22 अक्टूबर 2021 | केरल में फिर से बेमौसम बाढ़ आई. बारिश के कहर से मरने वालों की संख्या 27 हो चुकी है.बारिश के कारण केरल में गंभीर स्थिति बनी हुई है क्योंकि मौसम विभाग ने 20 अक्टूबर से तीन या चार दिनों के लिए भारी बारिश की चेतावनी दी है.लेकिन केरल के हालात ने एक बार फिर भूमि उपयोग नीतियों की आवश्यकता को सामने रखने का काम किया है. जलवायु वैज्ञानिकों के लिए यह सबसे ताज़ा उदाहरण बन गया है, जिसके आधार पर वे यह कह सकें कि भारतीय राज्यों में भूमि उपयोग नीतियों की आवश्यकता है. ऐसी नीतियां जो जलवायु परिवर्तन की अनियमितताओं का सामना करने के अनुरूप हों.वैज्ञानिकों ने हाल के सालों में न केवल केरल बल्कि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और गोवा जैसे प्रमुख राज्यों के हालात के आधार पर इस ओर इशारा किया है.ये राज्य देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं लेकिन बीते कुछ सालों में हुई भारी और असामान्य बारिश के कारण काफ़ी नुकसान देखना पड़ा है.आमतौर पर इस तरह की किसी भी अनियमितता के संदर्भ में हमेशा ही यह कह दिया जाता है कि यह सब ‘जलवायु परिवर्तन’ या ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण है.वैज्ञानिकों का कहना है कि यह एक कटु सत्य है लेकिन बात सिर्फ़ इतनी भी नहीं है. इसके अलावा भी काफ़ी कुछ है, जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.दिवेचा सेंटर फ़ॉर क्लाइमेट चेंज, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस (आईआईएससी) बेंगलुरु के जाने-माने वैज्ञानिक प्रो. जे. श्रीनिवासन कहते है कि हाल के दिनों में केरल में जो घटनाएं सामने आई हैं, उनके पीछे भूस्खलन और बाढ़ मुख्य स्थानीय वजहें रही हैं. हालांकि, जलवायु परिवर्तन के कारण इन घटनाओं की तीव्रता और दोहराव ज़रूर बढ़ी है.जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र में वैज्ञानिक डॉ रॉक्सी मैथ्यू कोल एक क़दम और आगे बढ़ते हुए कहते हैं कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने या फिर उसके लिए तैयार रहने के लिए ज़रूरी है कि शहरी और ग्रामीण विकास नीति को पूरी तरह से तुरंत अलग किया जाए.16 अक्टूबर को हुई मूसलाधार बारिश में ना जाने कितने घर ताश के पत्तों की तरह बिखर गए. पुल बह गए. इस हादसे में अब तक 27 लोगों के मौत की पुष्टि की जा चुकी है.इससे पहले केरल में अगस्त 2018 में भी भारी बारिश के चलते बाढ़ आई थी. तब राज्य के 14 में से 13 ज़िले बुरी तरह प्रभावित हुए, जिससे लगभग 500 लोग मारे गए थे हाल के सालों में देश के प्रमुख शहरों ख़ास तौर पर मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और बेंगलुरु में आई बाढ़ ने शहरी विकास की कमियों को उजागर किया है. सेमी-अर्बन या सेमी-रूरल क्षेत्र भी इसी क्रम में आ गए हैं.
क्या बारिश अब पहले से अधिक हो रही है?
अगर आँकड़ों की बात करें तो ऐसा नहीं है. आँकड़ों के अनुसार ऐसा नहीं है कि मौसमी बारिश अधिक हो रही है.प्रोफ़ेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि इस मौसम में अच्छी बारिश होना कोई असामान्य बात नहीं है. लेकिन हाँ यह ज़रूर है कि अधिक बारिश यानी ह्यूमिडिटी का अधिक होना. पिछले 120-130 सालों में धरती का औसत तापमान क़रीब 1.3 सेंटीग्रेड बढ़ गया है, इसलिए आर्द्रता (ह्यूमिटी) नौ से दस प्रतिशत तक बढ़ जाती है.डॉ कोल कहते हैं कि अगर लंबे समय तक बारिश नहीं हो रही है तो इसका मतलब यह है कि हवा उस नमी को धारण कर रही है. नमी जमा होती रहती है. इसलिए जब बारिश होती है तो वह कुछ क्षणों में ही सारी नमी को छोड़ देती है. वही जलवायु परिवर्तन है, जिसे हम ऐसी घटनाओं से आसानी से समझ सकते हैं.डॉ. कोल कहते हैं कि ठीक उसी समय अगर आप इन क्षेत्रों में हो रही कुल वर्षा को देख रहे हैं तो आप पाएंगे की इसमें कमी आई है. जबकि भारी और एकाएक अत्यधिक बारिश की घटनाओं में वृद्धि हुई है.नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओशियनोग्राफ़ी, गोवा के पूर्व संयुक्त निदेशक डॉ जी नारायण स्वामी इस तर्क को ख़ारिज करते हैं कि भारी बारिश बादल फटने के कारण हुई थी.उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा कि आईएमडी ने घोषणा की थी कि बारिश अपने सामान्य पैटर्न के अनुसार ही थी, पूरी तरह से सही है. यह अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के बीच लो प्रेशर बैलेंस के कारण था न कि बादल फटने की घटना, जैसा केरल में कुछ लोग इसे बता रहे हैं.डॉ. स्वामी कहते हैं कि बारिश होने के कारण चिंताजनक नहीं हैं, हाँ लेकिन इसके कारण पड़ने वाला प्रभाव चिंताजनक ज़रूर है.प्रोफ़ेसर श्रीनिवासन कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हर रोज़ 100 मिमी की बारिश होने की घटना कई बार हुई होगी लेकिन अगर एक घंटे में 100 मिमी की बारिश हो रही है तो यह बादल फटना है जो कि एक दुर्लभ घटना है.
क्या दक्षिण पश्चिम और उत्तर पूर्व मॉनसून के बीच का अंतर ख़त्म होता जा रहा है?
यह बहुत पुरानी बात नहीं है लेकिन दक्षिण पश्चिम मॉनसून और उत्तर पूर्व मॉनसून के बीच कम से कम तीन सप्ताह का अंतराल हुआ करता था.लेकिन हाल के सालों में यह अंतर काफ़ी कम हो गया है. इसके कारण यह बहस भी छिड़ गई है कि क्या हाल में हुई वर्षा की नवीनतम घटना वास्तव में दक्षिण पश्चिम मॉनसून के कारण था या फिर दो मॉनसूनों के बीच एक असामान्य घटना.एनजीओ केयर अर्थ रिसर्च बायोडायवर्सिटी चेन्नई की प्रमुख जयश्री वेंकटेशन कहती हैं, “न केवल केरल में बल्कि पूरे प्रायद्वीपीय भारत में यह अंतर बहुत कम हो गया है. दो ज़िलों को छोड़ दिया जाए तो तमिलनाडु पूरी तरह से उत्तर पूर्वी मॉनसून पर निर्भर है. पिछले दो-तीन साल से केरल में लौटते मॉनसून की बारिश हो रही है. पहले केरल में ऐसा नहीं होता था. डॉ. स्वामी के अनुसार, जनवरी और फ़रवरी को छोड़कर साल में कभी भी केरल में बारिश हो सकती है | -हालांकि, डॉ कोल का मानना है कि मॉनसून के पैटर्न में बदलाव के संकेत तो हैं लेकिन फिर भी अगर यह कोई पैटर्न है तो कोई स्पष्टता नहीं है.
यह मानव निर्मित क्यों है?
वैज्ञानिकों का मानना है कि भारी बारिश के कारण जो असर होता है, वह प्रभाव जलवायु परिवर्तन के कारण ज्यादा नहीं है बल्कि इसके पीछे एक साधारण सी बात बस इतनी है कि बारिश के पानी को निकास के लिए जगह नहीं मिलती.डॉ. स्वामी के अनुसार, इससे पहले तक यही ज़मीन बारिश का पूरा पानी अवशोषित कर लेती थी लेकिन अब धरती पानी अवशोषित नहीं कर पाती है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि तब के और अब के ज़मीन के इस्तेमाल के तरीक़े में काफी बदलाव आया है. ख़ासतौर पर केरल जैसे राज्यों में. पानी खेतों में नहीं जा पाता. जो नालियां हैं या मेड़ें हैं वो इतनी संकरी हैं कि वो बहुत जल्दी भर जाती है. इस बार ऐसा ही हुआ है.प्रोफेसर श्रीनिवासन ज़ोर देते हुए कहते हैं कि पश्चिमी घाट में होने वाला भू-स्खलन या बाढ़ के पीछे सबसे बड़ी वजह वनों की कटाई है. सड़क निर्माण और उत्खनन के कारण भी इन आपदाओं में वृद्धि हुई है.डॉ कोल के अनुसार, “हाल के सालों में पश्चिमी घाटों और केरल में ज़मीन के इस्तेमाल को लेकर कई तरह के बदलाव आए है. कई पहाड़ियों का ढलान 20 डिग्री है, इसलिए, जब बारिश होती है, तो ये पहाड़ियां ख़तरनाक हो जाती हैं.”वह कहते हैं, “जब हम जलवायु परिवर्तन के एक्शन प्लान पर काम करते हैं तब भी कई राज्य वर्षा, बाढ़, भूस्खलन के हमारे डेटा का उपयोग करते हैं और हम उन्हें सुझाव देते हैं कि वे आगे क्या करें.”डॉ. कोल के मुताबिक़, “हमें एक क्लाइमेट चेंज एक्शन प्लान की ज़रूरत है, जो भविष्य को ध्यान में रखकर हो और जिसे लेकर हमारे पास लॉन्ग टर्म प्लान हो. हमारे पास डेटा है और उनके आधार पर हम मानचित्र बनाते हैं ताकि संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर सकें और यह तय कर सकें कि किस तरह से विकास का काम करने की ज़रूरत है.”लेकिन, ऐसा लगता है कि भारत जलवायु परिवर्तन के ख़तरे से सुरक्षित रहे, इसके लिए वैज्ञानिकों ने जो समय-सीमा तय की है उससे कहीं अधिक समय लगेगा.
Source :- बीबीसी न्यूज़