• April 19, 2024 10:07 pm

झारखंड का भाषा विवाद: भोजपुरी-मगही को लेकर क्यों है हंगामा?

दिनांक 19 फ़रवरी 2022 l “हर भाषा का अपना स्थायी भूगोल होता है. अगर केंद्र सरकार उन्हें उन्हीं जगहों पर सम्मान देती, तो भाषा को लेकर कोई विवाद खड़ा ही नहीं होता. लेकिन, क्षेत्रीय भाषाओं की विविधता को केंद्रीय स्तर पर कार्ययोजना का हिस्सा कभी नहीं बनाया गया. कस्तूरीरंजन कमेटी, कोठारी कमेटी और पिछले साल बनी नई शिक्षा नीति में भी भाषा की भावनाओं को सिर्फ़ ऊपरी तौर पर तुष्ट करने की कोशिश की गयी. इस वजह से भाषाओं को लेकर विवाद होते रहे हैं.”

चर्चित युवा कवि और लेखक डॉ अनुज लुगुन ने बीबीसी से बातचीत के दौरान यह बात कही.

उन्होंने कहा, “अब अगर हेमंत सोरेन सरकार या झारखंडी समाज कभी राजनीतिक तौर पर सफल रहे झारखंड आंदोलन को सांस्कृतिक स्तर पर सफल बनाने की कोशिश यहां की भाषाओं को सम्मान देकर करना चाह रही है, तो हमें इसका समर्थन करना चाहिए. मेरी नज़र में यह सिर्फ़ नौकरी मिलने या न मिलने का मसला नहीं है.”

उन्होंने यह भी कहा, “हर भाषा का सम्मान होना चाहिए. जो झारखंडी भाषाएं हैं उनको लेकर लोग जागरुक हुए हैं, तो यह अच्छी पहल है. झारखंड में जो आवाजें उठ रही हैं, उनका ऐतिहासिक संदर्भ है. झारखंड हमेशा से उपनिवेश की तरह रहा है. यहां बाहरी वर्चस्व की कई तहें बनी हैं, जो यहां के भाषा आंदोलन के विरोध में हैं.”

उन्होंने साथ ही कहा, “जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के 1928 के भाषा सर्वेक्षण में भाषाओं के भूगोल की व्यापक चर्चा है. भाषाओं को आप उसके स्थायी भूगोल से बाहर करके नहीं देख सकते.”

“अब अगर उस भूगोल से अलग जाकर कुछ लोग कहीं बस गए और अपनी भाषाएं बोलने लगे, तो क्या वहां की सरकारें उन भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा मानेंगी. तब तो बिहार और दिल्ली की सरकारों को भी संथाली और मुंडारी जैसी झारखंडी भाषाओं को मान्यता दे देनी चाहिए, क्योंकि इसे बोलने वाले लोगों की बड़ी बसावट उन जगहों पर भी है. लेकिन, वहां की सरकारों ने ऐसा नहीं किया और न करेंगी.”

“अब अगर उस भूगोल से अलग जाकर कुछ लोग कहीं बस गए और अपनी भाषाएं बोलने लगे, तो क्या वहां की सरकारें उन भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा मानेंगी. तब तो बिहार और दिल्ली की सरकारों को भी संथाली और मुंडारी जैसी झारखंडी भाषाओं को मान्यता दे देनी चाहिए, क्योंकि इसे बोलने वाले लोगों की बड़ी बसावट उन जगहों पर भी है. लेकिन, वहां की सरकारों ने ऐसा नहीं किया और न करेंगी.”

डॉ अनुज लुगुन से यह बातचीत मैंने झारखंड में अभी चल रहे भाषा आंदोलन के संदर्भ में की थी.

हालांकि, झारखंड के ही दूसरे प्रतिष्ठित साहित्यकार विद्याभूषण इन बातों से पूरी तरह सहमत नहीं दिखते.

उन्होंने बीबीसी से कहा कि वे इस आंदोलन के समर्थन या विरोध में कुछ भी बोलना ग़ैर-जरूरी समझते हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह मामला कई सालों से उलझा हुआ है.

उन्होंने कहा कि अपनी 80 साल की उम्र और एक नागरिक के तौर पर मेरी जो समझ बनी है, उसके मुताबिक़ हमें क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं के साथ स्थानीय भाषाओं की भी बात करनी चाहिए. जो भूभाग 90 साल तक बिहार से जुड़ा रहा, वहां की भाषाएं और लोग यहां घुसपैठ करके तो नहीं आए.

वो कहते हैं, “उस दौरान बड़ी आबादी का इन इलाक़ों में आना-जाना लगा रहा. अब उन 90 सालों के दौरान मौजूदा झारखंड के विभिन्न ज़िलों में बसे लोगों को आप ग़ैर-झारखंडी कैसे बोल सकते हैं. मेरा मानना है कि क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं को एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं बनाया जाना चाहिए. अगर ज़िला स्तर पर किसी भाषा के लोगों की बसाहट है, तो उन्हें सीमित स्तर पर ही सही, इसका लाभ तो मिलना ही चाहिए.”

नोटिफिकेशन

कैसे शुरू हुआ भाषा आंदोलन?

दरअसल, झारखंड सरकार के कार्मिक, प्रशासनिक सुधार व राजभाषा विभाग ने 24 दिसंबर को एक नोटिफिकेशन जारी कर राज्य के 11 ज़िलों में स्थानीय स्तर की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही और अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में जगह दे दी.

इनमें से कुछ ज़िलों में इन भाषाओं में से किसी एक या दो को क्षेत्रीय भाषा माना गया है. इसके अलावा ओडिया, बांग्ला और उर्दू को भी क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में जगह दी गई थी.

बीबीसी को मिले दस्तावेज़ के मुताबिक़ लातेहार में मगही, पलामू और गढ़वा में मगही व भोजपुरी, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज, पाकुड़, गोड्डा व देवघर में अंगिका तथा बोकारो और धनबाद ज़िलों में भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में रखा गया था.

मौजूदा भाषा आंदोलन इस नोटिफिकेशन के बाद शुरू हुआ, जिसको लेकर बोकारो, गिरिडीह, और धनबाद ज़िले की कई जगहों पर युवाओं ने विरोध प्रदर्शन किए.

इन प्रदर्शनों में प्रमुखता से शामिल तीर्थनाथ आकाश ने मीडिया से कहा कि वे बोकारो और धनबाद ज़िलों में भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में रखे जाने के ख़िलाफ़ हैं. वो कहते हैं कि इन्हें बोलने वाले लोग बाहरी हैं और वे गांवों में नहीं रहते. कुछ प्रदर्शन इन भाषाओं को सूची में रखे जाने के समर्थन में भी हुए हैं. ऐसे लोगों ने रांची में झारखंड के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो के पुतले भी फूंके.

बोकारो ज़िले की एक विधानसभा से ताल्लुक रखने वाले शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने भोजपुरी, अंगिका और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से हटाने को लेकर सार्वजनिक बयान दिए थे. कैबिनेट की पिछले सप्ताह हुई बैठक में इस संबंधित कोई एजेंडा नहीं होने के बावजूद उन्होंने इस मसले को उठाया था.

उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेस भी की और कहा कि मुख्यमंत्री ने इनकी बात को गंभीरता से सुना है और इस मसले पर सब लोग साथ हैं.

उन्होंने युवाओं से अपील की और कहा कि वे इस मसले को लेकर सड़कों पर नहीं उतरें. उन्होंने कहा कि सरकार इसको लेकर गंभीर है, युवाओं को किसी बहकावे में नहीं आना चाहिए.

जगरनाथ महतो ने कहा, “हमारे पुरखे इस भाषा को बोलते-समझते रहे हैं. हम भोजपुरी के विरोधी हैं और रहेंगे. भाषा विवाद को तूल दे रहे लोग दोमुंहे सांप हैं. बची बात बीजेपी की, तो उसके विधायकों ने विधानसभा परिसर में भोजपुरी के समर्थन में प्रदर्शन किया और अब परोक्ष रुप से उसके विरोध के आंदोलन को हवा देने में लगे हैं. लोग सारी बात समझ रहे हैं.”

सरकार ने जारी की संशोधित सूची

इस बीच झारखंड की प्रधान सचिव वंदना डादेल के दस्तख़त से 18 फ़रवरी की शाम जारी संशोधित नोटिफिकेशन में बोकारो और धनबाद ज़िलों की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को बाहर कर दिया गया. हालांकि, पलामू और गढ़वा ज़िलों की सूची में ये दोनों भाषाएं अभी शामिल हैं.

झारखंड सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी से कहा कि यह नोटिफिकेशन झारखंड कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) द्वारा मैट्रिक (दसवीं) और इंटरमीडिएट (बारहवीं) की योग्यता वाले युवाओं के लिए ज़िला स्तर पर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों की चयन प्रकिया के लिए है.

इस संबंधित किसी नौकरी का विज्ञापन फिलहाल नहीं निकाला गया है. इसका असर राज्य के सभी ज़िलों में नहीं होगा, क्योंकि राज्य स्तरीय नियुक्तियों के लिए पिछले साल सितंबर में जारी नोटिफिकेशन में ये भाषाएं क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल नहीं की गई थीं.

वह नोटिफिकेशन अभी मान्य है. नए नोटिफिकेशन में किए गए संशोधन सिर्फ कुछ ज़िलों में ज़िलास्तरीय नियुक्तियों के लिए ही मान्य होंगे.

मुख्यमंत्री का बयान

सितंबर 2021 में ही अपने एक इंटरव्यू के दौरान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी ज़ोर देकर कहा था कि भोजपुरी और मगही जैसी भाषाएं मूलतः बिहार की हैं. इन्हें झारखंड की क्षेत्रीय भाषा कैसे मान सकते हैं.

हेमंत सोरेन ने तब कहा, “भोजपुरी बोलने वाले लोग डोमिनेटिंग हैं. इन लोगों ने झारखंड आंदोलन के दौरान यहां के आंदोलनकारियों को गालियां दी हैं. महिलाओं तक से अपमानजनक व्यवहार किया है. इसे बोलने वाले झारखंड के जंगलों-गांवों में नहीं रहते बल्कि अपार्टमेंटों में रहते हैं. ऐसे में हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं का दर्जा कैसे दे सकते हैं.”

तब उनके इस बयान की काफी चर्चा हुई थी. मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अलावा कुछ दूसरे संगठनों ने उनका विरोध किया, तो कई आदिवासी संगठन उनके बयान के पक्ष में भी खड़े हुए.

उसके बाद से बीजेपी असमंजस की स्थिति में है और उसके नेता इस मसले पर बोलने से बचते हैं.

हालांकि बीजेपी विधायक दल के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने इस संबंधित एक सवाल के जवाब में मीडिया से कहा था कि सरकार को शीघ्र ही अपनी भाषा नीति घोषित करनी चाहिए.

बाबूलाल मरांडी ने कहा, “झारखंड में 32 जनजातियां हैं. इन सबकी भाषाएं अलग-अलग हैं. अब अगर मुख्यमंत्री इस मसले पर मेरी सलाह मांगेंगे, तो मैं उन्हें बताऊंगा कि राज्य की भाषा नीति कैसी होनी चाहिए. इसके अलावा मुझे फिलहाल कुछ नहीं बोलना है.”

लालू यादव

विवाद में लालू यादव की एंट्री

इस बीच पशुपालन घोटाले के एक मामले में कोर्ट द्वारा तलब किए गए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने सज़ा सुनाए जाने से दो दिन पहले स्थानीय पत्रकारों के पूछे जाने पर रांची में कहा कि वे उन लोगों के विरोध में हैं, जो भोजपुरी का विरोध कर रहे हैं.

उन्होंने दरअसल पत्रकारों से ही पूछा कि भोजपुरी का विरोध कौन कर रहा है. जवाब में शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो का नाम बताए जाने पर उन्होंने यह बात कही. उनकी पार्टी आरजेडी झारखंड सरकार में शामिल है.

भाषा की सियासत

हेमंत सोरेन की सरकार में शामिल कांग्रेस पार्टी भी भाषा को लेकर विवाद के पक्ष में नहीं दिखती. पार्टी की विधायक दीपिका पांडेय सिंह ने इस मसले पर कहा कि भाषा संवाद का माध्यम हो सकता है, यह हमें बांटने का ज़रिया नहीं बन सकता.

दीपिका पांडेय सिंह ने कहा, “हमारा राज्य ऐसे ही ग़रीब है. यह समय है कि हम युवाओं के लिए अवसर बनाएं, वे चाहे आदिवासी हों या मूलनिवासी. भाषा को हमें बांटने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए. जो यहां पैदा हुए हैं, जिन्होंने यहां शिक्षा ग्रहण की है, उन सबका अधिकार है. इसलिए ग़ैर-जरूरी बातों को लेकर उन्माद में आने की ज़रूरत नहीं है. मेरा निवेदन होगा कि भाषा को बांटने का आधार नहीं बनने दें.”

source :- बीबीसी न्यूज़

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *