट के सामने आने के बाद हैरत में हैं और साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि अधिक काम कराए जाने से जुड़े मुद्दे को सुलझाया जा सके.

सेंसबरी ने कहा, “वो सप्लयर पर कई तरह के क़दम उठाने का ज़ोर दे रही है ताकि वो आगे भी उनके साथ मिलकर काम करती रहे. सप्लायर से तुरंत क़दम उठाने और भविष्य के लिए व्यवस्था करने के लिए कहा गया है ताकि हम उनके साथ आगे भी काम करते रहें.”

टेस्को ने कहा, “हम मज़दूरों का शोषण बर्दाश्त नहीं करते हैं. जैसे ही हमें इन आरोपों का पता चला हमने जाँच शुरू कर दी. हमें जो बातें पता चली हैं हम उससे बहुत परेशान हैं.”

टेस्को का कहना है कि वह अत्यधिक ओवरटाइम को रोकने और शिकायतों के निवारण की प्रक्रिया को मज़बूत करने पर काम कर रही है ताकि मज़दूरों को उनकी मेहनत का सही मोल मिल सके.

मार्क्स एंड स्पेंसर का कहना है कि उसने इन दावों के बाद तुरंत अघोषित समीक्षा करवाई है और उसे ओवरटाइम काम की ऐसी व्यवस्था का पता चला है जो स्वीकार्य नहीं है.

हालांकि कंपनी ने कर्मचारियों के टॉयलेट न जाने देने और पानी न पीने देने के दावों पर सवाल खड़े किए हैं.

कंपनी का कहना है कि ऐसी परिस्थितियों से निबटने के लिए उसके पास पहले से तैयार योजना है और वो इन्हें लागू करने के लिए अघोषित समीक्षाएं कराएगी.

‘ब्रांडों की ज़िम्मेदारी है’

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इस तरह के ब्रांड की न तो भारत में अपनी फ़ैक्ट्रियां हैं और ना ही वो इन्हें संचालित करते हैं. इसकी वजह से यहां काम करने की परिस्थितों और उनके बीच एक फ़ासला बन जाता है, लेकिन कपड़े सप्लाई करने वाली एक फ़ैक्ट्री के मालिक ने बीबीसी से कहा कि अगर ब्रांड कम से कम दामों पर कपड़े तैयार करवाने पर ज़ोर देंगे तो सप्लायर के पास भी अधिक काम करवाने के बजाए कोई विकल्प नहीं रह जाएगा.

अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर ये फ़ैक्ट्री मालिक कहते हैं, “ये ब्रांड ही हैं जो अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं. ऐसे में ये आपको ऐसी परिस्थितियों में धकेल देते हैं जहां धंधे को फ़ायदेमंद बनाए रखने के लिए आपको शोषण करना ही होता है.”

ये कंपनी मालिक जिस ब्रांड को सप्लाई करते हैं उसका ज़िक्र इस रिपोर्ट में नहीं है. वो कहते हैं, “इन ब्रांड की समीक्षा प्रक्रियाएं बस दिखावे के लिए हैं.”

वो बताते हैं, “फ़ैक्ट्री को पता होता है कि ऑडिटर कब आएंगे, ऐसे में वो पहले से तैयार रहते हैं और सबकुछ चकाचक रखते हैं. एक बार समीक्षा हो जाने के बाद सबकुछ पहले जैसा ही हो जाता है. इसका मतलब ये है कि शोषण जारी रहता है और नियमों का पालन नहीं किया जाता.”

वो कहते हैं कि शोषण जारी रहने की दो बड़ी वजहें हैं, पहली तो पारदर्शी जाँच प्रक्रिया की कमी और दूसरी ब्रांडों का ज़िम्मेदारी ना लेना.

“टेक्सटाइल उद्योग ऐसे ही काम करता है. सिर्फ़ भारत में ही हालात ऐसे नहीं हैं, पूरी दुनिया में यही हो रहा है.”

जब मुनाफ़ा कम हो रहा है, महिलाएं अपने ऊपर अधिक दबाव महसूस कर रही हैं. बीबीसी ने जो वेतन पर्चियां देखी हैं उनके मुताबिक़ कई महिलाएं तो रोज़ाना सिर्फ़ ढाई सौ रुपए तक ही कमाती हैं. कई बार तो वो ऐसे कपड़े बना रही होती हैं जो दसियों हज़ार रुपए में बिकते हैं.

एक्शन एड इंडिया ने जिन कर्मचारियों पर सर्वे किया उनमें से चालीस फ़ीसद से अधिक का कहना है कि उनकी महीने की कमाई दो हज़ार से पाँच हज़ार रुपए के बीच रहती है.

एक्शन एड इंडिया के चेन्नई दफ़्तर के एसोसिएट डायरेक्टर एस्थर मारियासेलवम कहती हैं, “दुनियाभर में महिलाओं के काम को कम करके आंका जाता है और उन्हें कम वेतन दिया जाता है.”

जितनी भी महिला कर्मचारियों से बीबीसी ने बात की है उनका कहना कि वो बेहद मुश्किल हालात में रह रही हैं और उनके लिए अपने परिवार का पेट भरना ही एक संघर्ष है.

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रॉल्फ़ लॉरेन के एक सप्लायर के लिए काम करने वाली एक महिला कर्मचारी का कहना है कि उसे महीने में छह हज़ार रुपए मिलते हैं और इतने पैसों में उसका घर नहीं चलता है.

ये कर्मचारी अभी बीस साल की भी नहीं हैं लेकिन पिता की मौत के बाद वो अपने घर की अकेली कमाने वाली हैं. वो अब अपनी मां और दो बहनों का पेट पाल रही हैं.

उनका वेतन न्यूनतम वेतन के दायरे में तो आता है लेकिन श्रम अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि उनका वेतन कम से कम तीन गुणा अधिक होना चाहिए था.

कपड़ा उद्योग में लगे कर्मचारियों के लिए अधिक वेतन की माँग करने वाले संगठन एशिया फ्लोर वेज अलाएंस ऑर्गेनाइज़ेशन ने भारत के लिए न्यूनतम वेतन कम से कम 18,727 रुपए महीना तय किया है.

टेस्को, सेंसबरी और मार्क्स एंड स्पेंसर ने इससे पहले न्यूनतम वेतन दिलवाने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी. रॉल्फ़ लॉरेन ने खुलकर ऐसा नहीं किया है.

लेकिन वेतन की जो पर्चियां बीबीसी ने देखी हैं उनसे पता चलता है कि इन ब्रांड के लिए काम करवाने वाली कोई भी फ़ैक्ट्री एशिया फ्लोर वेज अलायंस के प्रस्तावित न्यूनतम भत्ते के आसपास भी वेतन नहीं दे रही हैं.

हमने चारों ब्रांड से लिविंग वेज के बारे में सवाल किया लेकिन किसी ने भी इस मुद्दे पर जवाब नहीं दिया.

लेबर बिहाइंड द लेबल समूह के लिए काम करने वाली एना ब्रायहर कहती हैं कि ये ब्रांड की ज़िम्मेदारी है कि वो काम करने के लिए सुरक्षित और उचित परिस्थितियां सुनिश्चित करें.

वो कहती हैं, “अगर आप एक ब्रांड हैं और आप दुनियाभर में अपने लिए कपड़े तैयार करवा रहे हैं तो ये भी आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप ये सुनिश्चित करें कि आपके लिए काम करने वाले कर्मचारियों को सम्मानजनक जीवन जीने लायक़ वेतन मिल रहा है या नहीं.”

“सप्लाई चेन के शीर्ष पर बैठी कंपनी की ये ज़िम्मेदारी है कि वो पता करे कि सप्लाई चेन में क्या चल रहा है और वो ये सुनिश्चित करे कि यहां सबकुछ ठीक है.”

वैश्विक सप्लाई चेन पर शोध करने वाले बाथ यूनिवर्सिटी के सीनियर लेक्चरर विवेक सुंदरराजन कहते हैं, “स्थानीय श्रम क़ानून इस समस्या का समाधान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, बदलाव के लिए प्रयास ब्रांडों की ओर से होने चाहिए.”

“जाँच और संतुलन के जो मानक तय किए जाते हैं उनमें कर्मचारियों की आवाज़ शामिल नहीं की जाती है, उन्हें पता ही नहीं होता है कि वास्तव में कर्मचारी चाहते क्या हैं.”

“मुझे लगता है कि ब्रांड को पूरी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए… वो भले ही फ़ैक्ट्री को नहीं चला रहे हैं लेकिन फ़ायदा तो पूरा वही कमाते हैं.”

सभी तस्वीरें रेक्सटेन निस्सी एस. ने ली हैं. इस रिपोर्ट में पीटर इमरसन ने सहयोग किया है
















BBC

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