16 दिसंबर 2023 ! हाल में ही संपन्न हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में से तीन में बीजेपी ने सभी अटकलों को ख़ारिज करते हुए जीत दर्ज की.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी ने बहुमत से ज़्यादा सीटें हासिल की है.
इन तीनों राज्यों के चुनाव में कांग्रेस ने बिहार में हुए जातीय सर्वेक्षण के बाद इस मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया.
विपक्षी पार्टियों का दावा था कि जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी को नुक़सान हो सकता है.
बीजेपी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाक़ों में भी इस बार अधिकांश सीटें जीतीं, वहीं मध्य प्रदेश में भी पार्टी को अच्छी-खासी संख्या में ओबीसी समुदाय का वोट मिला.
नतीजों के बाद सवाल ये उठता है कि क्या बीजेपी ने क्या हिंदुत्व के मुद्दे के साथ-साथ विपक्ष को जातिगत राजनीति में भी पीछे छोड़ दिया है?
क्या विधानसभा चुनाव के नतीजे के आधार पर बीजेपी लोकसभा चुनाव में भी बढ़त हासिल कर पाएगी या विपक्ष बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती पेश करेगा और ओबीसी वोट लोकसभा चुनाव के दौरान अलग तरीक़े से काम करेंगे?\
मंडल आयोग ने क्षेत्रीय पार्टियों और जातिगत पहचान से जुड़ी राजनीति को भी पंख दिए. उत्तर प्रदेश और बिहार में आरजेडी, समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड जैसी पार्टियों का क़द बढ़ा.
साथ ही छोटे-छोटे जाति आधारित समूह भी पनपने लगे. जैसे अकेले यूपी में ही राजभर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी, कुर्मी समुदाय की बात करने वाले अपना दल और निषाद समुदाय की आवाज़ उठाने वाली पार्टी का जन्म हुआ.
ये छोटी पार्टियाँ मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए अहमियत रखने लगी.
राजनीति की ये धारा 1990 के दशक में वीपी सिंह की सरकार में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की बात करने वाले बीपी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद शुरू हुई थी.
ये वो समय था जब भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर अभियान पर ज़ोर दे रही थी, इसे कमंडल की राजनीति कहा गया.
वीपी सिंह के बाद आई हर सरकार ने आरक्षण का समर्थन किया .
भारतीय जनता पार्टी भी हिंदुत्व की राजनीति को धार तो देती रही, लेकिन आरक्षण के मुद्दे पर पार्टी की राय अन्य पार्टियों के जैसी ही थी.
सोर्स :-“BBC न्यूज़ हिंदी”