• April 28, 2024 6:18 pm

सुलह-सौहार्द तभी बहाल हो सकेगा जब सच को सभी पक्ष कबूल करने लगेंगे

24 मई 2022 | ज्ञानवापी मस्जिद के वुजू तालाब में जो पाया गया, वह शिवलिंग है या बड़े आकार के फव्वारे की टोंटी? अदालत के आदेश पर किए जा रहे सर्वे में क्या उस मस्जिद की दीवारों पर सिंदूरी रंग की मूर्तियां, कमल के फूल, स्वस्तिक, पौराणिक शेषनाग की आकृतियां खुदी मिली हैं? क्या कुतुब मीनार के अहाते में उलटे हुए एक पत्थर पर गणेश-आकृति खुदी है? क्या मथुरा में औरंगजेब ने कृष्ण जन्मभूमि पर बने केशवदेव मंदिर को तोड़कर शाही ईदगाह मस्जिद बनवाई थी?

मान लीजिए इन सारे सवालों के जवाब ‘हां’ में हैं क्योंकि प्रायः जवाब यही हैं, तो तीन और सवाल उभरते हैं- अगर ये सब सच हैं, तो क्या फर्क पड़ता है? अगर इससे हिंदुओं को गुस्सा आता है, तो आज 2022 में उन सच्चाइयों का आप क्या कर सकते हैं? और अगर आप नाराज और खौफजदा मुसलमान हैं, तो भी आप क्या करेंगे? भारतीय राष्ट्रवाद के लिए जीने-मरने के इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए हमें एक और सवाल उठाना पड़ेगा।

वो यह कि पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक तमाम प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के लाल किले से ही देश को संबोधित क्यों करते रहे हैं? लाल किले को हर किसी ने- चाहे वह किसी राजनीतिक पक्ष का हो या किसी भी विचारधारा का हो- भारत की सम्प्रभुता का प्रतीक मान लिया है। क्या इसे मुस्लिम स्मारक के रूप में देखा जाता है?

300 से ज्यादा वर्षों से भारतीय राष्ट्रवाद या अधिक साहस के साथ कहें तो भारतीय धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का जिस दिलचस्प ढंग से विकास हुआ है, उसकी जटिलताओं का यह 17वीं सदी का किला उपयुक्त प्रतीक है। मुगल बादशाह शाहजहां ने जब अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली लाने का फैसला किया, तब 1638 ई. में उसने इसे बनाने का हुक्म जारी किया था।

वह अपने बेटे उस औरंगजेब के जुल्म का शिकार बना था, जिसने अपने भाई दारा शिकोह की हत्या की और अपने बाप को कैद में डाल दिया था। वैसे, इसी शाहजहां ने ओरछा के भव्य मंदिरों को तोड़ने का भी हुक्म दिया था क्योंकि ओरछा के राजा झुझर सिंह ने बगावत की थी और उसने झुझर सिंह को सजा देने के लिए अपने जिस शाहजादे को भेजा था, वह औरंगजेब ही था।

गौर करने वाली बात यह है कि लाल किले पर पहला हमला 1739 में नादिर शाह ने किया था। लाल किला तो कोई हिंदू महल नहीं था, न ही उसके अंदर कोई मंदिर था। वह एक समय महान भारतीय साम्राज्य की ताकत का प्रतीक था। नादिर शाह और उसके साथी मुस्लिम हमलावरों को तो मध्ययुगीन लुटेरों की तरह उसे कायदे से लूटना भर था। लाल किले पर दूसरा हमला सिखों के एक लड़ाके मिसल ने किया था। 1857 में सेनानियों ने बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी।

लाल किला उन सेनानियों के लिए भारतीय संप्रभुता का प्रतिनिधित्व करता था। इसीलिए, लाल किले पर अंतिम चढ़ाई अंग्रेजों ने की, जब उन्होंने विद्रोह को कुचल डाला। हम पहले ही कबूल कर चुके हैं कि शुरू में हमने जो सवाल उठाए, उनके जवाब हां में हैं। यह कि जिन इतिहासकारों को दक्षिणपंथियों के द्वारा वामपंथी माना जाता है, उन्होंने भी लिखा है कि काशी और मथुरा के मंदिर औरंगजेब के हुक्म से तोड़े गए और उनके मलबे पर मस्जिद और ईदगाह बनवाई गई।

मध्ययुगीन भारत पर प्रामाणिक काम करने के लिए सम्मानित रिचर्ड ईटन ने भी इसे विस्तार से रिकॉर्ड किया है। ईटन ने बताया है कि भारत में मुसलमानों के आगमन के बाद से केवल काशी-मथुरा ही नहीं, बल्कि कई दूसरे मंदिरों और हिंदू स्थलों को गजनी जैसे लुटेरों से लेकर उपनिवेशवादियों और भारत में जन्मे खासकर मुस्लिम देसी शासकों ने नष्ट किया। इसलिए, अदालत के आदेश से कहीं भी सर्वे किया जाए, कोई नई खोज नहीं की जा सकेगी।

हमने ऊपर जो तीन सवाल उठाए हैं, उनका अब जवाब देने की जरूरत है कि इस इतिहास का हम क्या करें? अगर इस पर कोई विवाद नहीं है कि ये तोड़फोड़ और लूटपाट हुई, तो लड़ने को यही मुद्दा रह जाता है कि उन हमलावरों की मंशा क्या थी। एक पक्ष का मानना है कि वह शुद्ध रूप से और अधिकांशतः राजनीतिक और आर्थिक मामला था। दूसरा पक्ष मानता है कि यह शुद्ध रूप से धर्मांधता और हिंसक मूर्तिभंजन का मामला था। अब यह दोनों तरफ के बुद्धिमानों की बौद्धिक बहस का मामला रह जाता है।

हमारा जो संवैधानिक ढांचा है, उसके तहत इस अतीत को बदलना असंभव है। ‘उपासना स्थल (विशेष अनुबंध) अधिनियम-1991’ ऐसे किसी संशोधन पर रोक लगाता है। अधिक जोर देने के लिए अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों के 2019 के फैसले का हवाला दिया जा सकता है, जिसके तहत इस अधिनियम को स्पष्ट रूप से संविधान के मौलिक ढांचे में शामिल कर दिया गया है।

मुझे नहीं लगता कि इस कानून को रद्द किया जाएगा। इक्कीसवीं सदी के इस मोड़ पर हिंदू समुदाय अपने ऊपर हुए जुल्म के सबूत जुटाने के लिए खुदाई करने से हाथ खींच सकता है। उनके सबूत उन स्रोतों से पहले ही उपलब्ध हैं, जिन स्रोतों को दूसरा पक्ष भी विश्वसनीय मानता है। इसी तरह, मुस्लिम समुदाय और वाम-धर्मनिरपेक्ष पक्ष भी अतीत में हुई गलतियों के इनकार से परहेज कर सकता है, चाहे गलतियां करने वालों की जो भी मंशा रही हो। सच को जब दोनों पक्ष कबूल कर लेंगे तभी धीरे-धीरे सुलह-सौहार्द भी बहाल हो सकेगा।

मध्ययुग के असहज करने वाले सच
धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने के लिए इस तरह के तर्कों का सहारा लेना आत्मघाती ही होगा कि ‘क्या औरंगजेब अच्छा बादशाह था?’ 21वीं सदी के संदर्भ में देखें तो मध्ययुग का कोई भी शासक अच्छा नहीं माना जाएगा। कुछ खराब थे, तो कुछ बेहद खराब थे। इस सच को जब दोनों पक्ष कबूल कर लेंगे, तभी धीरे-धीरे सुलह-सौहार्द भी बहाल हो सकेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Source;- ‘’दैनिकभास्कर’’

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