“मैं पिछले चार साल से यहां काम कर रहा हूँ. हर महीने आठ हज़ार रुपये मिलता है. लॉकडाउन के दौरान हम काम करते रहे और सैलरी मिली. लॉकडाउन में थोड़ी दिक्कत तो हुई ही. सभी को हुई. किसको नहीं हुई? सब परेशान हुए लेकिन मुझे कुछ खास दिक्कत नहीं हुई.”
यह कहना है 45 वर्षीय राजेश्वर पासवान का. राजेश्वर बिहार के वैशाली ज़िले के लालगंज गांव के रहने वाले हैं.
इसी गांव की मनोरमा सिंह पिछले दस साल से मशरूम का उत्पादन कर रही हैं जिनके साथ राजेश्वर समेत सौ महिला-पुरुष काम करते हैं. इन सभी को हर महीने पगार मिलती है.
कोरोना वायरस की वजह से देश और दुनिया में जब लॉकडाउन लगा तो बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करने वाले लोगों की नौकरियां गईं. देशभर से मज़दूर जैसे-तैसे अपने घरों की तरफ भागे.
लेकिन इस संकट की घड़ी में भी मनोरमा सिंह और उनके साथ काम कर रहे सभी लोग पहले की तरह ही काम करते रहे और वो भी बिना किसी सैलरी कट के. आख़िर ये कैसे हुआ?
लॉकडाउन के बावजूद सबको मिले पैसे
मनोरमा बताती हैं, “जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो मेरे यहां हर दिन पांच सौ से छह सौ किलो मशरूम निकल रहा था. हम बाक़ी दिनों में अपना मशरूम रांची, पटना सहित सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) तक भेजते थे लेकिन लॉकडाउन की वजह से सब बंद हो गया. तब मैंने स्थानीय प्रशासन से अनुमति लेकर अपने मशरूम को आसपास के गांव में बेचना शुरू किया.”
“हर दिन चार से पांच गाड़ी निकलती और दिनभर घूम-घूमकर मशरूम बेचती. इससे जो बच गया उसे मैंने सूखा दिया और अचार और मुरब्बा जैसे प्रोडक्ट बनाए जो कभी भी बिक सकते हैं. इस तरह से हमारे मशरूम भी लॉकडाउन के दौरान बिके और हमारे साथ काम करने वाले हर व्यक्ति को मैं पैसा भी दे सकी.”
मनोरमा सिंह के साथ नियमित तौर पर 35 लोग काम करते हैं और सभी को महीने की दो तारीख को पगार मिती है. वहीं 65 ऐसी महिला मज़दूर हैं जो दिहाड़ी के आधार पर काम करती हैं.
आभा देवी इन्हीं में से एक हैं. वो कहती हैं, “मैं यहां एक साल से काम कर रही हूं. यहां होने वाला हर काम कर लेती हूं. लॉकडाउन के दौरान भी मैं और दूसरी महिलाएं काम करती रहीं. मेरा घर पास में ही है. सुबह-सुबह घार का सारा काम-धाम करके आती हूं और शाम में फिर घर.”
साल 2010 में मनोरमा सिंह ने अपने घर के बगल में मौजूद एक खाली झोपड़ी में पहली बार मशरूम उगाया था. तब उन्होंने यहां केवल दो सौ बैग रखे थे और वो भी तब जब ठंड का मौसम शुरू होता है.
पिछले दस साल में मनोरमा सिंह केवल वैशाली ही नहीं बल्कि समूचे राज्य में मशरूम उत्पादन के लिए जानी जा रही हैं. वो ख़ुद मशरूम उगाती हैं, आसपास के किसानों को इसकी की ट्रेनिंग देती हैं, इसके बीज तैयार करती हैं और ज़रूरी खाद भी बनाती हैं.
कैसे आया ये आइडिया?
अपने शुरूआती दिनों के बारे में मनोरमा बताती हैं, “जब मैं शादी के बाद यहां आई तो मेरे लिए यहां सब कुछ नया-नया था. नया परिवार, नए तौर-तरीक़े और खेती-किसानी को लेकर परिवार की उदासीनता. मेरे पिता जी अच्छे किसान थे. वो सब कुछ उगाया करते थे और मैं उनके साथ खेतों में जाया करती थी. खेती से जुड़ी एक-एक बारीकी वो बताते थे.”
“जब मैं ससुराल आई तो यहां खेत तो थे लेकिन खेती नहीं थी. अजीब लगा लेकिन मैं ठहरी नई दुल्हन. कुछ साल तो देखती रही लेकिन धीरे-धीरे खेती करवाना शुरू किया. गाय ख़रीदवा लाई और उसे आंगन में ही बांधना शुरू किया ताकि मैं ख़ुद उसकी देखभाल कर सकूं.”
बीते दिनों की बात करते हुए मनोरमा की आँखे चमकने लगती हैं और आवाज़ में तेज़ी आ जाती है. वो बताती हैं, “मैंने मनोविज्ञान में स्नातक किया है. इंटरनेट चलाना जानती हूँ. जब बच्चे बड़े हो गए और ज़िम्मेदारियां थोड़ी कम हुईं तो मैंने 2010 के अक्टूबर में मशरूम लगाया जो हुआ उसे परिवार को ही खिला दिया. मैंने काम की शुरुआत इसी तरह की.”
ज़रूरी प्रशिक्षण हासिल किया
साल 2015 में राष्ट्रीय बाग़वानी मिशन के तहत केंद्र सरकार से उन्हें 15 लाख रूपये का अनुदान मिला जिससे उन्होंने अपना लैब और मशरूम उगाने के लिए 8 कमरे तैयार करवाए.
इन कमरों में लगे बड़े-बड़े एयर कंडीशनरों की मदद से आज वो पूरा साल मशरूम उगा रही हैं. हर साल उनके इस छोटे से मशरूम फार्म में लगभग एक से डेढ़ करोड़ रूपये का काम होता है.
मनोरमा सिंह कहती हैं, “मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो शिकायतें करते हैं. लेकिन मैं सरकार से ये कहना चाहती हूँ कि उसे देखना चाहिए कि कैसे वो मशरूम उत्पादकों के लिए एक सुरक्षित मार्केट तैयार करवा सकती है.”
“अभी सब काम अपनी कोशिशों के बल पर हो रहा है, सरकार का इसमें कोई रोल नहीं है. मैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिली भी थी. मैंने उन्हें बताया कि हम क्या कर रहे हैं और सरकार कैसे मदद कर सकती है. तब उन्होंने भरोसा दिलाया था कि इस बारे में काम करेंगे लेकिन हुआ कुछ नहीं.”
मनोरमा सिंह का परिवार वैसे तो अपनी महिलाओं को पर्दे से बाहर नहीं जाने देने वालों में से है लेकिन उनकी ज़िद को परिवार ने समझा और वो मशरूम के बारे में और जानकारी लेने के लिए इसी साल वो बिहार के ज़िला समस्तीपुर में स्थित डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा गईं.
इसके बाद हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्थित डायरेक्टोरेट मशरूम रिसर्च (डीएमआर) में भी उन्होंने ट्रेनिंग ली.
BBC