भारत और चीन के बीच पिछले कुछ महीनों से लगातार तनाव बना हुआ है, और ऐसे में जब भी कोई ऐसा अंतरराष्ट्रीय आयोजन होता है, जहाँ भारत भी मौजूद हो और चीन भी, तो उत्सुकता इन देशों के रुख़ पर रहती है और उनके बयानों पर भी होती है.
इस सप्ताह एक ऐसी बैठक हुई, जहाँ ये दोनों देश मौजूद थे, लेकिन सुर्खि़याँ एक तीसरे देश की बनीं, और वो है पाकिस्तान.
मंगलवार को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) की ऑनलाइन बैठक होनी थी, और बैठक से भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार( एनएसए) अजित डोभाल बीच में ही उठकर चले गए.
वजह ये बताई गई कि पाकिस्तान के एनएसए ने अपनी कुर्सी के पीछे देश का नया नक़्शा लगाया हुआ था जिसके विरोध में भारत ने सम्मेलन में शामिल होने से इनकार कर दिया.
भारत की ख़ाली कुर्सी के साथ ही बैठक हुई, और पाकिस्तान इसपर गदगद है. वो इसे अपनी जीत बता रहा है, कह रहा है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत अपनी साख खोता जा रहा है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने एक बयान में कहा कि ‘इस बैठक में पाकिस्तान के नक़्शे पर भारत की आपत्ति को ख़ारिज कर दिया गया. बैठक के मेज़बान रूस ने भारत के नज़रिए को स्वीकार नहीं किया’. यानी पाकिस्तान का आशय है कि रूस ने भारत को महत्व नहीं दिया और मीटिंग को बिना भारत के ही चलने दिया.
भारत ने इस घटना के बारे में कहा है कि उसने रूस के साथ नक़्शे के मुद्दे को उठाया था, जिसपर रूस ने पाकिस्तान को सलाह दी, लेकिन वो नहीं माना. इसके बाद भारत ने रूस को बताकर विरोध में बैठक से उठ जाने का फ़ैसला लिया.
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा, “इसके बाद जैसा कि उम्मीद थी, पाकिस्तान ने मीटिंग के बारे में गुमराह करने वाला नज़रिया रख दिया.”
इस घटना को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार और दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में विश्लेषक हर्ष पंत एक सामान्य घटना बताते हैं.
हर्ष पंत ने कहा, “भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी बहुपक्षीय मंच पर ऐसा ही होता है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी जब पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा उठाता है तो या तो भारत के प्रतिनिधि वहाँ से चले जाते हैं या फिर उसका खंडन करते हैं. ऐसे ही जब भारत कुछ कहता है तो पाकिस्तान के प्रतिनिधि भी चले जाते हैं, तो ऐसा तो है नहीं कि इस वजह से सुरक्षा परिषद अपनी मीटिंग ही बंद कर दे”.
अजित डोभाल गुरुवार को फिर ऐसी ही एक बैठक में हिस्सा लेने वाले हैं, लेकिन वहाँ पाकिस्तान नहीं है क्योंकि ये बैठक ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की है. यानी इसमें ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका के एनएसए शरीक हो रहे हैं.
ब्रिक्स और एससीओ की बैठक और भारत-चीन
देखा जाए, तो पिछले कुछ समय से भारत लगातार एससीओ और ब्रिक्स देशों के सम्मेलनों में हिस्सा ले रहा है. इन दोनों संगठनों की बैठक में दो देश मौजूद रहते हैं- चीन और रूस.
भारत और चीन के बीच तनाव के बीच ही इस महीने अब तक दो मौक़े ऐसे आए हैं, जब भारत और चीन के मंत्रियों की आमने-सामने मुलाक़ात हुई है.
सबसे पहले 4 सितंबर को मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन के रक्षा मंत्रियों की बैठक हुई. वहां भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीन के रक्षा मंत्री वेई फ़ेंघे ने अलग से दो घंटे 20 मिनट तक चर्चा की.
इसके बाद 9-10 सितंबर को रूस की राजधानी मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई. यहीं 10 सितंबर को बैठक से अलग भारत और चीन के विदेश मंत्री मिले और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव कम करने के लिए पाँच बिन्दुओं की कार्ययोजना पर सहमति हुई.
इसके अलावा 4 सितंबर को ब्रिक्स के विदेश मंत्रियों की भी वीडियो के ज़रिए ऑनलाइन बैठक हुई थी.
फिर 15 सितंबर को एससीओ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक हुई जिससे भारत विरोध जताने के लिए हट गया.
और अब गुरुवार 17 सितंबर को ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक हो रही है.
ऐसे में एक उत्सुकता होती है कि इन मंचों की बैठक में भारत-चीन तनाव को लेकर क्या होता होगा? और क्या रूस की भी कोई भूमिका होती होगी? और भारत के लिए कितनी अहमियत रखती हैं ऐसी बैठकें?
अंतरराष्ट्रीय बैठकों की अहमियत
जानकार कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय बैठकों को लेकर स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है. वहाँ बहुपक्षीय मुद्दों पर चर्चा होती है, द्विपक्षीय विषयों पर चर्चा की अनुमति नहीं होती. लेकिन इसके बावजूद ये बैठकें दो देशों के रिश्तों के हिसाब से काफ़ी अहम होती हैं.
भारत के पूर्व विदेश सचिव के रघुनाथ बताते हैं कि भारत ने सोच समझकर शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होने का फ़ैसला किया था.
शंघाई सहयोग संगठन या एससीओ की स्थापना 2001 में हुई थी. तब इसमें छह सदस्य थे – चीन, रूस, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और कज़ाख़स्तान.
भारत और पाकिस्तान 2017 में एससीओ के सदस्य बने. रूस ने भारत को आमंत्रित किया और चीन ने पाकिस्तान को.
के रघुनाथ कहते हैं, “हम यही सोचकर गए कि इसमें शामिल होना हमारे लिए बेहतर है, क्योंकि हम वहाँ अपनी बात कहकर दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे, हम अपना दृष्टिकोण रखेंगे, अपनी दलील देंगे, और कोशिश करेंगे कि लोग उसको स्वीकार करें. इसी आधार पर हम इन सम्मेलनों में जाते हैं. अगर इसकी अहमियत नहीं होती तो हम क्यों जाते.”
हर्ष पंत बताते हैं कि हाल के समय में द्विपक्षीय संबंधों को सुलझाने में इन बैठकों ने बहुत अहम रोल अदा किया है.
हर्ष कहते हैं, “ये बैठक एक रास्ता देते हैं कि अगर आपके पास कोई द्विपक्षीय तरीक़ा नहीं है हल निकालने का तो बहुपक्षीय मंचों पर आप संपर्क कर सकते हैं, अभी हाल में भारत और चीन के रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री की जो भी मुलाक़ातें हुईं वो एससीओ के मंच पर हुईं, साइडलाइंस में हुईं.”
हर्ष साथ ही बताते हैं, “डोकलाम का विवाद हुआ था तब भी ब्रिक्स के मंच ने एक अहम रोल अदा किया था, तब चीन को इसकी मेज़बानी करनी थी और उससे पहले दोनों देशों ने इस मुद्दे को सुलझा लिया क्योंकि चीन को लगा कि अगर भारत ने उसमें आने से इनकार कर दिया तो इसका असर चीन के नेतृत्व पर पड़ता है, तो एक परोक्ष रोल उस बैठक ने भी अदा किया है.”
रूस की भूमिका
भारत और रूस के संबंध बहुत पुराने हैं. शीत यु्द्ध के दौर में सोवियत संघ भारत का सबसे क़रीबी दोस्त समझा जाता था. सोवियत संघ के विघटन के बाद से भी रूस से भारत के रिश्तों में क़रीबी बनी रही.
रूस में भारत के राजदूत रह चुके के रघुनाथ बताते हैं, “भारत और रूस के बीच बहुत पुराने समय से संबंध रहे हैं और अच्छे रहे हैं. आम लोगों के मन में ये भावना रही है कि वो एक मित्र देश है.”
वो कहते हैं कि इससे ये उम्मीद कर लेना सही नहीं होगा कि वो भारत और चीन के मामले को सुलझा सकता है.
के रघुनाथ कहते हैं, “भारत और रूस दोस्त तो हैं, लेकिन उनके भी अपने हित हैं, तो हम एक हद तक ही जा सकते हैं. रूस के संबंध चीन से भी हैं, दोनों के बीच घनिष्ठ मित्रता है. तो हम ये उम्मीद करेंगे कि हमारे बीच जो समझ है उसको ध्यान में रखते हुए वो चीन से ये कहें कि आप भारत के जो हित हैं उनका ध्यान रखें.”
हर्ष पंत बताते हैं कि अभी भी जिन बैठकों में भारत और चीन के मंत्री मिले, उनमें रूस की भूमिका बहुत अहम थी जिसने ये दर्शाने की कोशिश की कि वो दोनों देशों को एक ऐसा मंच दे सकता है, जो निष्पक्ष हो और जहाँ दोनों सहजता से मिल सकें.
हालाँकि, हर्ष पंत भी ये ध्यान दिलाते हैं कि रूस की भूमिका की भी एक सीमा है.
वो कहते हैं, “हक़ीक़त ये भी है कि अभी तक जो भी चर्चा हुई है, एससीओ की बैठकों के दौरान रक्षा मंत्रियों और विदेश मंत्रियों की बैठक हुई है, उसका तनाव पर तो कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है, आख़िरकार ये समस्या भारत और चीन को ही मिलकर सुलझानी है.”
हर्ष कहते हैं कि रूस की सबसे पहली प्राथमिकता ये सुनिश्चित करना रहेगी कि भारत और चीन के विवाद में उसका नुक़सान ना हो, अभी उसके चीन के साथ संबंध बहुत मज़बूत हैं क्योंकि रूस को पश्चिमी देशों के साथ उसकी लड़ाई में चीन की मदद की ज़रूरत है, तो वो तो ये कभी नहीं चाहेगा कि चीन के साथ उसके संबंध ख़राब हों.
वो साथ ही कहते हैं, “भारत के साथ भी वो संबंधों को संतुलित करके चलना चाहेगा क्योंकि भारत रूस का एक बड़ा रक्षा ख़रीदार है, और रूस का रक्षा उद्योग अभी बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और इसमें भारत के साथ हुए रक्षा सौदों की वजह से भारत का स्थान काफ़ी महत्व रखता है.”
BBC