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वीरगति को प्राप्त हुई बेटे की मां नेअपने खर्च पर बनाया शहीद द्वार, घर पर रहती हैं अकेली

ByPrompt Times

Jul 26, 2021
  • 22 साल बाद कारगिल दिवस पर बेटे को याद पर मां-पिता के आंखों से आंसू छलक आए।
  • मां गोमती देवी बताती हैं कि उनका बेटा सुरेंद्र उनसे बहुत प्यार करता था।
  • बचपन से ही वह सेना में जाने का इच्छुक था।

26-जुलाई-2021 | देहरादून के शहीद विजय सिंह भंडारी 17 गढ़वाल राइफल्स में तैनात थे। कारगिल युद्ध जब शुरू हुआ, तब उनकी शादी हुई थी। शादी हुए मात्र 10 दिन ही हुए थे। तभी उनकी छुट्टी निरस्त कर उन्हें बुला लिया गया। युद्ध की सूचना पर परिवार बैचेन हो गया था। मां बताती हैं कि यूनिट में पहुंचने के बाद उसने वहां पहुंचने की जानकारी दी थी। इसके बाद सीधे उसकी शहादत की खबर मिली।

तीन बेटियों की शादी के बाद अकेले घर में रह रही मां रामचंद्री नम आंखों से बताती हैं कि शादी समारोह का जश्न फीका भी नहीं हुआ था कि उनके बेटे की छुट्टी रद्द कर उसे वापस बुला लिया था। कहा कि उनके बेटे की सेना में जाने की बहुत तमन्ना थी।

वह घर का अकेला चिराग था, इसलिए घर वाले सेना में जाने से मना न कर दें, इसलिए विजय ने सेना में भर्ती होने की खबर परिवार से छिपाई थी। भर्ती होने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने घर में यह खुशखबरी सुनाई थी। मां बताती हैं कि विजय के शहीद होने के बाद पत्नी घर छोड़ कर चली गई। 

मां रामचंद्री देवी बताती है कि उन्हें बेटे की पेंशन का मात्र 20 प्रतिशत हिस्सा ही मिलता है। विजय के शहीद होने के बाद पिता ने ही अपने खर्चे पर शामपुर में अपने आवास पर शहीद द्वार के साथ ही पंचायती मिलन केंद्र भी बनवाया था। आज भी वह द्वार की मरम्मत अपने खर्चे पर करती है।

विजय के पिता भी सेना में थे। 2006 में उनकी मृत्यु हो गई। शहीद की मां का कहना है कि उन्हें इस बात का दुख है कि सरकार शहीद के माता-पिता को उचित सम्मान नहीं देती।कहा कि सरकार की ओर से मिलने वाला सम्मान पत्नी के साथ ही माता-पिता को भी मिलना चाहिए।

अतिक्रमण में टूटा शहीद स्मारक आज तक नहीं बना
प्रेमनगर में दो साल पहले चले अतिक्रमण के महाभियान में शहीद विजय सिंह के नाम का स्माकर अतिक्रमण की चपेट में आकर टूट गया था, लेकिन अभी तक स्मारक को नहीं बनाया गया है। सामाजसेवी बीरू बिष्ट ने बताया कि इस संबंध में मुख्यमंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक गुहार लगाई जा चुकी है, लेकिन कोई भी इसकी सुध नहीं ले रहा है। जिला प्रशासन सड़क चौड़ीकरण पूरा होने के बाद स्मारक बनाने की बात कह रहा है।

शहादत के पांच दिन पहले सुरेंद्र का फोन आया था
कारगिल युद्ध जब शुरू हुआ था तो उससे पहले देहरादून के बड़ोवाला निवासी शहीद सुरेंद्र सिंह दो माह की छुट्टी पर घर आए थे। इन छुट्टियों में सुरेंद्र ने अपनी मां को बाघा बॉर्डर, स्वर्ण मंदिर सहित कई जगह घुमाया था। छुट्टी खत्म होने के बाद सुरेंद्र वापस ड्यूटी पर चले गए।

शहादत के पांच दिन पहले सुरेंद्र का फोन आया था। कहा था कि वह सकुशल हैं, लेकिन इसके बाद अगले कुछ दिन बाद सुरेंद्र की शहादत की खबर मिली। उनकी याद में प्रेमनगर में बनाए गए स्मारक पर आज भी मां रोज सफाई करने जाती हैं।

22 साल बाद कारगिल दिवस पर बेटे को याद पर मां-पिता के आंखों से आंसू छलक आए। मां गोमती देवी बताती हैं कि उनका बेटा सुरेंद्र उनसे बहुत प्यार करता था। बचपन से ही वह सेना में जाने का इच्छुक था। इसलिए जब वह 1994 मेें भर्ती हुआ था तो बिना घरवालों को बताए ही भर्ती होने चला गया था। जब उसकी शहादत हुई वह महज 22 साल का था।

बेटे की खबर सुनकर मां ने अपनी सुधबुध खो दी थी
बेटे को याद करते नम आंखों से मां गोमती देवी बताती है कि 1999 में जब कारगिल युद्ध हुआ था तो, उससे पहले सुरेंद्र दो माह की छुट्टी पर घर आया हुआ था और स्वर्ण मंदिर, बाघा बार्डर, बैष्णो देवी सहित कई जगह घुमाया था। इसके बाद वह अपनी ड्यूटी पर चला गया। कारगिल का युद्ध जब शुरू हुआ तो इससे पांच दिन पहले सुरेंद्र का एसटीडी पर फोन आया था। 

फोन पर उसने बताया था कि मां मैं ठीक हूं। सब-कुछ ठीक चल रहा है, लेकिन इसके कुछ दिन बाद सात जुलाई को फोन के माध्यम से उन्हें सुरेंद्र की शहादत की खबर मिली। सुरेंद्र के पिता सुजान सिंह नेगी बताते हैं कि बेटे की खबर सुनकर मां ने अपनी सुधबुध खो दी थी। मैंने किसी तरह से उसे संभाला हैं।

बताया कि सुरेंद्र की याद में मां ने ही घर के बगल में मंदिर बनाया है, जिसमें अभी तक भी वह सुबह शाम पूूजा करती हैं। प्रेमनगर में सुरेंद्र के नाम से एक शिलापट लगाया है, वह आज भी रोज सुबह वहां जाकर शिलापट की सफाई कर फूल आदि चढ़ाती हैं। मां गोमती का कहना है कि उन्हें गर्व है कि उनके बेटे ने देश के लिए शहादत दी।

21 वर्ष बाद भी सड़क से नहीं जुड़ पाया शहीद का गांव
कारगिल युद्ध के शहीदों को सुविधाएं देने के चाहें सरकारें तमाम दावे कर रही हो लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। लोनिवि लैंसडौन की सुस्ती के कारण 22 वर्षों में भी कारगिल युद्ध में अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले शहीद अनिल सिंह रावत के गांव बरस्वार तक सड़क नहीं पहुंच पाई है। शहीद के परिजन सहित ग्रामीण मुख्य सड़क से गांव पहुंचने के लिए दो घंटे पैदल चलने के लिए मजबूर हैं।

जयहरीखाल ब्लाक के बरस्वार गांव निवासी 9 पैरा रेजीमेंट के नायक अनिल सिंह रावत एक जुलाई 1999 को कारगिल युद्ध के दौरान पैराशूट से नीचे टाइगर हिल पर उतरते हुए पाकिस्तान के सैनिकों पर टूट पड़े थे। उन्होंने इस दौरान वीरता का परिचय देते हुए पैराशूट से ही कई सैैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। इस लड़ाई में वे वीर गति को प्राप्त हो गए थे। वर्तमान में शहीद अनिल की पत्नी आशा रावत कोटद्वार के शिब्बू नगर में बच्चों के साथ रह रही है। शहीद की माता गंगोत्री देवी और पिता आलम सिंह रावत बरस्वार गांव में ही रहते हैं।

शहीद के पिता आलम सिंह रावत, ग्राम प्रधान विद्या देवी, ग्रामीण ध्यान सिंह ने बताया कि उनका गांव जयहरीखाल के सुदूर पर्वतीय क्षेत्र में है। वर्ष 1999 में सरकार ने सभी शहीदों के गांव तक सड़क पहुंचाने की बात कही थी, लेकिन आज तक उनके गांव में सड़क नहीं पहुंच सकी है। सड़क के अभाव में खोली तोक, आर्यखोला तोक, जमरियाणी तोक, कुल्लू मल्ला, कुल्लू तल्ला और झंपा तोक के 60 परिवारों को गांव जाने के लिए मुख्य सड़क से जंगल के रास्ते दो घंटे पैदल चलना पड़ता है, जिसके कारण कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

शहीद अनिल सिंह के गांव की सड़क बरस्वार-कुंडू मार्ग की द्वितीय चरण की डीपीआर स्वीकृति के लिए शासन को भेजी गई है। बजट मिलते ही सड़क निर्माण का कार्य शुरू कर दिया जाएगा।

श्रीनगर में कारगिल शहीद शिव सिंह बिष्ट के गांव भ्यूंपाणी तक सड़क पहुंचाने की प्रक्रिया आखिरकार 21 वर्ष बाद शुरू हो गई है। मोटर मार्ग के लिए वित्तीय मंजूरी मिलने पर विभाग ने निविदा प्रक्रिया शुरू कर दी है। विकास खंड कीर्तिनगर की ग्राम पंचायत धारी के भ्यूंपाणी गांव के शिव सिंह बिष्ट वर्ष 1999 मेें कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे। तत्कालीन सरकार ने कारगिल शहीदों के गांव को सड़क से जोड़ने की घोषणा की थी, लेकिन शहीद का गांव आज भी सड़क से वंचित है। ग्रामीण जितेंद्र सिंह बिष्ट ने बताया कि  गांव में वर्तमान में 27 परिवार हैं।

करीब हर परिवार से एक युवा सेना में सेवारत है। शहीद शिव सिंह बिष्ट से पहले गांव के मोर सिंह शहीद हुए। उसके बाद शिव सिंह बिष्ट के भाई रणवीर सिंह बिष्ट भी शहीद हुए। जितेंद्र सिंह बिष्ट ने बताया कि गांव में दुकान और स्कूल न होने से ग्रामीणों को करीब ढाई किलोमीटर दूर महरगांव जाना पड़ता है।

यही नहीं गांव तक घोड़े खच्चरों से सामान पहुंचाने के लिए 250 से 300 रुपये भाड़ा देना पड़ रहा है। इसके अलावा अगर किसी काम के लिए प्रधान के पास जाना हो तो धारी गांव तक पहुंचने के लिए करीब पांच किमी की पैदल दूरी तय करनी पड़ती है। वर्ष 2016 में भी तत्कालीन विधायक व मंत्री ने भी मोटर मार्ग का शिलान्यास किया था, लेकिन आज तक गांव तक सड़क नहीं पहुंच पाई है।
 

Source;-“अमर उजाला”

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