• March 29, 2024 8:35 pm

देश को तपा देने वाली भीषण हीट-वेव अचानक नहीं आई है

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26 मई 2022 | गर्मियां मेरे लिए अनजानी नहीं। उत्तर भारत में चलने वाली लू से भी मेरा राब्ता रहा है। लेकिन इस बार जब मैं अप्रैल में दिल्ली गई तो 111 डिग्री फारेनहाइट तापमान के लिए तैयार नहीं थी। दोपहर तीन बजे तक मुझे बाहर रहना पड़ा था और घर लौटने के लिए दो ही विकल्प थे, या तो किसी खचाखच भरी एसी बस में बैठूं या किसी खाली बस में बैठूं, जिसमें एसी नहीं है। कोविड-19 के बढ़ते मामलों की खबरों के कारण मैंने दूसरी वाली बस चुनी, जो कि तप रही थी।

अगले दिन सुबह पांच बजे मेरी नींद खुल गई। मेरा सिर दर्द कर रहा था और शरीर में थकान थी। इसके बावजूद मैं कहूंगी कि मैं भाग्यशाली ही साबित हुई। क्योंकि भारत में ऊंचे तापमान के दिन अब समय से पहले आ रहे हैं और अपनी नियत अवधि से लम्बे समय तक बने रहने लगे हैं। ऐसे में वंचित तबके के लोग इसके सीधे शिकार हो रहे हैं। जो खुद को ठंडा रख सकते हैं, वो तो वैसा कर लेंगे, लेकिन जो नहीं रख सकते, उन्हें तो गर्मी में ही काम करना है।

मार्च से ही भारत को जो हीट-वेव गिरफ्त में लिए हुए है, वह अचानक नहीं आई है। क्लाइमेट साइंटिस्टों द्वारा दक्षिण एशिया में उसका पूर्वानुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। जैसा तापमान मई और जून में दिखता है, वह मार्च में ही नजर आने लगा था। इससे गेहूं की फसलें झुलस गईं, आम की पैदावार घट गई और लोग सोचते रह गए कि यह वसंत है या ग्रीष्म?

इसी सोमवार को प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु-परिवर्तन के कारण इस तरह की हीट-वेव पूर्व-औद्योगिक कालखण्ड की तुलना में 30 गुना अधिक निरंतरता के साथ आती रहेंगी। मैंने अपनी रिसर्च में इस बात का परीक्षण किया था कि क्यों कुछ लोग स्वयं को जलवायु-परिवर्तन के अनुसार ढाल लेना चाहते हैं, जबकि दूसरे इसे इतना गम्भीर मसला नहीं समझते।

ऐसे भी हैं, जो चाहकर भी खुद को इसके अनुरूप नहीं कर सकते, क्योंकि उनके पास इसके लिए संसाधन ही नहीं हैं। मैंने हाल ही में तीन साल की थका देने वाली अवधि के बाद क्लाइमेट चेंज वर्किंग ग्रुप के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की 3600 पेज लम्बी नवीनतम रिसर्च खत्म की है, जिसमें इस समस्या पर विस्तार से बात की गई है और इससे निपटने के समाधान भी सुझाए गए हैं।

इसके एशिया चैप्टर में- जिसकी मैं सहलेखिका हूं- हमने यह दर्ज किया है कि कैसे इस महाद्वीप में जलवायु-परिवर्तन के घाव गहरे हो गए हैं और कैसे इसने जंगल, पानी और खेती पर निर्भर लोगों के जीवन और आजीविका को नष्ट किया है। शहर तो खासतौर पर खतरे में हैं। वैश्विक तापमान में डेढ़ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के साथ ही कोलकाता जैसे शहर- जहां डेढ़ करोड़ लोग रहते हैं- सालाना ही 2015 जैसी हीट-वेव का सामना करेंगे, जिसने 2500 जानें ली थीं।

क्लाइमेट चेंज के खतरों को प्रदर्शित करने वाले हर वैश्विक मानचित्र पर दक्षिण एशिया सबसे खतरनाक स्थिति में साबित होता है। सदियों के औपनिवेशीकरण ने जिस तरह से दक्षिण एशिया के संसाधनों का नाश किया है, उसने इसे उच्च तापमान और उससे जूझने के कम साधनों के साथ चिंताजनक स्थिति में ला दिया है। वेट-बल्ब टेम्प्रेचर तो एक स्वस्थ वयस्क व्यक्ति के लिए चंद ही घंटों में जानलेवा साबित हो सकता है। भारत के अनेक हिस्से धीरे-धीरे इस स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।

ग्लोबल वॉर्मिंग का एक और आयाम मानवीय श्रम पर इसका प्रतिकूल असर है। नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल इससे 228 अरब घंटों के हेवी आउटडोर लेबर का नुकसान हो रहा है। मुझसे अकसर पूछा जाता है कि इससे निपटने के लिए भारत की क्या तैयारी है। इसका जवाब यह है कि भारत ने हीट-वेव के लिए एक अर्ली-वॉर्निंग सिस्टम बनाया है और भले ही गर्मियों से सम्बंधित बीमारियों के डाटा उपलब्ध न हों, लेकिन इससे होने वाली मौतें विगत एक दशक में कम हुई हैं।

अनेक सरकारी विभागों के द्वारा हीट-रिलीफ नीतियां बनाई गई हैं। अनेक शहरों के हीट-एक्शन प्लान तैयार हैं, जो भले ही आने वाले समय के बड़े खतरों के लिए तैयार न हों, लेकिन उन्हें विकसित किया जा रहा है। यह भी पूछा जाता है कि क्लीन एनर्जी की दिशा में जाने के लिए भारत क्या कर रहा है। इसका जवाब यह है कि भारत को अपनी बड़ी आबादी की आजीविका की चिंता भी करनी है और विकास की राह में पिछड़ना भी नहीं है। पूरी दुनिया को ही क्लीन एनर्जी की तरफ जाना है, भारत यह अकेला नहीं कर सकता है।

जलवायु-अन्याय…
वंचित तबके के लोग न तो एसी खरीद सकते हैं न ही उन्हें चलाने के लिए बिजली बिल भर सकते हैं। यह जलवायु-अन्याय है, क्योंकि जिन लोगों ने इस संकट में सबसे कम योगदान दिया है, वे ही इसकी सबसे ज्यादा कीमत चुका रहे हैं।

(‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ से)

Source;- ‘’दैनिकभास्कर’’


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