दिनांक 2/12/21- राजस्थान, मध्यप्रदेश, नॉर्थ ईस्ट से लेकर भारत के सभी राज्यों की कला कां संगम है दिल्ली हाट। कहीं स्टेज पर आदिवासी परंपरा को दिखाया जा रहा है तो कहीं राजस्थान का लोकगीत बज रहा है। कला के शोरगुल से रचे बसे दिल्ली हाट में एक कोने में अनीता राणा अपने उत्तराखंड के स्टॉल पर मूंज और कांस घास से डलिया बना रही हैं। स्टॉल पर हाथ से बने डलवा, डलिया, पूजा मैट, रोटी बॉक्स, लैंप सैट, हैंड बैग, पेपर वेट, सिंदूर डिब्बी, नाव ट्रे, पेन स्टैंड, अंडा ट्रे सब रखे हैं।
‘अपने हाथ के हुनर पर गर्व है’
उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिला के झनकट गांव में पली-बढ़ीं अनीता राणा बातचीत में कहती हैं, ‘ये जरूरी नहीं है कि बड़ी-बड़ी डिग्री लेने वाले ही घर से बाहर निकलकर काम कर सकते हैं। हम जैसी महिलाएं जो कम पढ़ी-लिखी हैं या बिल्कुल भी नहीं पढ़ीं, वो भी अब अपने हाथ के हुनर को रोजी-रोटी का जरिया बना रही हैं। मेरी मां, दादी, परदादी सभी कांस की घास से सामान बनाती थीं। मुझे भी आगे अपने बच्चों को इस कला को सिखाना है। यह दूसरों के लिए घास-फूंस हो सकती है, लेकिन हमारे लिए यही सबकुछ है।’
‘बुढ़ापा गरीबी में नहीं बिताना’
मेरा बचपन जरूर गरीबी में बीता, लेकिन बुढ़ापा गरीबी में नहीं जाएगा। किसान परिवार में पली बढ़ी हूं। साल 1994 में शादी हो गई तो ससुराल में भी थाली में रोटी बिना संघर्ष के नहीं आई। घर में ससुर का न होना, सारी जिम्मेदारी सास के सिर और देवर-ननद छोटे थे। तब मैंने और सासू मां ने मिलकर काम किया। खेतों में मजदूरी की और बच्चों को पढ़ाया। शादी के बाद मुझे बच्चे नहीं हुए। ऐसे में ददिया सास और सासू जी के ताने बहुत सुनने को मिले, लेकिन जब एसएचजी समूह से जुड़ी तो सास ने मेरा काम समझा और फिर मैंने उनकी कांउसलिंग की। अब वे मुझे ताने नहीं देतीं।
दो भैंसें लोन पर लीं, फिर शुरू की कारोबार
घर का गुजारा भत्ता चल नहीं रहा था। मैं कमाई की फिराक में थी। आस-पड़ोस को मालूम था कि मैं आठवीं पास हूं। गांव में जब एसएचजी ग्रुप बने तो उनमें मुझे जोड़ लिया गया और काजल समूह का अध्यक्ष घोषित कर दिया। शुरू-शुरू में समूह से जरिए बचत करते थे, फिर एक दिन मुझे उत्तराखंड में ही पंत नगर में मेले में जाने का मौका मिला। वहां जाकर देखा कि कुछ महिलाएं मूंज और कांस घास से सामान बना रही थीं। तब मुझे लगा कि ये काम तो मैं भी कर लेती हूं फिर आकर अधिकारियों से बात की और मैंने भी घास से सामान बनाना शुरू कर दिया।
समूह में जब शुरू में जुड़ी थी तब दो भैंसें भी लोन पर मिलीं। हम दस महिलाओं ने अपनी भैंसों का दूध बेचकर कर्ज चुका दिया। इसके बाद घास से सामान बनाना शुरू किया।
इतनी तीखी घास, दस्ताने पहनकर काटनी पड़ती है
हम महिलाओं का समूह भोर में उठकर जंगल जाता है फिर हाथ में दस्ताने पहनकर कुश घास को काटते हैं। इसे सावधानी से करना पड़ता है नहीं तो हाथ कटने का डर रहता है। हैंडमेड कुश घास के प्रोडक्ट्स का काम हमेशा नहीं चलता क्योंकि ये अगस्त और सितंबर के बीच में उगती है। जब ये पौधे हरे रहते हैं तभी इन्हें काटना पड़ता है। 15 दिन तक धूप में सुखाते हैं फिर रंगाई की जरूरत है तो डाई करके सामान बनाना शुरू करते हैं।
‘शादी में डलवा देना परंपरा से जुड़ा’
हमारे घरों में सदियों से घास से हैंडमेड प्रोडक्ट्स बन रहे हैं। शादियों में डलवा का बहुत रोल होता है। दूल्हा खुद उसी डलवे में आई मिठाई को रिश्तेदारों को देता है। तो वहीं, जिन लड़कियों की शादी नहीं हुई होती है वे डलवा, डलिया, चटाई जैसे कई सामान ससुराल ले जाने के लिए बनाती हैं। मैं जब छोटी थी तब बुआ के पास से तिनका चुराकर बिनाई करती थी। हमारे घरों के संदूक भरे रहते थे। जिन लड़कियों को ये हुनर आता था उन्हें गांव में बहुत होशियार माना जाता था। मैं उन्हीं होशियारों में से एक थी।
‘पहली बार दिल्ली आने पर घबरा गई थी’
अपने हाथ से बने प्रोडक्ट्स बेचने जब पहली दिल्ली आना पड़ा तब दिल जोरों से धड़क रहा था। घर से इतनी दूर रेल से जाना है। मैं तो सोच कर ही घबरा रही थी। ऐसा लग रहा था कि पता नहीं वापस आऊंगी या नहीं, लेकिन पति ने साथ दिया और मैंने आसपास की महिलाओं से जो भी घास का सामान बनवाया था वो सब लेकर दिल्ली हाट और प्रगति मैदान जैसी जगहों पर ले आई। सामान ले तो आई थी लेकिन अब इन्हें बेचना भी था। दिल्ली हाट में ही कभी कोई अंग्रेज मेरे पास मेरे सामान के बारे में पूछने आता तो मैं पसीने से तरबतर हो जाती। घबराहट में बगल वाली दुकान से भैया को बुलाती और कहती आप इन्हें इस रोटी बॉक्स का रेट बता दीजिए।
धीरे-धीरे झिझक खुली। मैंने अपनी गांव की और महिलाओं को अपने साथ गांव से बाहर लाने की कोशिश की, लेकिन वे आईं नहीं, क्योंकि उनके पतियों ने नहीं भेजा। दूसरा वे खुद दहलीज को लांघने में झिझक रही थीं।
‘मेरा काम ही मेरी संतान है’
मेरे बच्चे नहीं हैं तो कई लोगों ने कहा कि किसी को एडॉप्ट कर लो, लेकिन मुझे घर से बाहर ये सामान बेचने आना होता है तो अब ये काम ही मेरी औलाद है। मुझे इसे ही अच्छे से आगे बढ़ाना है। इस छोटे से एसएचजी के बाद ग्राम संगठन भी बना। मेरे काम और समझदारी को देखते हुए उस संगठन का भी अध्यक्ष मुझे ही बनाया गया। अब यहां का भी लेखा-जोखा मैं ही संभालती हूं।
अभी तक घर में हजार-दो हजार की रकम संभाली थी लेकिन इन समूहों में लाखों रुपए जमा होते हैं। मुझे तो लाख रुपए गिनने भी नहीं आते थे लेकिन संस्थाओं की ओर से ट्रेनिंग मिली तो अब वो काम भी सुघड़ तरीके से कर लेती हूं। अब हमें हर महीने बड़े-बड़े ऑर्डर मिलते हैं। महिलाओं को जोड़कर ये काम करवाती हूं।
‘महिलाओं के हुनर को बाजार तक पहुंचाती हूं’
महिलाओं के इस हाथ के हुनर को जब अलग-अलग बाजारों में बेचती हूं और उसकी कमाई गांव जाकर महिलाओं में बांटती हूं तो वे बहुत खुश होती हैं। अब कई महिलाओं के समूह संभालती हूं और मिल-जुलकर कमाते हैं और खाते हैं। अब नहीं लगता कि मैं गरीब हूं। मास्टर हूं। पहले अंग्रेजी सुनकर डर जाती थी लेकिन अब मैं वन, टू, थ्री, फोर जानती हूं। प्राइस, प्रोडक्ट्स का नाम सब जानती हूं तो कस्टमर को आराम से बता देती हूं।
‘अब दिल्ली दूर नहीं लगती’
अब दिल्ली, देहरादून आना दूर नहीं लगता। डर, भय सब निकल गया है। शुरू-शुरू में जब बैंक जाना पड़ता था तब अंदर जाने से झिझकती थी, लेकिन अब बिंदास हो गई हूं। मुझे लगता है कि हर महिला जिसके हाथ में जो भी हुनर है उसे जाया न करें उससे कमाई करें।