• May 5, 2024 7:11 pm

200 साल पुराना है यह संघर्ष, इन 10 राज्यों में हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई संभव

02 नवंबर 2022 | केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 17 अक्तूबर को मध्य प्रदेश में एमबीबीएस छात्रों के लिए हिंदी में अनुवादित तीन पाठॺपुस्तकों का विमोचन किया। इसे एक ऐतिहासिक अवसर बताते हुए शाह ने कहा कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल और गुजरात सहित 10 राज्य अपनी-अपनी स्थानीय भाषाओं में अनुवाद में जुटे हैं। इंजीनियरिंग पाठॺक्रमों की पुस्तकों का भी क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद शुरू हुआ है। ये पुस्तकें केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप हैं, जो क्षेत्रीय भाषाओं में व्यावसायिक शिक्षा का समर्थन करती है। असल में भारत में चिकित्सा और अभियांत्रिकी की पढ़ाई जितनी पुरानी है, उससे भी कहीं ज्यादा पुराना है इस पढ़ाई को हिंदी या स्थानीय भाषाओं में सुलभ बनाने का संघर्ष। आज से दो सौ साल पहले 1822 में पहली बार गंभीरता से प्रयास शुरू हुए थे। आज जब हिंदी में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई नई गंभीरता के साथ वापसी कर रही है, तब उसके लंबे संघर्ष और चुनौतियों पर भी एक नजर फेरना जरूरी है।

मध्य प्रदेश सरकार की यह पहल स्थानीय भाषाओं में चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने की भारत की 200 साल पुरानी कोशिश में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 1822 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल प्रेसीडेंसी के नागरिक और सैन्य प्रतिष्ठानों के लिए प्रशिक्षित देशी डॉक्टर उपलब्ध कराने के मकसद से कलकत्ता (अब कोलकाता) में नेटिव मेडिकल इंस्टीटॺूट (एनएमआई) की स्थापना की। संस्थान ने तीन साल के पाठॺक्रम की पेशकश की और स्थानीय भाषा में चिकित्सा शब्दावली विकसित करने की कोशिश की। यूरोपीय भाषाओं से शरीर रचना, चिकित्सा और शल्य चिकित्सा पर लिखे ग्रंथों का अनुवाद किया गया। मानव शरीर से संबंधित तकनीकी शब्दों की बहुभाषी शब्दावली एनएमआई अधीक्षक पीटर ब्रेटन द्वारा संकलित की गई थी।

विज्ञान की इतिहासकार व स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली चारु सिंह इस इतिहास पर प्रकाश डालती हैं। वास्तव में, एनएमआई ने अंग्रेजी थोपने के कई प्रयासों का मुकाबला किया। इसके अधीक्षक, जॉन टाइटलर, जिन्होंने पीटर ब्रेटन की जगह ली, ने संस्थान में केवल अंग्रेजी भाषा को लागू करने का जोरदार विरोध किया, लेकिन वह लंबे समय तक सफल नहीं रहे।

1934 में, बंगाल प्रेसीडेंसी के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा चिकित्सा शिक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट करने के लिए नियुक्त एक समिति ने ‘प्रशिक्षण की अनुचित प्रकृति’ के लिए एनएमआई की आलोचना की और मूल निवासियों की शिक्षा के लिए एक मेडिकल कॉलेज खोलने की सिफारिश की, जहां केवल पश्चिमी चिकित्सा पढ़ाई जाएगी। समिति ने सिफारिश की कि छात्रों को अंग्रेजी और हिंदुस्तानी भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। एक साल बाद, 1935 में, थॉमस बबिंगटन मैकाले ने भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा देने की मांग की और एनएमआई पर ताला लग गया। उसके बाद मेडिकल कॉलेज बंगाल (आज कलकत्ता मेडिकल कॉलेज ) की स्थापना 1835 में हुई, यह भारत में अंग्रेजी में यूरोपीय चिकित्सा शिक्षा की शुरुआत थी।

मुख्य बिंदु
84,649 एमबीबीएस सीट देश में पिछले साल थीं।
25 हजार छात्र कभी हर साल अपना सकेंगे हिंदी माध्यम
175 सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेज हिंदीभाषी राज्यों में
10 राज्य ऐसे हैं, जहां हिंदी में पढ़ाई संभव।
57 मेडिकल कॉलेज अकेले उत्तर प्रदेश में

ऐसे बढ़ी भाषाई सक्रियता
अगले दशकों में अंग्रेजी भाषा विज्ञान की शिक्षा प्रदान करने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों में गहरी पैठ बनाती गई, लेकिन कई प्राच्यविद् और भाषाविदों ने भारतीय भाषाओं के लिए अपने प्रयास जारी रखे। ऐसे ही एक व्यक्ति थे राजेंद्रलाल मित्रा, बंगाली पुनर्जागरण में अग्रणी हस्ती, जो बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के पहले भारतीय अध्यक्ष भी रहे थे। साल 1877 में उन्होंने भारतीय देेशी भाषाओं में यूरोपीय वैज्ञानिक शब्दों के प्रतिपादन के लिए एक योजना की रचना की। इस ग्रंथ में पश्चिमी वैज्ञानिक और ग्रंथों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद के लिए विचार प्रस्तुत किए। भारतीय भाषाओं में यूरोपीय वैज्ञानिक शब्दों के प्रतिपादन के लिए मित्रा की योजना पर चारु सिंह बहुत गर्व के साथ लिखती हैं। मित्रा के प्रयासों को विज्ञान के लिए मील का पत्थर माना जाता है।

उत्तर भारत में 20वीं शताब्दी की शुरुआत में भाषा सक्रियता और हिंदी राष्ट्रवाद तेजी से बढ़ रहा था। वर्नाक्युलर साइंटिफिक सोसाइटी, जिसे विज्ञान परिषद के नाम से जाना जाता है, की स्थापना 1913 में विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों के एक समूह ने हिंदी में विज्ञान पत्रकारिता को बढ़ावा देने के लिए की थी। परिषद के अध्यक्ष, रामदास गौर, एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे, अक्सर उच्च शिक्षा के संस्थानों में मातृभाषा में शिक्षण की अनुपस्थिति पर अफसोस जताते थे। यह बहुत गौरतलब है कि आज से एक सौ सात साल पहले 1915 में विज्ञान परिषद ने विज्ञान पत्रिका विज्ञान का प्रकाशन शुरू किया, जो साहित्य व विज्ञान के मिले-जुले लेख प्रकाशित करती थी। विज्ञान परिषद ने कई विज्ञान पुस्तकों का हिंदी में लेखन और अनुवाद भी कराया।

स्वतंत्रता के बाद हुए प्रयास
स्वतंत्रता के बाद, 1961 में, भारत सरकार ने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग(सीएसटीटी) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों का निर्माण, विकास और परिभाषित करना था। शब्दकोश व विश्वकोश बनाना था। आयोग अब तक 22 भारतीय भाषाओं में लगभग 300 शब्दावलियां निकाल चुका है, जिनमें 185 हिंदी में हैं।

सीएसटीटी के अध्यक्ष प्रोफेसर गिरीश नाथ झा कहते हैं, हम शब्द निर्माण की संस्कृत पद्धति अपनाते हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में शब्दावली के निर्माण में शिक्षकों, वैज्ञानिकों, लेखकों और भाषाविदों को शामिल करते हैं। आयोग अब तक 60,000 चिकित्सा संबंधी शब्दों के हिंदी पर्यायवाची विकसित कर चुका है। हम शब्दावलियों को डिजिटलाइज करने और ऑनलाइन करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। हमने अपनी 300 शब्दावलियों में से 80 पर काम पूरा कर लिया है, जो जल्द ऑनलाइन हो जाएंगी और भारतीय भाषाओं में मेडिकल और इंजीनियरिंग पाठॺपुस्तक लेखन को बढ़ावा देने में मदद करेंगी। हम अपने शब्दकोशों का उपयोग करते हुए प्रकाशकों को भारतीय भाषाओं में चिकित्सा पुस्तकों का अनुवाद करने के लिए अनुदान प्रदान करेंगे।

हालांकि, नर्सिंग पुस्तकों और कुछ अंग्रेजी से हिंदी चिकित्सा शब्दावलियों और शब्दकोशों को छोड़कर, कई प्रकाशक भारतीय भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करने के इच्छुक नहीं हैं।

एक विरल भाषा वीर
किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ में सर्जरी के प्रोफेसर रहे 85 वर्षीय त्रिलोक चंद्र गोयल शायद पहले लेखक हैं, जिन्होंने मेडिकल छात्रों के लिए हिंदी में किताबें लिखी हैं। हिंदी में उनकी पहली पुस्तक आधुनिक शल्य चिकित्सा विज्ञान , 2015 में दिल्ली के जेपी ब्रदर्स मेडिकल पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित है। अंग्रेजी में कई चिकित्सा पुस्तकों के सर्वाधिक बिकने वाले लेखक प्रोफेसर गोयल को अपनी हिंदी पुस्तक के लिए एक प्रकाशक की खोज में लगभग एक दशक का समय लग गया था।

वास्तव में अधिकांश प्रकाशकों ने यह कहते हुए इसे प्रकाशित करने से इनकार कर दिया कि इसके लिए कोई बाजार नहीं है। अंत में, जेपी ब्रदर्स ने केवल इस शर्त पर सहमति व्यक्त की कि 3,000 पृष्ठ की पुस्तक को लगभग 1,000 पृष्ठों में कर दिया जाएगा। गोयल ने अपने बेटे अपुल गोयल के साथ मिलकर पुस्तक रचना की है। अपुल केजीएमयू में प्रोफेसर हैं।

गोयल का कहना है कि पुस्तक लिखना एक कठिन कार्य था, क्योंकि अंग्रेजी चिकित्सा शब्दों के हिंदी समकक्ष खोजना मुश्किल था। उनका कहना है कि उन्होंने सीएसटीटी की तकनीकी शर्तों की व्यापक शब्दावली (1991 में प्रकाशित) का इस्तेमाल किया। लेकिन कई शब्द समस्या बन गए, जैसे हाइडैटिड, हेमटोसेले, पायोसेले। इसलिए गोयल को हिंदी शब्द स्वयं गढ़ने पड़े। मिसाल के लिए, हाइडैटिड शब्द जलबूंद बन गया। गोयल कहते हैं, उन्होंने किताब लिखते समय शल्य चिकित्सा के 400 नए शब्द गढ़े हैं। उनकी आगामी पुस्तक सर्जिकल शब्दों की शब्दावली है, जिसे उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान द्वारा प्रकाशित कर रहा है। यह राज्य सरकार का संगठन है, जिसने गत वर्ष गोयल की दूसरी पुस्तक आधुनिक शल्य विज्ञान भी प्रकाशित की है।

अभी बाजार की कमी
दशकों से देश में चिकित्सा पुस्तकों के प्रकाशन में तेजी से वृद्धि हुई है, विदेश में कई भारतीय लेखकों की पाठॺपुस्तकों की मांग की जा रही है। भारत में स्वास्थ्य विज्ञान की लगभग सभी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हो रही हैं।

हालांकि, कुछ चिकित्सा प्रकाशकों ने 1990 के दशक में हिंदी में नर्सिंग पुस्तकें प्रकाशित करना शुरू कर दिया था। जेपी ब्रदर्स मेडिकल पब्लिशर्स देश का सबसे बड़ा मेडिकल पब्लिशिंग हाउस है, जिसने स्वास्थ्य विज्ञान की लगभग 4,000 किताबों का प्रकाशन किया है। इस प्रकाशक ने 1993 में पहली बार हिंदी में एक नर्सिंग पुस्तक का प्रकाशन किया था। हालांकि, ध्यान रहे, इस प्रकाशक ने हिंदी में केवल एक पुस्तक निकाली है और यह पुस्तक प्रोफेसर त्रिलोक चंद्र गोयल की है।

जेपी ब्रदर्स के प्रबंध निदेशक अंकित विज कहते हैं, प्रकाशन की सबसे अधिक बिकने वाली हिंदी किताबयूएन पांडा का अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश है। तथ्य यह है कि हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में चिकित्सा पाठॺपुस्तकों के लिए शायद ही कोई बाजार है। जब तक मेडिकल कॉलेज हिंदी को शिक्षण के माध्यम के रूप में नहीं अपनाते, तब तक हिंदी में किताबों की मांग बढ़ने की संभावना नहीं है। विज कहते हैं, हमारे द्वारा प्रकाशित भारतीय लेखकों की चिकित्सा पुस्तकों का अरबी, स्पेनिश, इतालवी और रूसी जैसी कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया गया है। भारत एक बहुभाषी देश है और इतनी सारी भाषाओं में चिकित्सा पुस्तकों का अनुवाद करना आसान नहीं है, यही वजह है कि अंग्रेजी का बोलबाला बना हुआ है। कुल बिक्री में हिंदी की किताबों की हिस्सेदारी न के बराबर है।

लेकिन गोयल आशान्वित हैं। उन्हें लगता है कि उत्तर भारत में मेडिकल कॉलेजों में छात्रों की अच्छी-खासी संख्या गैर-अंग्रेजी माध्यम की पृष्ठभूमि से आती है और वे अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करके अधिक सहज होंगे। अनुवाद का उद्देश्य देवनागरी में तकनीकी शब्द लिखना नहीं होना चाहिए। हिंदी माध्यम में विज्ञान व चिकित्सा अध्ययन संभव है, यदि अंग्रेजी शब्दों के लिए सरल और उपयुक्त शब्दावली अपनाई जाए।

अमिट योगदान
राजेंद्रलाल मित्रा- विद्वान भाषाविद

आज से दो सौ साल पहले विद्वान राजेन्द्रलाल मित्रा का जन्म 16 फरवरी, 1822 को पूर्वी कलकत्ता के सुरा (बेलियाघाटा) में हुआ था। अप्रैल 1845 में राजेन्द्रलाल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालयाध्यक्ष सह-सहायक-सचिव नियुक्त हुए थे। इस पद पर उन्होंने 10 वर्ष तक कार्य किया। बाद में वह एशियाटिक सोसायटी के सचिव, उपाध्यक्ष चुने गए। 1885 में वह एशियाटिक सोसायटी के पहले भारतीय अध्यक्ष बने। यहां से भारत के अनुरूप अध्ययन, शोध का काम तेज हुआ। अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं और विशेष रूप से बांग्ला व हिंदी के लिए उन्होंने काम किया। अनेक पुराने दुर्लभ ग्रंथों के प्रकाशन से वह जुड़े रहे, ताकि जन-जन की भाषा में जन-जन तक किताबें पहुंच सकें। पश्चिमी विज्ञान के स्वदेशीकरण के लिए वह निरंतर अभियान चलाते रहे और साल 1891 में वह दुनिया से विदा हुए।

मदन मोहन मालवीय- विद्वान और राजनेता
भारतीय विद्या, भारतीय भाषाओं और विशेष रूप से हिंदी के विकास में मदन मोहन मालवीय का योगदान अतुलनीय है। 25 दिसंबर 1861 को जन्मे महामना भारतीय विद्वान, शिक्षा सुधारक और राजनीतिज्ञ थे। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के विकास का मार्ग उन्होंने ही संस्थागत रूप से तैयार किया। नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना उनका एक बड़ा योगदान है। 1906 में मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित नागरी प्रचारिणी सभा ने वैज्ञानिक संवाद को बढ़ावा देने के लिए 359 पृष्ठ की हिंदी वैज्ञानिक शब्दावली निकाली। उस शब्दकोश ने हिंदी लेखकों को वैज्ञानिक विषयों पर लेख और पाठॺपुस्तकें लिखने में मदद करने के लिए यूरोपीय वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों का भाषांतरण पेश किया। हिंदी भाषा के समग्र सामायिक विकास के लिए मालवीय जी लगातार सक्रिय रहे और अनेक उपयोगी ग्रंथों से हिंदी और हिंदी में शिक्षा को समृद्ध किया। वह 12 नवंबर 1946 को इस दुनिया से चले गए।

सोर्स:–” हिंदुस्तान”                                             

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