10 अगस्त 2022 | भारत की सम्प्रभुता के बीच एक पहलू यह है कि यह शत्रुतापूर्ण पड़ोसियों के बीच स्थित है और उसकी सीमाओं की सुरक्षा पर खतरा बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त सीमा के अंदर उग्रवाद-विरोधी अभियानों में बहुत जनशक्ति-आर्थिक संसाधन खर्च हो रहे हैं। इसलिए आधुनिक हथियारों के अनुसंधान और विकास में हम चीन-अमेरिका से मुकाबला नहीं कर पाते हैं। ये दोनों देश बजट का बड़ा हिस्सा रक्षा के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों के विकास पर खर्च करते हैं।
चीन से खतरे की गंभीरता और व्यापकता को समझना आवश्यक है। चीनियों ने देश निर्माण और अपनी हान संस्कृति एवं ऐतिहासिक पहचान के संरक्षण से अपनी दूरदर्शी सोच की क्षमता को दिखा दिया है। रणनीतिक प्रौद्योगिकियों में एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को प्राथमिक रूप से इस्तेमाल करके उनका लक्ष्य पश्चिम से आगे निकलने का है। कुछ दशकों पहले तक भारत चीन के साथ बराबरी पर था लेकिन हाल ही के वर्षों में वह विकास की दौड़ में पीछे हो गया है।
भारत और चीन के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि भारतीय अपनी प्रगति को अपने ही अतीत के साथ तुलना करके मापते हैं जबकि चीन हर क्षेत्र में अपना लक्ष्य विश्व के सबसे श्रेष्ठ प्रतियोगी से आगे निकलने का रखता है। चीन का दृष्टिकोण अत्यधिक प्रतिस्पर्धात्मक है और प्रगति का आकलन कभी भी वो स्वयं को सन्दर्भ-बिंदु मानकर नहीं करता। चीन ने अमेरिका को हर क्षेत्र में पीछे छोड़ने की अपनी योजनाएं घोषित कर दी हैं- जिसमें प्रौद्योगिकी, अर्थशास्त्र, सैन्य शक्ति, भूगोलीय राजनीति शामिल हैं।
विश्व पर अपने प्रभुत्व की आशा में प्रमुख रूप से कन्फ्यूशियस संस्थान शुरू किए, ताकि चीन की सांस्कृतिक व सौम्य-शक्ति को बढ़ावा दे सके। लगभग 500 कन्फ्यूशियस संस्थान अब छह महाद्वीपों में हैं। प्रभुत्व की लड़ाई में चीन-अमेरिका की भिड़ंत अवश्यम्भावी है। सवाल है भारत इस टकराव में कहां खड़ा है? निकट भविष्य में भारत संभवतः रक्षा के लिए एआई प्रौद्योगिकी का उपभोक्ता बना रहेगा, जिसका मतलब यह है कि वह चीन और अमेरिका से दो कदम पीछे रहेगा।
चीन के बायडू, अलीबाबा और टेनसेंट (बीएटी) अपने प्रौद्योगिकीय पदचिह्नों को विश्व भर में फैलाने की महत्वाकांक्षा में अमेरिका के गूगल-फेसबुक की तरह हैं। प्रौद्योगिकीय निवेश में इन विदेशी कंपनियों के विश्व भर में आगे होने से, इन्हें भारत के प्रारंभिक चरण की कंपनियों को आंकने का अनुभव मिला, ताकि वे सबसे अधिक क्षमता वाली कंपनियां चुन सकें।
यहां चीनी टेक्नोलॉजी दिग्गजों के द्वारा सीधा निवेश किया गया है और बहुत सारे निवेश तीसरे विश्व के देशों के रास्ते करवाए गए हैं (जैसे सिंगापुर) ताकि भारतीय सरकार के आधिकारिक दस्तावेजों में वे चीनी निवेश के रूप में ना दिखाई दें। किसी स्तर पर भारत की सम्प्रभुता अपने विदेशी हथियार आपूर्तिकर्ताओं के हुक्म के अधीन है। यही कारण है कि भारतीय सैन्य बल ने एआई को गंभीरता से लेना शुरू किया है और उसे ऐसा खतरा माना है, जो वर्तमान हथियारों और सैनिकों को पुराना कर देगा।
विशेषज्ञों ने यह माना है कि एआई के अधिकतर भारतीय सैन्य अनुप्रयोग अभी भी वैचारिक चरण में हैं। अमेरिका, चीन, रूस, इजराइल और कई अन्य देशों के प्रयासों की तुलना में भारतीय परियोजनाओं का बजट बहुत ही कम वित्तपोषित है। भारतीय उद्योग और सैन्य बल के लिए बनाई गई कुछ योजनाएं भारत को विदेशी प्रौद्योगिकीय मंचों पर और अधिक आश्रित बनाती हैं, क्योंकि भारत ने हथियारों के लिए अनुसंधान पर पर्याप्त निवेश नहीं किया है।
सबसे बड़ी समस्या ये है कि एआई प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल मंचों के विदेशी मालिकों की भारत में कोई कानूनी जवाबदेही नहीं है। भारत के अपने रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार हमारी आवश्यकताएं आंतरिक उत्पादन से पूरी नहीं हो सकतीं। भारत ने हमेशा रक्षा उपकरणों का आयात किया है- सबसे पहले रूस से, फिर फ्रांस, अब तेजी से अमेरिका-इजराइल से।
अत्याधुनिक रक्षा प्रणालियों को खरीदने के लिए भारत को निर्यात से धन कमाना होगा और इसके लिए भारत को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक उद्योग की जरूरत है। प्रभावी रूप से भारत भूगोलीय राजनीति के कुरुक्षेत्र से पलायन नहीं कर सकता है। सबसे अलग होकर रहना एक व्यावहारिक विकल्प नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सोर्स :- “दैनिक भास्कर”