24 जून 2022 | सार्वजनिक चुनौतियों- खासकर वे जो युवा हसरतों से जुड़ी हैं- का समाधान आर्थिक नीतियों में है। सार्वजनिक जीवन में सक्रिय संगठन व रहनुमाई करने वाले सच नहीं बताते। ऐसी नीतियां जो भावी पीढ़ियों की कीमत पर मौजूदा पीढ़ी को सुविधाएं दे रही हैं, कब तक चलेंगी? पिछले दिनों एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी से बात हुई। उन्हें रिटायर हुए दो दशक से अधिक हो गए हैं। बड़े पद पर थे। ढाई लाख से ज्यादा पेंशन मिलती है।
स्वास्थ्य सुरक्षा अलग से। जबकि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि हम अपना आज कुर्बान करें, ताकि हमारे बच्चे सुखद भविष्य पा सकें। हाल में खबर पढ़ी। एक राज्य के मुख्यमंत्री ने अपने वित्त विभाग की असहमति के बावजूद घोषणा की है कि वे पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू करेंगे। एक राज्य- जहां चुनाव होने वाले हैं- बजट में पुरानी पेंशन नीति का प्रावधान कर प्रचार कर चुका है।
हाल के वर्षों में जहां चुनाव हुए हैं या होने वाले हैं, वहां सत्ता चाहने वाले इसे लागू करने की होड़ में हैं। ऐसी नीतियां देश को कहां ले जाएंगी? खासतौर से युवाओं के भविष्य को? क्या यह अप्रिय सच कोई रहस्य है? यशवंत सिन्हा नई नीति के जनक हैं। पिछले दिनों एक पत्रिका से चर्चा में उन्होंने कहा कि 2004 में पेंशन योजना की बारीकी से जांच हुई थी।
सभी समान निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत सरकार जो वेतन और मजदूरी देगी, पेंशन राशि उससे बहुत अधिक होगी। इससे बजट ही संकट में पड़ेगा। भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए पूरे देश में यह लागू हुई। पुरानी पेंशन योजना वित्तीय रूप से जनसांख्यिकी बदलाव के कारण लागू नहीं हो सकती। 2004 में नई पेंशन स्कीम लागू हुई। बड़ी व्यावहारिक अड़चन है। 2004 से 2022 के बीच पुरानी पेंशन स्कीम बंद हो चुकी है।
इस अवधि में जो भी आए, नई पेंशन व्यवस्था से जुड़े हैं। अब जो पुरानी योजना में जाएंगे तो 2004 से 2022 के बीच के लोग भी पुरानी पेंशन व्यवस्था की मांग करेंगे। इसका हल किसी दल के पास नहीं है। 78 लाख से अधिक सरकारी कर्मचारी (22.74 लाख केंद्र के और 55.44 लाख राज्यों के) नई पेंशन योजना के तहत हैं। राज्यों की वित्तीय स्थिति पर रिजर्व बैंक (2019) की रपट के तहत कुल पेंशन बिल चार लाख करोड़ का है।
यह 2021-22 वित्तीय वर्ष का आंकड़ा है। अर्थशास्त्रियों का आकलन है पुरानी योजना लागू हो तो इस राशि में छह फीसदी बढ़ोतरी होगी। उन्होंने चेतावनी भी दी कि यह प्रतिगामी सोच है। एक दूसरे अर्थशास्त्री बताते हैं कि लोग रिटायर होने के 25-30 वर्षों बाद तक अब जीवित रहते हैं। फिर उनकी पत्नी या परिवार को अगले पांच वर्षों तक पेंशन का भुगतान होता रहेगा। इससे सरकार पर बोझ बहुत बड़ा होगा।
इन्हीं अर्थशास्त्री के अनुसार एक राज्य जो बजट में इसका (पुरानी पेंशन व्यवस्था) प्रावधान कर चुका है, अपने राजस्व का 60 फीसदी से अधिक मजदूरी और पेंशन पर खर्च करेगा। अगर छह फीसदी सरकारी कर्मचारियों पर सरकारी आमद का 60 फीसदी खर्च होगा और शेष 94 फीसदी जनता पर महज 40 फीसदी तो फिर विकास और कल्याणकारी योजनाओं के पैसे कहां से आएंगे? व्यवस्था का यह नासूर क्या सार्वजनिक जीवन में दिखाई नहीं देता? यह हाल एक राज्य का नहीं है। देश के कई राज्य, इन लोकलुभावन नारों से भारी आर्थिक मुसीबत में हैं। वे विकास व कल्याणकारी योजनाओं के बजट में कटौती कर रहे हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद समय से वेतन-पेंशन का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। ‘वोट और सत्ता, किसी कीमत पर’- इसी नीति का यह परिणाम है।
युवाओं के भविष्य के साथ ऐसी नीतियां ही सौदेबाजी कर रही हैं। यूनान कंगाल हुआ तो एक मशहूर अर्थशास्त्री वित्तमंत्री बने- यानिस वरूफाकिस। उन्होंने अपनी बेटी को पत्र लिखकर सामान्य बातचीत की भाषा में अर्थसंकट और आर्थिक चीजों को समझाया। जिस दिन भारतीय युवा लोकभाषा में इन अर्थनीतियों की गहराई समझने लगेंगे, बड़ा बदलाव होगा।
अगर केवल छह फीसदी सरकारी कर्मचारियों पर सरकारी आमद का 60 फीसदी खर्च होगा और शेष 94 फीसदी जनता पर महज 40 फीसदी तो फिर विकास और कल्याणकारी योजनाओं के पैसे कहां से आएंगे?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सोर्स ;- ‘’दैनिक भास्कर’’