बीजापुर। छह साल पहले यहां से 13 किमी दूर शासकीय कोसा बीज केन्द्र, नैमेड़ में लगे साजा और अर्जुन के पेड़ों पर रेशम के कीड़ों का पालन और कोसाफल उत्पादन का काम करने वाले आयतू कुड़ियम कुछ साल पहले तक अपने खेत में खरीफ की फसल लेने के बाद सालभर मजदूरी की तलाश में लगे रहते थे, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। यही वजह रही कि आज वह न सिर्फ कुशल कीटपालक के तौर पर कोसाफल उत्पादन कर अतिरिक्त कमाई कर रहे हैं, बल्कि गांव के चार अन्य मनरेगा श्रमिकों को भी रेशम कीटपालन में दक्ष बनाकर कोसाफल उत्पादन से उनके जिंदगी को रेशम की तरह रेशमी बना रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के धुर नक्सल प्रभावित जिले का यह आदिवासी किसान अब शासकीय कोसा बीज केन्द्र कीटपालक समूह का प्रतिनिधित्व करते हुए कीटपालन और कोसाफल का उत्पादन व संग्रहण कर रहा है। कुशल कीटपालक बनने के बाद पिछले तीन साल में आयतू को लगभग ढाई लाख रुपये की अतिरिक्त आमदनी हुई है। रेशम विभाग के सहायक संचालक राम सूरत बेक बताते हैं कि शासकीय कोसा बीज केन्द्र नैमेड़ में वर्ष 2008-09 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अंतर्गत तीन लाख 44 हजार रूपये की लागत से 28 हेक्टेयर में लगभग 16 हजार 800 साजा और इतनी ही संख्या में अर्जुन के पौधे रोपे गए थे। आज ये पौधे 10 फीट के हरे-भरे पेड़ बन चुके हैं।
2015 में आयतू ने विभागीय कर्मचारी की सलाह पर यहां श्रमिक के रूप में काम करना शुरू किया था। अपनी सीखने की ललक पर धीरे-धीरे कोसा फल उत्पादन का प्रशिक्षण लेना भी शुरू कर दिया। सालभर में वह इसमें दक्ष हो गया। वर्ष 2016 में उसने गांव के चार मनरेगा श्रमिकों को अपने साथ समूह के रूप में जोड़ा और पेड़ों के रख-रखाव के साथ कीटपालन और कोसाफल उत्पादन शुरू कर दिया। इनके समूह के द्वारा उत्पादित कोसाफल को विभाग के कोकून बैंक के माध्यम से खरीदा जाता है, जिससे इन्हें साल भर में अच्छी-खासी कमाई हो जाती है।
कुशल कीटपालक बनने के बाद कोसाफल उत्पादन से मिली नई आजीविका से जीवन में आए बदलाव के बारे में आयतू कहते हैं कि आगे बढ़ने के लिए खेती-किसानी या मजदूरी के अलावा कुछ और भी करने का मन था। रेशम कीटपालन के रूप में मुझे रोजी-रोटी का नया साधन मिला है। मनरेगा से यहां हुए वृक्षारोपण से फैली हरियाली ने मेरी जिंदगी में भी हरियाली ला दी है।