देश की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुज़र रही है. अर्थशास्त्री इसके लिए नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन जैसे क़दमों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं.
2020-21 वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल से जून के बीच विकास दर में 23.9 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. जीडीपी में आई इस बड़ी गिरावट के लिए पहले से सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था के दौरान लॉकडाउन लागू करने को ज़िम्मेवार बताया गया है.
मोदी सरकार ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की थी जिसके बाद से ही अर्थव्यवस्था में सुस्ती देखी जा रही है. पिछले कुछ सालों में बेरोज़गारी दर में भी भारी वृद्धि देखी गई है.
इस साल के जनवरी में बीबीसी से बातचीत में विश्व बैंक के सीनियर वाइस-प्रेसिडेंट और मुख्य आर्थिक सलाहकार पद पर काम कर चुके कौशिक बसु ने कहा था, “अगर आप बेरोज़गारी के आंकड़े देखेंगे तो यह 45 सालों में सर्वाधिक है. पिछले 45 सालों में कभी भी बेरोज़गारी की दर इतनी अधिक नहीं रही. युवा बेरोज़गारी की दर काफ़ी अधिक है. बेरोज़गारी की दर में बढ़ोत्तरी और ग्रामीण खपत में कमी को आपातकालीन स्थिति की तरह लिया जाना ज़रूरी है.”
श्रम भागीदारी से अर्थव्यवस्था में सक्रिय कार्यबल का पता चलता है. सेंटर फॉर इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक यह श्रम भागीदारी 2016 में लागू की गई नोटबंदी के बाद 46 फ़ीसद से घटकर 35 फ़ीसद तक पहुँच गई थी. इसने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है.
आज़ादी के बाद भारत में इस तरह का आर्थिक संकट इससे पहले 1991 के दौरान आया था. हालांकि 2008 में आई वैश्विक मंदी की वजह से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर आंशिक रूप से प्रभाव पड़ा था लेकिन तब भारत का घरेलू उत्पादन मज़बूत स्थिति में था और 2008 में जीडीपी दर क़रीब 9 प्रतिशत थी.
क्या अंतर है दोनों संकटों में
मौजूदा आंकड़ों के हिसाब से इस बार का आर्थिक संकट 1991 के आर्थिक संकट से भी कहीं बड़ा नज़र आता है लेकिन अर्थशास्त्री मानते हैं कि ये दोनों ही आर्थिक संकट कई मायनों में एक-दूसरे से अलग हैं.
अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा कहती हैं कि 1991 में जब भारत में आर्थिक संकट आया था तब दुनिया के दूसरे हिस्सों में स्थिति बेहतर थी. वैसी स्थिति में भारत को ज़रूरत पड़ी थी. तब हम दूसरे देशों से मदद ले सकते थे क्योंकि वो मदद देने की स्थिति में थे. लेकिन कोरोना महामारी ने अभी पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को दबाव में डाल दिया है. लगभग सभी देश इस संकट से जूझ रहे हैं.
वो बताती हैं, “उस वक्त के संकट में डॉलर के रिज़र्व बहुत कम रह गए थे और आयात करने की आपकी क्षमता समाप्त हो गई थी. तब सोना गिरवी रखना पड़ा था और उसके बदले में लोन मिला था. लेकिन आज जो संकट पैदा हुआ है, वो काफ़ी हद तक आपने ख़ुद से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर पैदा किया है. जब बहुत सीमित मामले थे तभी शुरू के दौर में ही सख्त और व्यापक लॉकडाउन लगा दिया गया. जबकि इसे चुनिंदा जगहों पर लगाना चाहिए था. इससे पहले से आ रही आर्थिक सुस्ती पर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.”
“दो फ़ैसलों की वजह से ग्रोथ रेट पहले ही कम हो गया था. इसमें नोटबंदी नीतिगत रूप से एक ग़लत फ़ैसला था और उसका क्रियान्वयन भी बहुत बुरे तरीके से किया गया. दूसरा फ़ैसला था जीएसटी का. इससे फ़ायदे को लेकर फिर भी कुछ आर्थिक तर्क दिया जा सकता है लेकिन इसके क्रियान्वयन में बहुत गड़बड़ियाँ थीं. कुछ बाहरी कारणों से भी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा था. इस पर लॉकडाउन के रूप में और बड़ा झटका दे दिया गया.”
आर्थिक मामलों के जानकार भरत झुनझुनवाला कहते हैं कि इस बार के आर्थिक संकट में एक बाहरी फ़ैक्टर कोविड-19 का है जबकि उस वक़्त ऐसा कोई संकट नहीं था. 1991 में जो भारत में आर्थिक संकट आया था, उसके लिए मूल रूप से हमारी नीतियाँ दोषी थीं जिसे ठीक कर कमोबेश उससे बाहर निकल आए थे.
वो कहते हैं, “इस वक्त एक तो हमारी नीतियों की वजह से संकट पैदा हुआ है. जीडीपी में पिछले चार सालों से गिरावट दर्ज की जा रही है. यह सिर्फ़ अभी तो हुआ नहीं है. दूसरा इसमें कोविड ने और संकट बढ़ा दिया है. इसलिए ज़रूरी है कि पिछले चार सालों में जिन वजहों से गिरावट पैदा हुई है, उसे ठीक किया जाए लेकिन भारत सरकार इस दिशा में अब भी उल्टा चल रही है. वो उन नीतियों को ठीक करने के बजाए, उन्हीं नीतियों को और ज़ोर से लागू कर रही है.”
मौजूदा आर्थिक संकट के लिए सबक़
1991 के आर्थिक संकट से जिस तरह से निपटा गया था क्या उस तरीक़े से मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने को लेकर कोई सबक़ मिलता दिखाई पड़ता है?
रीतिका खेड़ा इस पर कहती हैं, “ये दोनों ही परिस्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं. उस वक्त अर्थव्यवस्था में काफी नियंत्रण था जिसे उदारीकरण के रूप में पूरा खोला गया. लेकिन उससे इस वक्त में मदद नहीं मिलने वाली है क्योंकि पहले से बाज़ार को हमने बहुत खोल रखा है. बाहर के विकसित देशों की जो बड़ी कंपनियाँ हैं, वहाँ उनके बाज़ार में खुद मांग सीमित हो गई है. वो अब दूसरे देशों के बाज़ार की ओर देखेंगे. इसलिए उनकी ओर से दबाव तो पड़ेगा लेकिन इससे हमारे घरेलू बाज़ार और उत्पाद पर क्या असर पड़ेगा इस पर विचार करना होगा. इसे नज़रअंदाज नहीं कर सकते. दोनों में संतुलन बनाना ज़रूरी है ना कि बाहर के निवेश को पूरी तरह से रोक दिया जाए. ताकि घरेलू उत्पादक क्षेत्र पर बहुत बुरा प्रभाव ना पड़े.”
भरत झुनझुनवाला पिछले आर्थिक संकट से सबक़ लेने की बात पर कहते हैं कि हमें मूल समस्या को ठीक करने पर ज़ोर देना चाहिए. पिछली बार मूल समस्या यह थी कि हमने रुपये को ओवर वैल्यू कर रखा था. रुपये का दाम अधिक होने की वजह से निर्यात नहीं हो पा रहा था और आयात ज़्यादा थे. जिसे मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए ठीक किया गया और रुपये का मूल्य जो पहले पांच या साढ़े पांच था उसे बढ़ाकर 15 और फिर बाद में 25 आ तक गया. इससे उस संकट से निपटने में मदद मिली.
भरत झुनझुनवाला लेकिन इस बात को नहीं मानते हैं कि विनिवेश की वजह से ही मुख्य तौर पर 1991 के आर्थिक संकट से निपटने में मदद मिली थी.
वो कहते हैं, “उस वक्त मुख्य तौर पर यह हुआ था कि हमने रुपये का डिवैल्यूशन बाज़ार के हवाले कर दिया और लाइसेंसी राज में कटौती की. इन दोनों कदमों से निजी क्षेत्र को बल मिला. अगर विनिवेश देखा जाए तो उस दौर में बहुत कम हुआ है. अरूण शौरी ने भले ही उस दिशा में बेहतरीन काम किया लेकिन वो मुख्य मुद्दा नहीं था.”
“अभी के दौर में विदेशी कंपनियाँ भारत में निवेश नहीं करने जा रही हैं लेकिन भारत सरकार को यह बात नहीं समझ आ रही है और वो अभी भी उसी विदेशी निवेश के पीछे पड़े हुए हैं. घरेलू निवेश को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं. मेक इन इंडिया का सिर्फ़ दिखावा कर रहे हैं. अगर वास्तव में मेक इन इंडिया सरकार करना चाहती है तो फिर आयात कर बढ़ा दे. उसके बाद खुद ही मेक इन इंडिया चालू हो जाएगा.”
BBC