• June 17, 2024 9:11 am

31 साल में कई बच्चों को पाल पोसकर डॉक्टर-सोल्जर बनाया

08 मई 2022 | 94 साल की एक मां अपने 40 से ज्यादा बच्चों का पालन-पोषण कर रही हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी और शादी तक की जिम्मेदारी को निभा रही है। कई बच्चे आज डॉक्टर, आर्मी, टीचर सहित अन्य सरकारी पदों पर हैं। मां ने बच्चों को अपने अनुभव से जिंदगी जीने का सबक सिखाया है। इस मां का जीवन भी आसान नहीं रहा। बचपन कराची में बीता था। महात्मा गांधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा को आदर्श मानने वाली इस बुजुर्ग मां ने देश के बंटवारे का दर्द भी देखा था। मदर्स-डे पर आज हम आपको इस मां के बारे में बता रहे हैं।

ये मां है, सीकर में रहने वाली सुमित्रा शर्मा। यह शेखावाटी की मदर टेरेसा के नाम से भी पहचानी जाती है। अब तक इस मां ने 2500 से ज्यादा बच्चों की जिंदगी को संवारा हैं। सुमित्रा जी से मिलने हम उनके संस्थान पहुंचे और बात कर उनके इस सफर के बारे में जाना।

सीकर के भादवासी गांव में उनका कस्तूरबा सेवा संस्थान है। वर्तमान में यहां करीब 40 से ज्यादा बच्चे रह रहे हैं। भास्कर टीम पहुंची तो दो मंजिला इस भवन के बाहर एक बड़ा गेट लगा हुआ था। अंदर गए तो ग्राउंड में बच्चे खेल रहे थे और कुछ महिलाएं उनके पास थी। सुमित्रा जी के बारे में पूछा तो, बच्चों ने बोला- मां अंदर है। इतने में संस्थान के इंचार्ज हरीनारायण सिंह आए और मां के पास लेकर गए।

बॉर्डर वाली सफेद साड़ी और आंखों पर चश्मा
संस्थान के ऑफिस में गए तो सफेद साड़ी, आंखों पर चश्मा, चेहरे पर झुर्रियां लेकिन चमक के साथ एक बुजुर्ग महिला कुर्सी पर बैठी थी। ये महिला थी, 94 साल की सुमित्रा शर्मा। बातचीत का दौर शुरू हुआ तो उन्होंने अपनी जिंदगी के हर पन्ने को खोलकर रख दिया।

संस्थान में 40 से ज्यादा बच्चे
सुमित्रा ने बताया कि वर्तमान में संस्थान में 40 से ज्यादा बच्चे हैं। सभी बच्चे उन्हें मां कहकर बुलाते हैं। उन्होंने बताया कि 6 साल की उम्र से ऊपर के बच्चों को समाज कल्याण विभाग के अप्रूवल के बाद ही संस्थान में रखा जाता है। 18 साल की उम्र के बाद बच्चों को जयपुर में समाज कल्याण के हॉस्टल में शिफ्ट कर दिया जाता हैं। इस बीच अनाथ बच्चों को कई परिवार गोद भी लेकर जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो संस्थान में उनकी देख-रेख की जाती हैं। जब तक बच्चे खुद के पैरों पर खड़े नहीं होते। तब तक वह विभाग के संरक्षण में ही रहते हैं।

जन्म के 10 दिन बाद पिता की मौत
बातचीत का दौर शुरू हुआ तो मां ने अपने जीवन और काम के बारे में बताया। मां ने बताया कि उनका जन्म हरियाणा के रोहतक में 1928 में हुआ था। जन्म के 10 दिन बाद ही पिता की मौत हो गई थी। 21 दिन की होने पर नाना शिवदयाल शर्मा मां और उन्हें अपने साथ कराची ( अब पाकिस्तान) लेकर चले गए। नाना-नानी ने ही परवरिश की। कुछ समय बाद नमक आंदोलन की शुरुआत हुई। अपने नाना के साथ 11 साल की उम्र में आंदोलन में जाना शुरू किया।

हालांकि छोटी होने के कारण ज्यादा समझ नहीं थी, लेकिन महात्मा गांधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा को अनाथ व असहाय बच्चों की मदद करते हुए देखा था। यह देख बहुत प्रभावित होने लगी थी। तब बड़े होकर खुद भी ऐसा कुछ करने का सोचा था। हंसकर बोली, ऐसा हुआ भी। उन्होंने कहा कि संस्थान के बच्चे मां कहकर पुकारते है तो बहुत अच्छा लगता हैं।

15 उम्र की साल में शादी
सुमित्रा शर्मा ने बताया कि नाना के पास रहकर पढ़ाई पूरी की। परिवार वालों ने 15 साल की उम्र में शादी कर दी। शादी के कुछ साल बाद ही देश का बंटवारा हो गया। तब वह और उनके पति देवीदयाल शर्मा राजस्थान के अलवर जिले में आकर बस गए थे। पति की भारतीय जीवन बीमा निगम में नौकरी लगी। दो बेटे और एक लड़की भी हुई। एक बेटा सीए है और दूसरा डॉक्टर। पति का ट्रांसफर होने पर 1955 में सीकर आ गए थे। बेटा-बेटी को लायक बनाने और उनकी शादी के बाद जिम्मेदारी से पूरे हो गए। 1995 में पति की मौत हो गई।

8 साल तक खुद के खर्चें पर की बच्चों की देखभाल
मां ने बताया कि 1960 में बेहसहारा बच्चों के लिए कुछ करने का सोचा। पति ने भी साथ दिया। सीकर के बजाज रोड पर विज्ञान विद्या भवन में किराए का मकान लिया। शुरूआत 3 बच्चों से की। तीनों बच्चों के माता-पिता की मौत के बाद दादा-दादी पालन-पोषण करने में असमर्थ थे। ऐसे में तीनों बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाना शुरू किया। 1 साल में करीब 60 बच्चे शामिल हुए। इसके बाद जगह कम पड़ने पर 10 अक्टूबर 1990 को नवलगढ़ रोड पर एक किराए का मकान लिया। अपने साथ कुछ महिलाओं को जोड़ा। 8 साल तक खुद के खर्चे पर बच्चों की देखभाल की और पढ़ाई-लिखाई करवाई। पति के रिटायरमेंट में मिले रुपयों को भी बच्चों को पढ़ाने में लगा दिया।

2007 के बाद मिली सरकार की मदद
मां ने बताया कि 1990 में अनाथ, बेसहारा बच्चों को आसरा देने के लिए संस्थान खोलने का प्लान बनाया। ताकि कोई बच्चा भीख न मांगे, सड़क पर दर-दर की ठोकर न खाए। किराए के मकान में ही कस्तूरबा संस्थान की शुरूआत की थी। 1998 में इसका रजिस्ट्रेशन करवाया। जिसके बाद सरकार से मदद मिलना शुरू हो गया था। 2007 में भादवासी गांव में सरकार की मदद से जमीन मिली और संस्थान का भवन बनाया। इसके बाद बच्चों की पढ़ाई, खाने और स्टाफ का खर्च समाज कल्याण विभाग की तरफ से मिलता है। इसके अलावा संस्थान में होने वाले खर्चे को पेंशन से चुकाती है। उनके बेटे भी रुपए भेजते है।

संस्थान को पीहर मानती लड़कियां
मां ने बताया कि करीब 31 साल से पहले संस्थान की शुरूआत की थी। इस लंबे सफर में करीब 2500 से ज्यादा दिव्यांग, असहाय और अनाथ बच्चों की परवरिश हो चुकी है। बच्चे पढ़ाई-लिखाई कर अपने पैरों पर खड़े हैं। करीब 15 बच्चे अब तक सरकारी नौकरी में लगे हैं। जिनमें 1 आर्मी में गया है, 5 मेडिकल सेक्टर में है। एक- दो लड़के डॉक्टर भी बने हैं। इसके अलावा 8-9 बच्चे वर्तमान में एलडीसी समेत कई पदों पर नौकरी कर रहे हैं। लड़कियों ने बीएड और नर्सिंग किया है। भामाशाह के सहयोग से दिव्यांग और असहाय 6 लड़कियों की भी शादी करवाई गई हैं। संस्थान ही लड़कियों का पीहर है। गर्मी की छुट्टियों में सभी संस्थान में आकर कुछ दिनों बिताकर जाती हैं।

Source;- ‘’दैनिक भास्कर’

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