अमेठी : गरीबों की रसोई से लेकर मकान की छत डालने व ठंड से बचाव का जरिया रहे दो जंगली पौधे विलुप्त होते जा रहे हैं। वन विभाग नदियों व तालाबों में पानी की कमी मुख्य वजह बता रहा है।
एक दशक पहले तक गांवों के जंगलों व नदी तालाब आदि के किनारे बड़ी संख्या में बेहया जिसका वानस्पतिक नाम आइपोमिया है। वहीं दूसरा पौध गांव की बोलचाल की भाषा में रुस के नाम से जाना जाता है। इसे वन विभाग कपासी के रूप में जानता है। दोनों पौधे गरीबों की लाइफ लाइन कहे जाते हैं। बेहया औषधि गुणों से भरपूर है। चोट मोच लगने पर इसके पत्ते को हल्दी तेल के साथ गर्म कर बांधा जाता है। वहीं रूस के पौधे की पत्तियों को आम पकाने के काम में उपयोग किया जाता रहा है। रूस की लकड़ी ठोस व मजबूत होने के कारण गरीब परिवार कच्चे मकान की छत डालने में इसका उपयोग करते रहे हैं। बेहया की लकड़ी पोल होती है। गरीब परिवार के घरों की रसोई इन्हीं दोनों पौधों की लकड़ियों से गर्म होते रहे हैं। ठंड के मौसम में ग्रामीण इन पौधों की लकड़ियों से अलाव जलाकर ठंड से बचाव करते थे। इसी के चलते इन्हें गरीबों की लाइफ लाइन भी कहा जाता है। बहुतायत मात्रा में होने वाले यह पौधे अपना वजूद खोते जा रहे हैं।
प्रभारी प्रभागीय वनाधिकारी बीके पांडेय ने कहा कि बेहया की लकड़ी जलाने पर निकलने वाला धुआं सेहत के लिए नुकसान दायक होता है। इसके बाद भी गरीबों के काम आता था। उन्होंने कहा कि नदियों व तालाबों में कम होते पानी की वजह से ये पौध विलुप्त होते जा रहे हैं। सड़क के किनारे व जंगल में पाया जाने वाला कपासी का पौधा बहुत कम दिखाई देता है। इस ओर सभी को ध्यान देने की जरूरत है। तभी इसे बचाया जा सकता है।