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सऊदी अरब को ब्रिटेन ने क्यों दिए हथियार और ये सौदे क्यों हैं विवादों के घेरे में?

ByPrompt Times

Jul 15, 2020
सऊदी अरब को ब्रिटेन ने क्यों दिए हथियार और ये सौदे क्यों हैं विवादों के घेरे में?

यमन का गृहयुद्ध अब अपने पाँचवें साल में प्रवेश कर चुका है और यहाँ हिंसा में आम नागरिकों की मौत का आँकड़ा लगातार बढ़ रहा है. ऐसे में सऊदी अरब को हथियार बेचने के अपने फ़ैसले को लेकर ब्रिटेन पर दवाब बढ़ता जा रहा है.

कैसे जुड़े हैं ये तीन देश?

कच्चे तेल की प्राकृतिक संपदा से भरपूर सऊदी अरब दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है. वो अरब के सबसे ग़रीब देश पड़ोसी मुल्क यमन में विद्रोहियों को हराने के उद्देश्य से एक हवाई अभियान का नेतृत्व कर रहा है.

पिछले साल जारी एक रिपोर्ट में ब्रिटेन ने ख़ुद को दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियार विक्रेता बताया था. एक आकलन के अनुसार ब्रिटेन ने 40 फ़ीसदी से अधिक हथियार एक ही मुल्क को बेचे हैं, वो है सऊदी अरब.

2019 में जारी ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार यमन युद्ध में सऊदी अरब का मित्र संयुक्त अरब अमीरात भी ब्रिटेन से हथियार ख़रीदने वालों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर है.

अंतरराष्ट्रीय हथियारों के व्यापार में ब्रिटेन केवल अमरीका से ही पीछे है.

यमन में क्या है स्थिति?

एक तरफ मानवाधिकार कार्यकर्ता और ब्रितानी विपक्षी नेता अब सवाल उठा रहे हैं कि अरबों ब्रितानी पाउंड के इस फलते-फूलते हथियार व्यापार का यमन पर क्या असर पड़ रहा है.

दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि यमन के सामने दुनिया का सबसे बुरा मानवीय संकट आ खड़ा हुआ है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार मार्च 2020 तक सऊदी अरब के नेतृत्व में हुए हवाई हमलों में यमन में कम के कम 7,700 आम नागरिकों की जान गई है.

यमन के हालात पर नज़र रखने वाले दूसरे मॉनिटरिंग समूहों का कहना है कि ये आँकड़ा इससे कहीं अधिक है.

अमरीका स्थित आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेन्ट डेटा (एसीएलईडी) के अनुसार दिसंबर 2019 तक यहाँ हिंसा के कारण कम से कम एक लाख मौतें दर्ज की गई हैं, जिसमें हमलों में मारे गए 12,000 आम नागरिक भी शामिल हैं.

यमन की आबादी के 80 फ़ीसदी हिस्से यानी 240 लाख लोगों को मानवीय सहायता और सुरक्षा की आवश्यकता है.

एक आकलन के अनुसार यहाँ 20 लाख बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें पाँच साल की कम उम्र के क़रीब 360,000 बच्चे भी शामिल हैं.

क्या कहती है ब्रितानी सरकार?

पिछले साल ब्रिटेन में मानवाधिकार कार्यकर्ता उस समय एक बड़ी जीत दर्ज करने में क़ामयाब रहे थे, जब अदालत के एक आदेश के ज़रिए वो सऊदी अरब को हथियारों के निर्यात को रोकने में सफल हुए थे.

कार्यकर्ताओं ने ब्रितानी सरकार को हथियारों के समझौते से जुड़ी अपनी नीति की समीक्षा करने के लिए कहा कि कहीं यमन में अंतरराष्ट्रीय कानून का गंभीर उल्लंघन तो नहीं हुआ.

इसके क़रीब एक साल बाद सरकार इस निष्कर्ष तक पहुँची कि वो हथियारों की बिक्री को फिर से शुरू करेगी.

अंतरराष्ट्रीय व्यापार मंत्री लिज़ ट्रस ने ये स्वीकार किया कि मानवधिकार उल्लंघन की कुछ अलग-अलग घटनाएँ हुई ज़रूर हैं लेकिन उन्होंने कहा कि, “सऊदी अरब अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों का पालन करने का इरादा रखता है और वो ऐसा करने की क्षमता भी रखता है.”

सांसदों को दिए गए एक लिखित बयान में उन्होंने कहा, “मानवाधिकारों के संभावित उल्लंघन के लिए जिन घटनाओं का मूल्यांकन किया गया है वो अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग परिस्थितियों में और अलग-अलग कारणों से हुई हैं.”

क्या कहते हैं आलोचक?

लेबर पार्टी की नेता एमिली थॉर्नबेरी अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मामले में विपक्ष की प्रवक्ता भी हैं. उन्होंने सरकार के फ़ैसले को “नैतिक रूप से बचाव न करने योग्य” बताया और कहा कि ये ब्रिटेन के “मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले देश के दावे” को कम करने जैसा है.

पिछले साल इस संबंध में अदालत का रुख़ करने वाले द कैम्पेन अगेन्स्ट आर्म्स ट्रेड (हथियारों के व्यापार के ख़िलाफ़ अभियान) ने इस फ़ैसले को “नैतिक रूप से खोखला” फ़ैसला बताया.

मध्य-पूर्व में हवाई हमलों में हताहत होने वाले आम नागरिकों पर नज़र रखने वाले ब्रिटेन स्थित मॉनिटरिंग ग्रुप एयरवार्स का मानना है कि सऊदी अरब को हथियार बेचने का सरकार का फ़ैसला सही नहीं है.

इस ग्रुप का दावा है कि सऊदी सहयोगियों के अलावा ब्रिटेन के अपने हवाई हमलों के आँकड़े सवालों के घेरे में रहे हैं.

अपनी दलील में ये समूह कथित इस्लामी चरमपंथी समूह इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ चलाए अभियान में पाँच सालों तक हुए हवाई हमलों की बात करता है.

एयरवार्स का कहना है, “ब्रिटेन में जाँच का पैमाना इतने ऊँचे स्तर पर निर्धारित किया गया है कि उसमें आम नागरिकों को होने वाले नुक़सान की बात को साबित करना लगभग असंभव होगा.”

ब्रितानी सरकार के आँकड़ों के मुताबिक़ सीरिया और इराक़ में ब्रितानी फ़ौज ने अमरीकी नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन का हिस्सा रहते हुए “इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ 4,400 हथियार” इस्तेमाल किए हैं.

ब्रिटेन का कहना है कि रॉयल एयर फोर्स एक आम नागरिक की मौत के लिए ज़िम्मेदार है.

एयरवार्स के मुताबिक़ इस दौरान 8,000 से लेकर 13,000 तक आम नागरिक मारे गए हैं. उसका कहना है कि कितने आम नागरिक हताहत हुए हैं, इसे पता करने का ब्रिटेन का तरीक़ा “बेतुका” है.

कितने पैसों के हथियार का सौदा?

कैम्पेन अगेंस्ट आर्म्स ट्रेड (सीएएटी) का कहना है कि ब्रिटेन ने 2015 में यमन की लड़ाई शुरू होने के बाद से सऊदी अरब को 5.3 बिलियन पाउंड के हथियार का लाइसेंस दिया है.

सीएएटी के मुताबिक इन्हीं सालों में खाड़ी में सऊदी अरब के दूसरे सहयोगियों के साथ भी बिलियन पाउंड के अतिरिक्त हथियारों के सौदों को लाइसेंस दिया गया. सऊदी अरब के ये सहयोगी यमन के ख़िलाफ़ अभियान का हिस्सा भी रहे हैं.

लेकिन सीएएटी का यह भी मानना है कि इन आँकड़ों के तहत हथियारों के उन सौदों को नहीं शामिल किया गया है, जो खुले लाइसेंस के तहत किए गए थे. इसके अलावा ब्रिटेन की अग्रणी सुरक्षा कंपनी बीएई ने सऊदी अरब में जो देखरेख, तकनीकी और दूसरी सुविधाएँ प्रदान की है, उसके एवज में कमाए जाने वाले लाभ का भी ज़िक्र नहीं किया गया है.

सीएएटी का मानना है कि सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन से युद्ध शुरू होने के बाद से ‘कम से कम 16 बिलियन पाउंड’ का सौदा किया गया है.

जो हथियार बेचे गए हैं, उनमें टाइफून और टॉरनेडो फाइटर जेट के साथ-साथ वो बम भी शामिल हैं, जो अपने सटीक निशाने के लिए जाने जाते हैं.

ब्रिटेन के अधिकारियों ने सऊदी गठबंधन को बम चलाने को लेकर सलाहें भी दीं और ब्रिटेन में सऊदी सेना के जवानों को प्रशिक्षण भी दिया है.

क्या सिर्फ़ ब्रिटेन ने हथियार बेचे हैं?

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ब्रिटेन ने ही सऊदी अरब से हथियारों का सौदा किया है. सच पूछिए तो अमरीका की तुलना में ब्रिटेन का शेयर बहुत कम है.

स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) के मुताबिक़ 2015 से लेकर 2019 तक सऊदी अरब को मिलने वाले हथियार का 73 फ़ीसदी आयात अमरीका से हुआ है. इस मामले में दूसरा स्थान ब्रिटेन का है, जिसने कुल 13 फ़ीसदी का योगदान दिया है. तीसरे स्थान पर फ्रांस है. 4.3 फ़ीसदी हथियार सऊदी अरब को फ्रांस से मिले हैं.

एसआईपीआरआई के सीनियर रिसर्चर पीटर डी वेजमैन का कहना है कि अमरीका से जितने हथियार का निर्यात मध्य-पूर्व में हुआ है, पिछले पाँच सालों में, उसका आधा अकेले सऊदी अरब को किया गया है.

सऊदी अरब और उसके सहयोगी संयुक्त अरब अमीरात को डोनाल्ड ट्रंप ने “क्षेत्र में ईरान और उसके प्रतिनिधियों के दुर्भावनापूर्ण हरकत के ख़िलाफ़ एक अवरोधक बताया.

माना जाता है कि यमन में हूती विद्रोहियों को सऊदी अरब के ख़िलाफ़ संघर्ष में ईरान का समर्थन हासिल है, हालाँकि ईरान ने इससे इनकार किया है.

भविष्य क्या है?

ब्रिटेन के विदेश मंत्री डोमिनिक रॉब ने फ़ाइनेनशियल टाइम्स में लिखे एक लेख में लिखा है कि ब्रिटेन ने यमन में शांति स्थापित करने और मानवीय मदद पहुँचाने की कोशिश की थी.

उन्होंने आगे लिखा है कि यमन में संघर्ष-विराम के अलावा ब्रिटेन, जर्मनी और स्वीडन संयुक्त रूप से 30 करोड़ 65 लाख डॉलर की सहायता संयुक्त राष्ट्र को मदद के तौर पर देने को प्रतिबद्ध है ताकि इससे यमन में मानवीय सहायता पहुँचाई जा सके.

यमन हैज़ा के अलावा कोरोना की समस्या से भी जूझ रहा है. यमन में सिर्फ़ आधे अस्पताल ही पूरी तरह से काम कर पा रहे हैं.

अप्रैल में सउदी अरब ने कोरोना वायरस महामारी की वजह से एकतरफ़ा संघर्ष विराम की घोषणा की थी. लेकिन हूती विद्रोहियों ने संघर्ष विराम को खारिज कर दिया और राजधानी साना और हुदैदाह में हवाई और समुद्री नाकेबंदी को ख़त्म करने की मांग की.

फिलहाल नाकेबंदी की स्थिति बनी हुई है और संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि युद्ध की विभीषिका से भी अधिक गंभीर परिणाम आगे भुगतने पड़ सकते हैं.

संयुक्त राष्ट्र ने कहा है, “कोरोना वायरस से मरने वालों की कुल संख्या पिछले पाँच सालों में युद्ध, बीमारी और भूख से मरने वालों से अधिक हो सकती है.”





















BBC

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