• April 20, 2024 2:00 pm

आज हमारा ध्यान मतभेदों पर ज्यादा है, समानता पर कम, मगर अदृश्य धागों में अभी भी है दम

31 अगस्त 2022 | हमारे देश में अलग प्रांत, भाषा, जाति और धर्म के लोग साथ जुड़े हुए हैं, ये एक तरह का चमत्कार माना जाता है। वैसे तो हमारी एकता के प्रतीक हैं राष्ट्रगान, तिरंगा झंडा और क्रिकेट टीम। मगर रोजमर्रा की भी कुछ चीजें हैं, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती हैं। ये चीजें आपको हर घर में मिलेंगी, चाहे अमीर हो या गरीब, हिंदू या मुसलमान, या फिर जैन-सिख-ईसाई। और मैं आपको दावे के साथ कह सकती हूं कि विदेश में इनका इस्तेमाल लोग जानते ही नहीं। मैं कौन-सी चीजों की बात कर रही हूं? चलिए, देखते हैं आपके घर में कितनी मिलती हैं।

प्रेशर कुकर : मेरी बेटी जब विदेश पढ़ने गई तो हमने उसे एक प्रेशर कुकर दिया, ताकि खाना फटाफट बना सके। जब उसने पहली बार इस्तेमाल किया तो उसके रूममेट सीटी की आवाज सुनकर डर के मारे घर से भागे। क्योंकि उन्होंने समझा कि फायर अलार्म बजा है। खैर, बाद में बोले, बड़े काम की चीज है। हमें भी ला दो!

मसाले का डब्बा : स्टील का गोलाकार बर्तन, जिसमें हम हल्दी, नमक, मिर्च, धनिया पावडर, राई, जीरा और गरम मसाला रखते हैं। खाना पकाना कितना आसान हो जाता है। हां, वैसे पुर्तगाली और अंग्रेज इस देश में आए थे, मसालों की खोज में। लेकिन आज भी वो काली मिर्च से ज्यादा कुछ सहन नहीं कर पाते। बेचारे।

झाड़ू : बिजली के बिना चलने वाला उपकरण, जिसका इस्तेमाल हर घर में होता है। अगर आपने शौक-शौक में वैक्यूम क्लीनर ले लिया, वो यूज होता है साल में दो बार। रोज की सफाई के लिए झाड़ू है एकमात्र सस्ता, सरल और सही उपाय। अगर आप ये काम खुद करने का ठेका ले लें तो महंगे जिम में जाने की जरूरत भी नहीं!.

पंखा : इस साल यूके और यूरोप में गर्मी की लहर का अहसास हुआ। और वहां ज्यादातर घरों में एसी तो छोड़ो पंखा तक नहीं होता। भाई, महाराजाओं के जमाने से पंखों के सहारे ही तो हमने ग्रीष्म ऋतु गुजारी है। तब हाथ से चलते थे, अब बिजली से। हर घर कुछ कहता है, पंखे से दिमाग ठंडा रहता है!

सोना : कोठी हो या झुग्गी-झोपड़ी, हर घर में औरतों के कान या हाथ में असली सोना होता है। हां, चोरी-चकारी के डर से और बदलते फैशन के युग में, आर्टिफिशियल का काफी चलन हो गया है। लेकिन फिर भी, घर के या बैंक के लॉकर में तो आपको जरूर मिलेगा। जिसे अंग्रेजी में कहते हैं, आइसिंग ऑन द केक। वो हमारी भाषा में है, सोने पे सुहागा।

रद्दी : अखबार हम खरीदते हैं मगर फेंकते नहीं। क्योंकि महीने के अंत में रद्दीवाला आपके घर आता है, रद्दी लेने के लिए। किलो के हिसाब से पैसे भी देता है। भाई, किसी और देश में तो ऐसी सर्विस पैसे देकर भी नहीं मिलती। तो अगली बार रद्दी बेचते वक्त रद्दीवाले की भी थोड़ी कदर कीजिए!

रूमाल : स्कूल हो या दफ्तर, बिना रूमाल के आपको मां घर से निकलने नहीं देती। क्या पता कब छींक आ जाए, या फिर पसीना। रूमाल सफेद होना चाहिए, ज्यादा से ज्यादा हलकी धारी के बॉर्डर वाली। और हां, मुम्बई की लोकल ट्रेम में सीट पर हक जमाने के भी काम आता है… रूमाल। है ना कमाल!

इस लिस्ट में पॉइंट नम्बर 5 के अलावा हर आइटम इको-फ्रेंडली कैटेगरी में आता है। यूज एंड थ्रो की मानसिकता हमारे देश में थी नहीं। हां, आज हम भी डिस्पोजेबल कल्चर को अपना रहे हैं, जबकि दूसरे देश सस्टेनेबिलिटी का गाना गा रहे हैं। तो हमें भी प्लास्टिक की थैली छोड़कर फिर से गर्व से झोला उठाना है। स्टील के गिलास को कूल बनाना है। मिट्‌टी के घड़े के मीठे पानी का अहसास बच्चों को देना है। मॉडर्न बनिए, मगर दिमाग लगाकर।

जानिए, परखिए, वैज्ञानिक और आर्थिक फायदा किसमें है? और हां, सेहत का भी। मेरी लिस्ट तो बस एक झलक है, आप ईमेल द्वारा मुझे और पॉइंट्स भेजिए। आज हमारा ध्यान मतभेदों पर ज्यादा है, समानता पर कम। मगर अदृश्य धागों में अभी भी है दम। इस पर अगर ध्यान दें, एक-दूसरे को सम्मान दें तो देश होगा बलवान; सुखी, सम्पन्न और महान।

हमें भी प्लास्टिक की थैली छोड़कर फिर से गर्व से झोला उठाना है। स्टील के गिलास को कूल बनाना है। मिट्‌टी के घड़े के मीठे पानी का अहसास बच्चों को देना है। मॉडर्न जरूर बनिए, मगर दिमाग लगाकर।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सोर्स :- “दैनिक भास्कर”                         

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