20 मई 2022 | अधिकतर भारतीयों को लगता है कि स्त्रियों के बारे में हमारे जो मानदंड हैं, वे उदारवाद और पारम्परिकता के बीच सही संतुलन बनाते हैं। वे कहेंगे कि भारतीय महिलाएं पश्चिमी दुनिया की स्त्रियों की तरह स्वच्छंद नहीं, लेकिन अरब दुनिया की तरह बंधनों में जकड़ी हुई भी नहीं हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि आज भारतीय महिलाओं की कामकाज में सहभागिता की दर अनेक अरब देशों से भी कम हो गई है।
दरअसल, बहुतेरे अरब देशों में यह दर बढ़ रही है, वहीं भारत में घट रही है। मिसाल के तौर पर सऊदी अरब की स्त्रियों का वर्क पार्टिसिपेशन रेट भारतीय महिलाओं से अधिक है। हाल के वर्षों में सऊदी अरब में अनेक सुधार हुए हैं, जिससे लैंगिक विभेद में कमी आई है।
2016 में सऊदी महिलाओं की श्रमशक्ति में सहभागिता 18% थी, वहीं 2020 में वह 33% हो गई थी। भारत में स्थिति विपरीत है। सरकारी आंकड़ों की मानें तो 2012 में यह दर 31% थी, जो 2021 में घटकर 21% हो गई। सेंटर फॉर मानिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी का डाटा तो और कम आंकड़े बताता है।
आप इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी कर सकते हैं कि भारत में लैंगिक विषमता बढ़ रही है और उच्च विकासदर के बावजूद महिलाओं को पर्याप्त अवसर नहीं मिले। लेकिन वास्तविकता थोड़ी जटिल है, जैसा कि मैंने हाल ही की कुछ फील्ड विजिट्स में पाया। जो तथ्य उभरकर सामने आए, उनका संबंध बाजार से कम और सांस्कृतिक और सामाजिक मानकों से अधिक था।
परम्परागत रूप से हमारे यहां महिलाओं के नौकरी करने को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। इसमें जातिगत विभाजन और प्रवासियों की बढ़ती संख्या को जोड़ें तो एक पेचीदा तस्वीर उभरती है। अपनी फील्ड विजिट्स के दौरान मैंने महिलाओं के अनेक समूहों से पूछा कि ग्रामीण भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या क्यों घट रही है।
आज भारतीय महिलाओं की कामकाज में सहभागिता की दर अनेक अरब देशों से भी कम हो गई है। सरकारी आंकड़ों की मानें तो 2012 में यह दर 31% थी, जो 2021 में घटकर 21% हो गई।
पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक दलित बहुल गांव में एक समूह ने बताया कि इसका मुख्य कारण यौन उत्पीड़न है। एक महिला ने कहा कि अतीत में यौन उत्पीड़न सामान्य बात थी और हमारे पूर्वजों ने इसे स्वीकार कर लिया था, लेकिन हमें ये मंजूर नहीं इसलिए काम छोड़ दिया। हमारी यह बातचीत सुन रहे एक पुरुष ने कहा कि बिरादरी में उन घरों की इज्जत नहीं की जाती है, जिनकी औरतें बाहर जाकर काम करती हैं।
लोग उनके यहां अपने बेटे-बेटियों का विवाह करने से हिचकते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या आप अपनी बेटियों की पढ़ाई करवाना पसंद करेंगी, अधिकतर महिलाओं ने हां कहा। लेकिन इसका कारण उन्होंने बताया कि इससे लड़कियों की शादी आसानी से हो जाती है, क्योंकि कोई भी अनपढ़ लड़की से अपने बेटों की शादी नहीं करवाना चाहता। एक अन्य समूह में एक महिला के हाथ में स्मार्टफोन था, लेकिन वह घूंघट में थी। उसने मेरी बात काटते हुए कहा, घर में ही इतना काम होता है कि हमें बाहर जाकर काम करने का मौका नहीं मिल पाता।
बाद में एक एनजीओ की प्रतिनिधि ने मुझे बताया कि जब पूरा परिवार गांव छोड़कर काम की तलाश में शहर चला जाता है तो पुरुषों के साथ ही महिलाएं और बच्चे तक फैक्टरियों में काम करते हैं। लेकिन अगर पुरुष ही शहर जाता है तो उनकी स्त्रियां कामकाज नहीं करतीं। शायद पति के बिना वे असुरक्षित महसूस करती हैं।
पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक अन्य गांव में मेरी भेंट 16 से 25 वर्ष उम्र की युवा लड़कियों के दो समूहों से हुई, जिनका एक एनजीओ से सम्पर्क था। एक लड़की ने कहा, हमें परिवार के दबाव का सामना करना पड़ता है। हमें मीटिंग्स में जाने और अपने भविष्य के बारे में बात करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।
एक अन्य लड़की ने बताया, हम पर शादी करने का दबाव बनाया जाता है और शादी होते ही बच्चों की मांग होने लगती है। शादी के एक साल बाद बच्चा न हो तो परिवार के लोग चिंतित होने लगते हैं। तीसरी लड़की ने कहा, अगर हमें समय पर काम नहीं मिला तो हमारे माता-पिता हमारी शादी कर देंगे और हमारे कॅरियर का अंत हो जाएगा।
हरियाणा के करनाल में 18 से 25 वर्ष उम्र की दो दर्जन लड़कियों के एक समूह से मेरी भेंट हुई, जो एक कीटनाशक कम्पनी के लिए कृषि साथी के रूप में काम कर रही थीं। वह कम्पनी स्त्रियों को ही नौकरी देती थी। ऐसी लैंगिक संवेदनशीलता दुर्लभ है। कॉर्पोरेट्स भी इसमें ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। महिलाओं का वर्क पार्टिसिपेशन बढ़ाने के लिए हमें अपने मानदंडों को बदलना होगा।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
Source;- ‘’दैनिकभास्कर’’