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राजपक्षे की छवि ऐसे नेता की रही है, जो लोकतांत्रिक मानकों की परवाह नहीं करता

ByADMIN

May 12, 2022

12 अप्रैल2022 | छह माह पूर्व श्रीलंका में राजपक्षे परिवार बेहतरीन दौर से गुजर रहा था। पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे अब प्रधानमंत्री थे। छोटे भाई गोटबाया रक्षा सचिव से राष्ट्रपति बन गए थे। तीसरे भाई बासिल के पास वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी थी। सबसे बड़े भाई चामल को संसद में स्पीकर बना दिया गया था।

दूसरे सम्बंधियों को भी मुख्यमंत्री और वायुसेना निदेशक जैसे पद बांटे गए थे। लेकिन आज महिंदा राजपक्षे त्यागपत्र देकर त्रिनाकोमली के नैवल बेस में छुपे हैं। बासिल इस्तीफा दे चुके हैं। और गोटबाया की स्थिति अब गए तब गए वाली हो चुकी है। राष्ट्रपति ने श्रीलंका में आपातकाल की घोषणा कर दी है और सशस्त्र बलों को शूट-एट-साइट का निर्देश दिया गया है।

आंदोलनकारियों ने हवाई अड्‌डे पर नाकाबंदी कर दी है ताकि राजपक्षे परिवार देश छोड़कर न जा सके। साल की शुरुआत में ही श्रीलंका का आर्थिक संकट गहरा गया था। फरवरी तक उसके पास केवल 2.31 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार शेष रह गया था, जबकि उस पर 13 अरब डॉलर का कर्जा था।

श्रीलंका पर एशियन डेवलपमेंट बैंक, जापान, चीन सहित अन्य की देनदारियां शेष थीं। इसके परिणामस्वरूप वहां ईंधन, भोजन-पदार्थों और दवाइयों की भारी किल्लत हो गई, जिनका आयात किया जाता था। कोलम्बो में विरोध-प्रदर्शन शुरू हुए। 3 अप्रैल को कैबिनेट के सभी 26 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया, अकेले प्रधानमंत्री ही शेष रहे। फिर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग की जाने लगी।

कुछ दिनों पहले तक राजपक्षे परिवार के द्वारा आंदोलनकारियों को बलपूर्वक कुचलने के प्रयास किए जाते रहे, जबकि उस समय तक यह आंदोलन अहिंसक बना हुआ था। सरकार को लगा इससे आंदोलनकारी पीछे हट जाएंगे, लेकिन चाल उलटी पड़ गई। आंदोलन उग्र हो गया। महिंदा राजपक्षे 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे थे और उनका कार्यकाल लोकप्रिय सिद्ध हुआ था।

उन्होंने आतंकी संगठन लिट्‌टे को नष्ट कर श्रीलंका में 30 साल से चल रहे गृहयुद्ध का अंत किया था। लेकिन इस प्रक्रिया में राजपक्षे ने सभी न्यायिक मानकों को ताक पर रख दिया। न केवल सैकड़ों तमिल टाइगर्स को मारा गया, बल्कि लिट्‌टे के नेता वी. प्रभाकरन के मात्र 11 वर्षीय पुत्र पर भी रहम नहीं किया गया। 1987 से 1990 तक भारत ने भी लिट्‌टे से संघर्ष किया था, लेकिन 1991 में लिट्‌टे द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद स्वयं को अलग कर लिया था।

राजपक्षे ने अपनी छवि ऐसे नायक की बनाई थी, जो लोकतांत्रिक मानकों की परवाह नहीं करता है। उन्होंने बहुसंख्यकवादी राजनीति की और 70 प्रतिशत सिंहल बौद्धों के समर्थन से तमिल और मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की। विपक्षी स्वरों के प्रति उनका प्रतिकूल रुख भी झलका, मीडिया पर अंकुश लगाया गया और एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याओं की संख्या बढ़ी।

इसी दौर में राजपक्षे ने अपनी भव्य योजनाओं के लिए क्षमता से अधिक कर्ज लिया। उन्होंने अपने क्षेत्र में हम्बनतोता बंदरगाह, क्रिकेट स्टेडियम और अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्‌डा बनवाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। फिर कोलम्बो हार्बर साउथ कंटेनर टर्मिनल और कोलम्बो-कटुनायके एक्सप्रेस-वे का भी निर्माण किया। चीन ने श्रीलंका को बहुत कर्ज दिया और उसकी कम्पनियां श्रीलंका में निर्माण कार्यों में भी जुटी थीं। धीरे-धीरे श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया।

2015 में सिरीसेना राष्ट्रपति चुनाव जीते थे, लेकिन 2019 में राजपक्षे परिवार फिर सत्ता में लौट आया। यह उनका दुर्भाग्य था कि 2020-21 में कोविड ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर दिया। उसका पर्यटन उद्योग चौपट हो गया। रूस-यूक्रेन युद्ध ने ईंधन और भोजन की कीमतें बढ़ा दीं। राजपक्षे के कुप्रशासन ने आग में घी का काम किया। आज श्रीलंका में जो कुछ हो रहा है, उसमें हमारे और दुनिया के लिए गहरे सबक छिपे हुए हैं।

श्रीलंका संकट का एक आयाम यह है कि इसने भारत को उस पर भू-राजनीतिक प्रभाव पुन: स्थापित करने का अवसर दिया है। भारत ने मदद का हाथ बढ़ाया है, पर चीन श्रीलंका को अब और कर्ज नहीं देने जा रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Source;- ‘’दैनिकभास्कर’’

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