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वह क्या सोच रही होंगी, जब मां मेरे ऑफिस में आयी, कोडरमा उपायुक्त की भावुक पोस्ट हो रही वायरल

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Nov 24, 2020
वह क्या सोच रही होंगी, जब मां मेरे ऑफिस में आयी, कोडरमा उपायुक्त की भावुक पोस्ट हो रही वायरल

कोडरमा के उपायुक्त रमेश घोलप ने फेसबुक पर बेहद भावुक पोस्ट लिखी है। मां की तस्वीर के साथ लिखी गई उनकी पोस्ट तेजी से वायरल हो रही है। घोलप की मां कुछ दिन पहले उनके दफ्तर आई थीं। उसी दौरान की तस्वीर के साथ अपनी पोस्ट शेयर की है। उन्होंने पोस्ट का शीर्षक दिया है….वह क्या सोच रही होंगी जब मां मेरे ऑफिस में आयी। पोस्ट की शुरुआत उन्होंने मां के बचपन से की है। घर की लाडली होने के बाद भी पढ़ाई नहीं कर पाने का गम और शादी के बाद आए तमाम झंझावतों को बयां किया है। पढ़िये उपायुक्त की पूरी पोस्ट…..

आठ बच्चों में सबसे छोटी होने के कारण वह सबकी ‘लाडली’ थी। घर में उसकी हर जिद पूरी करने के लिए चार बड़े भाई, तीन बहनें और माता-पिता थे, यह बात वह हमेशा गर्व के साथ कहती है। ‘फिर तुमको बचपन में स्कूल में भेजकर पढ़ाया क्यों नहीं?’ इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं होता। इस बात का उसे दुख ज़रूर है पर इसके लिए वह किसी को दोषी नहीं मानती।

शादी के बाद वह लगभग मायके जितने ही बड़े परिवार की ‘बड़ी बहू’ बनी थी। उससे बातचीत के क्रम में कभी भी शिकायत के सुर नहीं सुने, लेकिन लगभग 1985 में गांव देहात में जो सामाजिक व्यवस्थाएं थीं उसके अनुरूप माता-पिता की ‘छोटी लाडली बेटी’ और ससुराल की ‘बड़ी बहू’ में जो फ़र्क़ था उसे करीब से देखा था। जिस व्यक्ति से शादी हुई उनको शराब पीने की आदत थी। उस आदत के परिणाम भुगतने के बाद भी कभी मायके में माता-पिता को इसकी शिकायत नहीं की।

ख़ुद के दुख को नज़रअंदाज़ कर परिवार के भविष्य को सोचकर लड़ती रही। हालात की ज़ंजीरों को तोड़कर अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए विरोध के बावजूद चूड़ियां बेचने का काम शुरू किया। गांव-गांव जाकर चूड़ियां बेची। दो बच्चों को पढ़ाने और पति के बिगड़ते शारीरिक स्वास्थ्य का उपचार करवाने के लिए परिस्थितियों से दो हाथ कर ‘मर्दानी’ की तरह लड़ती रही।

पति की मृत्यु के तीसरे दिन मुझे यह कहकर कॉलेज की परीक्षा के लिए भेजा था कि ‘तुमने अपने पिता को वचन दिया था, जब मेरा 12वीं का रिजल्ट आएगा तो आपको मेरा अभिमान होगा। रिजल्ट के दिन वो जहां भी होंगे उनको तुझपर पर गर्व होना चाहिए। तू पढ़ेगा तभी हम लोगों का संघर्ष समाप्त होगा।’ उस वक़्त उसने एक ‘कर्तव्य कठोर मां’ की भूमिका निभायी थी।

मेरे बड़े भाई का शिक्षक का डिप्लोमा पूर्ण हुआ था। मैं भी डिप्लोमा की पढ़ाई कर रहा था और बड़े भाई की नौकरी नहीं लग रही थी, तब बहुत लोगों ने उसे कहा, ‘अब पढ़ाई छोड़कर बड़े बेटे को गांव में मज़दूरी के लिए भेज दो।’ लेकिन ‘बड़ा बेटा मज़दूरी नहीं बल्कि नौकरी ही करेगा’ कह कर वह चूड़ियां बेचने के साथ साथ दूसरे गांव में भी मज़दूरी के लिए जाने लगी और बड़े बेटे को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया।

मुझे 2009 में प्राथमिक शिक्षक की नौकरी मिल गयी। 2010 में हम लोगों के पास रहने के लिए ख़ुद का घर नहीं था, तब मैंने टीचर की सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय लिया। उस समय भी वह मेरे निर्णय के साथ खड़ी रही।

‘हम लोगों का संघर्ष और कुछ दिन रहेगा, लेकिन तुम्हारा जो सपना है उसको हासिल करने के लिये तू पढ़ाई कर’ यह कहकर मेरे ऊपर ‘विश्वास’ दिखाने वाली मेरी ‘आक्का’ (मां) और मेरे विपरीत हालात पढ़ाई के दिनों में सबसे बड़ी प्रेरणा थी। सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दिनों में जब भी पढ़ाई से ध्यान विचलित होता था, तब मुझे दूसरों के खेत में जाकर मज़दूरी करने वाली मेरी मां याद आती थी।

मेरे ऊपर उसके विश्वास को सही साबित कर मैं 2012 में आईएएस (उसकी भाषा में ‘कलेक्टर’) बना। पिछले साल जून में मैंने दूसरी बार ‘कलेक्टर’ का पदभार ग्रहण किया। उसके बाद वह एक दिन ऑफिस में आयी थी। बेटे के लिए अभिमान उसके चेहरे पर साफ़ दिखायी दे रहा था।

उसकी भरी हुयी आंखों को देखकर मैं सोच रहा था, ‘जिले की सभी लड़कियों को शिक्षा मिलनी चाहिए। इसकी ज़िम्मेदारी कलेक्टर पर होती है, यह सोचकर उसके अंदर की उस लड़की को क्या लग रहा होगा, जो बचपन में शिक्षा नहीं ले पायी थी?’ अवैध शराब के उत्पादन और बिक्री रोकने के लिए हम प्रयास करते है, यह सुनकर पति की शराब की आदत से जिस महिला का संसार ध्वस्त हुआ था, उसके अंदर की वह महिला क्या सोच रही होगी?, जिले के सभी सरकारी अस्पतालों में सरकार की सभी जन कल्याणकारी आरोग्य योजना एवं सुविधाएँ आम लोगों तक पहुंचे, इसके लिए हम प्रयास करते है। यह मेरे द्वारा कहने पर, पति की बीमारी के दौरान जिस पत्नी ने सरकारी अस्पताल की अव्यवस्था एवं उदासीनता को बहुत नज़दीक से झेला था, उसके अंदर की उस पत्नी को क्या महसूस हो रहा होगा?संघर्ष के दिनों में जब सर पर छत नहीं थी, तब हम लोगों का नाम भी बीपीएल में दर्ज कराकर हमको एक ‘इंदिरा आवास’ का घर दे दीजिए इस फ़रियाद को लेकर जिस महिला ने कई बार गांव के मुखिया और हल्का कर्मचारी के ऑफिस के चक्कर काटे थे, उस महिला को अब अपने बेटे के हस्ताक्षर से जिले के आवासहीन ग़रीब लोगों को घर मिलता है यह समझने पर उसके मन में क्या विचार आ रहें होंगे?

पति की मृत्यु के बाद विधवा पेंशन स्वीकृत कराने के नाम से एक साल से ज़्यादा समय तक गांव की एक सरकारी महिलाकर्मी जिससे पैसे लेती रही थी, उस महिला के का अपना बेटा आज कैम्प लगाकर विधवा महिलाओं को तत्काल पेंशन स्वीकृत कराने का प्रयास करता है, यह पता चलने पर क्या विचार आये होंगे?’

आईएएस बनने के बाद पिछले छह साल में उसने मुझे कई बार कहा है, “रमू, जो हालात हमारे थे, जो दिन हम लोगों ने देखे हैं, वैसे कई लोग यहां पर भी हैं। उन ग़रीब लोगों की समस्याएं पहले सुन लिया करो, उनके काम प्राथमिकता से किया करो। ग़रीब, असहाय लोगों की सिर्फ़ दुआएं कमाना। भगवान तुझे सब कुछ देगा!”

एक बात पक्की है..’संस्कार और प्रेरणा का ऐसा विश्वविद्यालय जब घर में होता है, तब संवेदनशीलता और लोगों के लिए काम करने का जुनून ज़िंदा रखने के लिए और किसी बाहरी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती।’

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