• April 26, 2024 9:14 pm

हिमालय के साथ हिमालयवासियों की चिंता भी जरूरी

ByPrompt Times

Sep 10, 2020
हिमालय के साथ हिमालयवासियों की चिंता भी जरूरी

अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक फैला पर्वतराज हिमालय आज न केवल पर्यावरणविदों अपितु आपदा प्रबंधकों की भी चिंता का विषय बना हुआ है। कहीं बाढ़ तो कही भूस्खलन और जलवायु परिवर्तन से उपजी नई समस्याएं स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि नगाधिराज की तबियत निश्चित रूप से नासाज है और किसी महाविनाश से पहले ही इसके इलाज की तत्काल जरूरत है।

लेकिन हिमालय के प्रति उठ रही चिंताएं तब तक निरर्थक ही हैं जब तक कि हम हिमालय और हिमालय की गोद में बसे करोड़ो लोगों के अन्तर्सबंधों को भी इस चिंता में शामिल नहीं करते। वास्तव में हिमालयवासी भी एशिया का ऋतुचक्र तय करने वाले हिमालय के पारितंत्र के ही अभिन्न अंग हैं। इसलिए हिमालय और हिमालयवासियों की वेदनाओं को हम अलग-अलग चस्मों से नहीं देख सकते।
5 करोड़ से अधिक हिमालयवासियों के अस्तित्व का सवाल महान हिमालय एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्वत श्रृंखला है जिसकी गोद में पाकिस्तान, भारत, नेपाल, चीन, भूटान बसे हुए हैं। इन देशों की हिमालयी आबादी लगभग 5.27 करोड़ है जो कि हिमालय पर आश्रित है।

यद्यपि अफगानिस्तान की हिंदूकुश श्रृंखला और म्यमार का हकाकाबो राजी भी हिंदूकश हिमालय नदी प्रवाहतंत्र का ही हिस्सा है मगर सामान्यतः उनको मुख्य हिमालय में नहीं जोड़ा जाता। फिर भी संसार की इस सबसे बड़ी और ऊंची पर्वत श्रृंखला की एक जैसी ही पर्यावरणीय समस्याएं होने के साथ ही उसके निवासियों के सामने लगभग समान ही चुनौतियां हैं।

हिमालय का पारितंत्र (इको सिस्टम) डगमगाने से भारतीय हिमालय की गोद में बसे राज्यों में से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के अलावा असम के हिमालयी क्षेत्र कार्बी एन्लौंग और दिमा हसाओ तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी जिले दार्जिंलिंग सहित कुल 4,67,90,642 की आबादी (2011 की जनगणना) सीधे प्रभावित होती है।

इसलिए इन साढ़े चार करोड़ से अधिक लोगों का भविष्य और अस्तित्व सीधे-सीधे हिमालय से और हिमालय के पारितंत्र का सीधा संबंध इस आबादी से जुड़ा हुआ है। अगर इन पर्वतवासियों के कारण हिमालय का पारितंत्र प्रभावित हो रहा है तो हिमालय भी सीधे-सीधे इनके जनजीवन को प्रभावित कर रहा है।

इसलिए हिमालय की वेदना को इनकी वेदना से अलग नहीं किया जा सकता। हिमालयी क्षेत्र प्राकृतिक तथा मानवजनित विभीषिकाओं की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है तथा यहां के निवासियों पर ऐसी घटनाओं का खतरा निरंतर बना रहता है।

जलवायु परविर्तन का सीधा प्रभाव आजीविका पर
अफगानिस्तान से लेकर भूटान और मिजोरम तक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इस समूचे क्षेत्र को भूकंपीय दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही लोकल वार्मिंग से ग्लेशियरों के निरंतर पीछे हटने की बात वैज्ञानिक कर रहे हैं।

इसके साथ ही आबादी वाले क्षेत्रों तक हिमखंड स्खलन (एवलांच) की घटनाएं बढ़ रही हैं। ग्लेशियर पीछे खिसकेंगे तो वनस्पतियां भी ऊंचाई वाले शुष्क मरुस्थलों की ओर बढ़ेंगी जो कि वनस्पति विहीन होते हैं। वनस्पतियां ऊपर चढ़ेंगी तो मानसून भी केदारनाथ की आपदा की ही तरह स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र (क्रायोस्फीयर) की ओर बढ़ेगा।

मौसम चक्र में परिवर्तन से समय से पहले ही मानसून आने से हिमाच्छादित क्षेत्रों की बर्फ के तेजी से गलने से केदारनाथ की जैसी अकल्पनीय बाढ़ आ जाएगी। कुछ समय से बादलों के घर मेघालय में पानी की समस्या महसूस की जाने लगी है। इस क्षेत्र में अधिकांश आबादी ग्रामीण और कृषि-बागवानी पर निर्भर है।

लेकिन कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि या ओलावृष्टि की मार इन लोगों पर निरंतर पड़ रही है। बदलते मौसम का दुष्प्रभाव उनके पशुपालन जैसे आजीविका के अन्य साधनों पर भी पड़ रहा है
 

एक अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र में विश्व की 50 से लेकर 60 प्रतिशत तक आबादी निवास करती है…

हिमालयवासियों पर आपदाओं की मार
केदारनाथ की जल प्रलय को हिमालय के पर्यावरणीय असंतुलन का सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है। इस आपदा के लिए समय से पहले मानसून के आ धमकने और केदारनाथ से भी कहीं ऊपर चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने को जिम्मेदार माना जाता है। जबकि इतनी ऊंचाई वाले क्रायोस्फीयर में वर्षा होने का पिछला कोई रिकार्ड नहीं है।

हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लंबा इतिहास है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है। उत्तराखंड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गये थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गई।

हिमाचल प्रदेश की सतलुज नदी में भी एक बाद एक विनाशकारी बाढ़ आती रहीं हैं। अगस्त 2000 में जब सतलुज में बाढ़ आई तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलसतर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था।

इसके एक महीने के अंदर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गई। दरअसल पहले रिमझिम बारिश होती थी। ज्यादा से ज्यादा बारिश की झड़ियां लगतीं थीं। लेकिन अब तो इन हिमालयी राज्यों में लगभग हर रोज कहीं न कहीं बादल फटने लगे हैं। 

एशिया की सभी प्रमुख नदियों का स्रोत 
प्रकृति के नियमानुसार वहां पहुंची नमी सीधे वर्फ में बदल कर शिखरों पर बिछ जाती है। यही बर्फ सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की नदियों को पानी देती है। अगर हिमालय का पारितंत्र गड़बड़ा गया तो प्रकृति की यह जलापूर्ति व्यवस्था भी गड़बडा़ जाएगी और इस असंतुलन से सूखा और केदारनाथ की बाढ़ जैसी विपदाएं आ जाएंगी जिनसे न केवल हिमालयवासी बल्कि चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान की आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित होगी।

एक अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र में विश्व की 50 से लेकर 60 प्रतिशत तक आबादी निवास करती है। भारत में ही हिमालय से उद्गमित ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु के बेसिनों में देश का 43 प्रतिशत क्षेत्र आता है और देश की सभी नदियों के प्रवाहमान और भूमिगत जल राशि का 63 प्रतिशत इन तीनों नदियों में है।

इन नदियों को सदानीरा बनाए रखने में भारतीय हिमालय के पूर्व से लेकर पश्चिम तक में फैले लगभग 9575 छोटे बड़े ग्लेशियरों, हिम तालाबों, बुग्यालों और जंगलों का महत्वपूर्ण योगदान है। वैसे संपूर्ण हिंदूकुश-हिमालय में इसमें अंटार्कटिक और आर्कटिक के बाद सबसे अधिक वर्फ जमा है। इसरो की 2010 की रिपोर्ट के अनुसार सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिन क्षेत्र के 71,182 वर्ग किमी क्षेत्र में 32,392 छोटे बड़े ग्लेशियर अनुमानित किए गए। इससे पहले 32,182 वर्ग किमी क्षेत्र में 16,117 ग्लेशियर अनुमानित थे जिनमें 3421 घन किमी वर्फ के जमाव अनुमान था।

हिमालयवासियों को ग्रीन बोनस की दरकार
दरअसल विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण इस हिमालयी क्षेत्र के निवासियों की अपनी कुछ विशिष्ट कठिनाइयां भी हैं। इनका जीवन कठिन होने के साथ ही यहां औद्योगिक विकास के अवसरों में कमी के कारण रोजगार के अच्छे अवसरों का भी नितांत अभाव है। हिमालयी राज्यों के ऊपर पर्यावरण संबंधी विशिष्ट नियंत्रण के कारण भी यहां आधारभूत संरचना का विकास भी सीमित हो जाता है।

भारत सरकार की “उत्तर पूर्व की ओर देखो” या “लुक नॅार्थ ईस्ट” नीति के तहत हिमालय के उस हिस्से पर सरकार विशेष ध्यान देने लगी है। उत्तर पूर्वी राज्यों के लिए केंद्र सरकार में अलग मंत्रालय बन चुका है। उसे डोनर मंत्रालय भी कहा जाता है।

इसी प्रकार उस हिमालयी क्षेत्र के लिए उत्तर पूर्व परिषद ( एनईसी) जैसी संस्था भारत सरकार और उत्तरपूर्वी राज्यों के बीच सीधी कड़ी का काम कर रही है। विशेष संवैधानिक प्रावधानों और सामरिक महत्व के कारण जम्मू-कश्मीर को पहले से ही विशेष दर्जा मिला हुआ है।

अब केवल उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ही ऐसे हिमालयी प्रदेश रह गए हैं जिनको विकास की दृष्टि से हिमालयी बिरादरी से अलग-थलग रखा गया है। इन राज्यों के हिमालय के पर्यावरण के संरक्षण में विशेष योगदान या अपने विकास की कीमत पर पर्यावरण की चैकीदारी का ग्रीन बोनस देने से भी भारत सरकार कतरा रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *